केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा 27 जून को स्वास्थ्य सेवा उद्योग, पेशेवरों और विशेषज्ञों के साथ बजट-पूर्व परामर्श के दौरान लोगों की ऐसी समस्याओं को पहले ही उजागर किया जा चुका है। सबसे बड़ा मुद्दा अपर्याप्त सार्वजनिक वित्तपोषण का था, जो लैंसेट की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में देश के सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.2 प्रतिशत है। प्रतिभागियों ने मांग की कि केंद्रीय बजट 2024-25 में इसे कम से कम 3 प्रतिशत तक बढ़ाया जाये, ताकि कुछ तत्काल स्वास्थ्य वित्तपोषण आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।

वित्त मंत्रालय वर्तमान में लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहा है, क्योंकि 23 जुलाई को पेश किए जाने वाले केंद्रीय बजट 2024-25 में वित्तपोषण पैटर्न लोकसभा चुनाव की घोषणा से ठीक एक महीने पहले 1 फरवरी, 2024 को संसद में पेश किये गये अंतरिम बजट 2024-25 के प्रावधानों से बहुत अधिक संभव नहीं हो सकता है। अंतरिम बजट 2024-25 में स्वास्थ्य के लिए कुल आवंटन केवल 90,171 करोड़ रुपये था, जो पिछले वर्ष के 79,221 करोड़ रुपये के आवंटन से थोड़ा ही अधिक है। यह काफी वृद्धि लग सकती है, लेकिन यह आवश्यकता से बहुत कम है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 के अनुसार, जिसे 2020 की कोविड-19 महामारी से लगभग तीन साल पहले ही जारी किया गया था, में स्वास्थ्य में सार्वजनिक निवेश को 2025 तक सकल घरेलू उत्पाद के 2.5 प्रतिशत तक करने की बात कही गयी थी।

हालाँकि, कोविड-19 संकट ने बहुत अधिक निवेश की आवश्यकता रेखांकित की है, जो कुछ अंतरराष्ट्रीय अनुमानों के अनुसार सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 9 प्रतिशत होना चाहिए, जबकि भारत का स्वास्थ्य पर केवल 1.2 प्रतिशत खर्च करता है जो पूरी तरह से अस्वीकार्य है। मोदी सरकार स्पष्ट रूप से अपनी स्वयं की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 के अनुसार 2.5 प्रतिशत के लक्ष्य को प्राप्त करने में भी विफल रही है।

यदि हम अंतरिम बजट 2024-25 में अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद पर 2.5 प्रतिशत की राशि की गणना करते हैं, तो राष्ट्रीय व्यय 819,000 करोड़ रुपये होना चाहिए था, जिसमें केंद्र सरकार का योगदान 40 प्रतिशत की गणना के अनुसार 327,718 करोड़ रुपये होना चाहिए। हालाँकि, अंतरिम बजट में केवल 90,171 करोड़ रुपये आवंटित किये गये। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि स्वास्थ्य भारत के संविधान की समवर्ती सूची में है, और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय का 60 प्रतिशत राज्य सरकारों द्वारा वहन किया जाता है।

लैंसेट की रिपोर्ट ने हाल ही में दावा किया है कि भारत सरकार स्वास्थ्य सेवा पर सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.2 प्रतिशत खर्च करती है, जो कि जी 20 देशों में सबसे कम है। हालांकि, मोदी सरकार ने इस टिप्पणी की आलोचना करते हुए दावा किया है कि स्वास्थ्य खर्च अब तक के उच्चतम स्तर पर है और कुल स्वास्थ्य व्यय के प्रतिशत के रूप में जनता की जेब से खर्च में कमी आयी है। ऐसा दावा अप्रैल में लोकसभा चुनाव के दौरान किया गया था, जब पीएम मोदी भाजपा के लिए 370 सीटों की उम्मीद कर रहे थे।

अब राजनीतिक वास्तविकता बदल गयी है और वह भाजपा की 240 सीटों के साथ गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने के लिए मजबूर हैं। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि 2014-15 में सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में सरकारी स्वास्थ्य व्यय 1.13 प्रतिशत था, और 2019-20 में 1.35 प्रतिशत। वर्ष 2023-24 के लिए अनुमानित व्यय 86,175 करोड़ रुपये था और इसलिए अंतरिम बजट 2024-24 में 90,171 करोड़ रुपये का आवंटन बहुत छोटी वृद्धि है, जिसे अब पूर्ण बजट में काफी बढ़ाया जाना चाहिए।

अब समय आ गया है कि सरकार की आलोचना करने वालों की आलोचना न की जाये, बल्कि उठाये जा रहे मुद्दों पर ध्यान दिया जाये और उन्हें केंद्रीय बजट 2024-25 में संबोधित किया जाये। लैंसेट ने अपनी रिपोर्ट में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा और सार्वभौमिक स्वास्थ्य के विस्तार की प्रमुख पहलों की विफलता का भी उल्लेख किया है, जो सबसे अधिक जरूरतमंद लोगों तक सेवाएं पहुंचाने में विफल रही हैं।

मोदी सरकार की विफलता का एक उदाहरण एसोसिएशन ऑफ हेल्थकेयर प्रोवाइडर्स ऑफ इंडिया के महानिदेशक ने बजट पूर्व परामर्श के दौरान भी सुनाया था। उन्होंने कहा, “प्रधानमंत्री चाहते थे कि टियर 3 शहरों में 100 बेड वाले 3,000 अस्पताल हों, जो नहीं हुआ। इसलिए, हम चाहते हैं कि सरकार सस्ती बिजली, सस्ती जमीन, किफायती ऋण और सिंगल विंडो मंजूरी के मामले में निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करे ताकि ये अस्पताल स्थापित किये जा सकें।”

आयुष्मान भारत मोदी सरकार का एक प्रमुख कार्यक्रम है, लेकिन अब यह एक सर्वविदित तथ्य है कि इसे बहुत बड़े भ्रष्टाचार के अलावा अपर्याप्त धन आवंटन का शिकार होना पड़ा। फंड प्राप्त करने में देरी के कारण निजी अस्पतालों द्वारा इसे ठीक ढंग से लागू नहीं किया गया क्योंकि निजी अस्पतालों के नकदी प्रवाह पर असर पड़ा और अस्पतालों के परिचालन संबंधी गंभीर समस्याएं पैदा हुईं। यह योजना 2018 में शुरू की गई थी और इसे केंद्र और राज्यों द्वारा 60:40 के अनुपात में संयुक्त रूप से वित्त पोषित किया गया था। अंतरिम बजट में केवल 7,500 करोड़ रुपये आवंटित किये गये हैं। पिछले साल 7,200 करोड़ रुपये आवंटित किये गये थे, जो संशोधित अनुमान में घटकर 6,800 करोड़ रुपये हो गये। इसका साफ मतलब है कि योजना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रही है। इस योजना का लक्ष्य 12 करोड़ परिवारों को प्रति वर्ष 5 लाख रुपये प्रति परिवार का लाभ पहुंचाना है, और इसलिए फंडिंग अपर्याप्त है। मई में ही राज्यों द्वारा अपर्याप्त फंड जारी करने पर गंभीर चिंता व्यक्त की गयी थी, जो पहले से ही फंड की कमी से जूझ रहे हैं और उनके, खासकर विपक्षी शासित राज्यों के, केन्द्र के साथ राजस्व साझा करने के मुद्दे लंबित हैं।

इसके अलावा, भारत में अस्पताल बेड की कमी है। हमारे पास प्रति 1000 लोगों पर 2 से भी कम अस्पताल बेड हैं, जबकि डब्ल्यूएचओ का मानक 3.5 बेड का है। इसके अलावा, राज्यों और शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत असमानता है। उदाहरण के लिए, कर्नाटक में प्रति 1000 लोगों पर 4 बेड हैं जबकि बिहार में केवल 0.3 प्रतिशत। फिर स्वास्थ्य सुविधाओं का संकेन्द्रण शहरों में है। यह बिना कहे ही स्पष्ट है कि आयुष्मान का लाभ अधिकांश लोगों तक नहीं पहुँच पा रहा है।

भारत में अधिकांश लोगों की अस्पताल में भर्ती होने से पहले की ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो पाती हैं। सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा को संभव बनाने के लिए तत्काल अधिक धन की आवश्यकता है। केंद्रीय बजट 2024-25 में पर्याप्त धन उपलब्ध कराया जाना चाहिए और मुफ़्त स्वास्थ्य सेवा को मौलिक अधिकार बनाया जाना चाहिए। (संवाद)