एक मजबूत विपक्ष होना अच्छा है, ठीक वैसे ही जैसे एक प्रतिस्पर्धी सरकार होना अच्छा है, लेकिन राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के समय हुई पहली “बहस” ने जो कुछ उजागर किया वह कुछ और अधिक चिंताजनक था: मोदी और राहुल दोनों में एक दूसरे के प्रति गहरी नापसंदगी है। कांग्रेस और उसके “धर्मनिरपेक्ष” सहयोगियों और भाजपा के नेताओं के बीच जैसी बहस हुई वह तो राजनीतिक रूप से स्पष्ट विभाजनकारी भावना को दर्शाती है।
एक दूसरे के प्रति यह व्यक्तिगत नापसंदगी 2002 के गुजरात दंगों से जुड़ी है, जब मोदी को कांग्रेस और धर्मनिरपेक्ष विपक्ष द्वारा घृणा का पात्र घोषित किया गया था। कानूनी व्यवस्था द्वारा उन्हें बरी किये जाने तथा छवि सुधारने के अनेक प्रयासों के बावजूद बहस इस बात का संकेत देता है कि इस धारणा को नहीं बदला जा सका है। भाजपा की कथित घृणा संस्कृति पर राहुल अपने भाषण में सीधे जोर देने में सक्षम थे।
उधर नरेन्द्र मोदी और भाजपा नेता अपनी ओर से नेहरूवादी विरासत और उसके वंश के आधार पर राहुल के प्रमुखता से उभर आने की आक्रामक रूप से आलोचना करते रहे हैं। कुछ समय के लिए, यह चरित्र चित्रण भाजपा/एनडीए के लिए अच्छा काम करता था, क्योंकि राहुल को “पप्पू” के रूप में देखा जाता था, जिसका कोई राजनीतिक महत्व नहीं था। भाजपा ने राहुल के "पप्पू" होने का इस्तेमाल मोदी के व्यक्तित्व के विपरीत एक उपयोगी विरोधाभास के रूप में किया। भाजपा के पक्षधरों ने इसे एक बेमेल मुकाबला माना और अपनी स्थिति को सही साबित करने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से मोदी-राहुल की तुलना को बढ़ावा दिया।
पुरानी कहावत, जो चाहो, सोच-समझकर करो, क्योंकि हो सकता है कि वह सच हो जाये, यहाँ भी लागू होती है। कांग्रेस से प्रधानमंत्री पद के लिए चेहरा मांगने के वर्षों बाद, अब यह स्पष्ट हो गया है कि राहुल ही वह चेहरा हो सकते हैं और यह पप्पू का चेहरा नहीं है।
पप्पू होने का अपना दर्जा छोड़ने से पहले ही, राहुल गांधी भाजपा को परेशान करने की क्षमता रखते थे। 2015 की शुरुआत में ही, उन्होंने सरकार को "सूट-बूट की सरकार" कहकर भड़काने में कामयाबी हासिल की और बाद में सीधे उद्योगपति अडानी का नाम लेकर इस आरोप को और मजबूत किया।
अन्य बातों के अलावा, राहुल ने विपक्ष के नेता के रूप में अपने पहले भाषण में कहा कि मोदी और अमित शाह को मणिपुर में क्या हो रहा है इसकी परवाह नहीं है और उनमें से कोई भी (और उनकी पार्टी के अन्य नेता भी) उनकी परिभाषा के अनुसार हिंदू नहीं हैं। प्रधानमंत्री ने राहुल के सामने आने वाले कानूनी मामलों के बारे में बात की और बताया कि कैसे उनकी पार्टी अपनी ताकत के बजाय अपने सहयोगी दलों के मतदाताओं पर निर्भर है। उन्होंने विपक्ष के नेता के भाषण को बचकाना (बालक बुद्धि का) बताया।
यह मानते हुए भी कि हिंदू धर्म और भाजपा पर राहुल की टिप्पणियों का उद्देश्य केवल भाजपा और संघ परिवार को नफरत से प्रेरित बताना था, उनके भाषण के ये अंश उससे भी बहुत आगे निकल गये। इन टिप्पणियों की तुलना कुछ समय पहले उनके खुद के इस दावे से करें कि उनकी धर्मनिरपेक्ष सहयोगी मुस्लिम लीग एक "धर्मनिरपेक्ष" पार्टी है। संघ भले ही सभी हिंदुओं का प्रतिनिधित्व न करता हो, लेकिन विचारों की स्वतंत्रता के आधार पर उसे भी राष्ट्रवाद के अपने संस्करण को प्रचारित करने के लिए सामाजिक और राजनीतिक स्थान मिलना चाहिए, जिससे राहुल असहमत हो सकते हैं। (संवाद)
दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी
संसद के पहले सत्र में हुई बहस से व्यापक मतभेदों का पता चला
हरिहर स्वरूप - 2024-07-08 11:14
अट्ठारहवीं लोक सभा के पहले ही सत्र में एनडीए सरकार और विपक्ष के बीच, विशेषकर विपक्ष के नेता राहुल गांधी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच हुई पहली मौखिक झड़प के बारे में अनेक बातें कही गयीं हैं। सबसे ज़्यादा सुनी जाने वाली टिप्पणी यह है कि विपक्ष को आखिरकार अपनी आवाज़ मिल गयी है और सरकार अब संसद में किसी भी बात को दबा नहीं सकती।