वित्त मंत्री श्री चिदम्बरम ने इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था की चुनौतियों का जिक्र करते हुए कहा कि विदेशों से अप्रत्याशित और भारी धन आगमन और बढ़ते विदेशी मुद्रा भंडार के कारण भारी चुनौती उपस्थित हो गयी है। उन्होंने कहा कि रुपया मजबूत होने से भी खतरा है। एक ओर अल्पावधि में इस भारी धन को खपाने का संकट है तो दूसरी ओर मजबूत रुपया भारतीय निर्यात को दुष्प्रभावित करेगा।
अल्पावधि में भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रति ऐसी चिंता भारत के उस वर्ग की चिंता को प्रतिबिंबित करती है जो एकतरफा विकास से मालामाल हो रहे हैं और प्रति व्यक्ति भोजन की उपलब्धता घटने के बावजूद जनता को बरगलाने की कोशिश कर रहे हैं।
उदाहरण के लिए वित्त मंत्री का कथन ही पर्याप्त होगा जिन्होंने कहा कि इतना ज्यादा धन अचानक आ जाना भारतीय अर्थव्यवस्था की उसे जज्ब करने की क्षमता की परीक्षा की घड़ी है।
चुनौती के रुप में उन्होंने देश में बढ़ती कीमतों को गिनाया लेकिन कहा कि अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में खाद्यान्न और खनिज तेल की कीमतें बढ़ने से इसपर और बुरा असर पड़ सकता है। अन्य देशों, विशेषकर जिनके साथ भारत व्यापार करता है, में आर्थिक मंदी का आना हमारे वित्त मंत्री के लिए चिंता का कारण बना और उन्होंने कहा कि भारत को इन विदेशी मंदियों और महंगायी से बचाने की आवश्यकता है।
मध्यावधि में भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौती में उन्होंने हाल के वर्षों में भारत की उच्च विकास दर को बनाये रखने को बताया।
जहां एक ओर वित्त मंत्री ने भारी धन के भारत आगमन पर गर्व महसूस किया और चिंता जतायी वहीं दूसरी ओर उन्हीं के भाषण में धन की कमी की बात भी कही गयी। एक ओर धन के अधिक होने पर रोना और दूसरी ओर कमी का रोना हमारे अर्थशास्त्रियों के लिए समझ में आने लायक बात हो सकती है लेकिन आम जनता के समझ से परे की बात है।
उन्होंने बताया कि सभी परियोजनाओं को समय पर पूरा करने के लिए धन उगाहने की आवश्यकता है। जनता ऐसे भाषणों का अर्थ समझती है क्योंकि उनका किसी न किसी बहाने दोहन होता रहा है। सेवाओं के लिए शुल्क, कीमतें और करों में लगातार इसी कमी के नाम पर वृद्धि की जाती है जबकि वाहवाही लेने के समय सरकार कहती रही है कि काफी विकास हो रहा है और इतना ज्यादा धन एकत्रित हो गया है कि उसे खपाने की समस्या खड़ी हो गयी है। ऐसा देशी और विदेशी दोनों तरह के धन के मामले में कहा जाता रहा है। साथ में धन की कमी का रोना भी रोते हैं जब जनता के लिए कुछ करने की बात आती है।
वित्त मंत्री ने ही बताया कि कृषि क्षेत्र में धीमी गति विकास हो रहा है। अनेक उपजों की उत्पादकता ठहर जाने और प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता घटने जैसे मुद्दे भी बने हुए हैं, उन्होंने स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि इसके लिए अतिरिक्त सार्वजनिक निवेश और नीतिगत परिवर्तन की तत्काल आवश्यकता है।
उन्होंने बताया कि 2006 - 07 में विकास दर सकल घरेलू उत्पाद की 9.4 प्रति शत हो गयी है। चालू वर्ष की पहली तिमाही में विकास दर 9.3 प्रति शत थी। इतनी तेज गति विकास दर का राज बताते हुए उन्होंने कहा कि 2006 - 07 में निवेश की दर बढ़कर 35.1 प्रति शत हो गयी जो 2001 - 02 में मात्र 22.9 प्रति शत थी।
उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय एजंसियों के हवाले से कहा कि यदि भारत इसी तरह तेज गति से विकास करता रहा तो 2025 तक भारत दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा उपभोक्ता देश बन जायेगा।
विकास की ऐसी परिकल्पना वाले हमारे वित्त मंत्री ने बताया कि विकास के रुझान में ढांचागत परिवर्तन हुआ है। सकल घरेलू उत्पाद में उद्योग का हिस्सा 2003 -04 के 25.6 प्रति शत से बढ़कर 2006 - 07 में 26.6 प्रति शत हो गया है।
लेकिन उनके भाषण में ही ध्यान देने वाली बात यह थी कि कृषि और उससे जुडे क्षेत्रों की सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सेदारी आलोच्य अवधि में ही 21.7 प्रति शत से घटकर 18.5 प्रति शत हो गयी। इससे साफ हो गया है भारत में किसानों द्वारा लगातार आत्महत्या करने और प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता घटते जाने का कारण क्या है। विकास की इस तस्वीर के बावजूद यदि यह सरकार विकास के ढिंढोरे पीटती है तो माना ही जाना चाहिए कि वह उस वर्ग का पक्ष पोषण करने में ही लगी हुई है करोड़ों लोगों को भूखे रखकर धन कमाने की पागल दौड़ में शामिल हैं।
देश में सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी 52.7 प्रति शत से बढ़कर 54.9 प्रति शत हो गयी है। यह सरकार की रुचि की बात है क्योंकि उत्पादन के हर अन्य क्षेत्र में सरकार देश को आगे नहीं ले जा पा रही है। आम लोगों को भी इससे फायदा हो रहा है, लेकिन उद्योग और कृषि क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ाना और अच्छी बात होती।
उन्होंने बताया कि भारत के उद्योग अब बैंकों से ज्यादा कर्ज ले रहे हैं। इसमें वृद्धि 2005 - 06 में 30 और 2006 - 07 में 28.4 प्रति शत की दर से हुई। यदि इन कर्जों का उपयोग सच में निवेश के लिए हो तो अच्छी बात है। परन्तु पिछले रिकार्ड अच्छे नहीं रहे हैं। लाखों करोड़ रुपये लेकर उद्योगपतियों द्वारा हड़प लिया गया और उन्हें गैर उत्पादक कर्ज के मद में डालकर सरकारें आराम फरमाती रही हैं। छोटे कर्जदारों के साथ की जाने वाली सख्ती बड़े कर्जदारों पर नहीं की जाती। कारण मिलीभगत रही है। जो भी हो, हम यह मान कर चलें कि निवेश में इनका इस्तेमाल होगा।
उन्होंने बताया कि देश में धन की उपलब्धता उगाही में बेहतरी आने से हुई और इससे निगमित क्षेत्र की कम्पनियों की जरुरतें काफी हद तक पूरी हुईं। विदेशी निवेश के बारे में उनका कहना था कि 2005 - 06 के 4.7 अरब डालर के मुकाबले 2006 - 07 में सीधा विदेशी निवेश बढ़कर 8.4 अरब डालर हो गया। चालू वर्ष में 30 जून तक 6.4 अरब डालर का सीधा विदेशी पूंजीनिवेश हो चुका था।
श्री चिदम्बरम ने कहा कि दुनिया के निवेशकों की भारतीय उद्योगों में बढ़ती रुचि के कारण ही सेंसेक्स 29 अक्तूबर 2007 को 19,977 तक पहुंच गया।
उनके इस उत्साह से अनेक लोगों को परेशानी हो सकती है क्योंकि उनकी प्राथमिकता शेयर बाजार नहीं है जैसा कि हमारे वित्त मंत्री की।
आम लोगों के लिए विकास के अन्य मापदंड हैं। उदाहरण के लिए भुगतान संतुलन को ही ले लें। वित्त मंत्री ने संतोष व्यक्त किया कि भुगतान संतुलन की स्थिति संभाल पाने की सीमा में ही है। लेकिन यदि आंकड़ों पर गौर फरमायें तो निराशाजनक तस्वीर सामने आती है। भारत का व्यापार घाट 21.6 अरब डालर हो गया है। अर्थात हमने आयात ज्यादा किया और निर्यात कम। इसकी भरपायी विदेशों में काम कर रहे भारतीयों द्वारा धन भेजे जाने आदि अदृश्य आगम से की गयी जो 16.9 अरब डालर थी। फिर भी 4.7 अरब डालर का घाटा रह गया।
विदेशों से पूंजी आने के कारण भारत का विदेशी मुद्रा भंडार भी बढ़कर मार्च 2007 में 199 अरब डालर तथा 26 अक्तूबर 2007 को 262 अरब डालर हो गया था।
रुपये के मजबूत होने के दुष्प्रभावों को सिर्फ निर्यात का फायदा उठाने वाले लोग ही बढ़ा चढ़ाकर पेश करते हैं। रुपये के कमजोर होने से उन्हें फायदा होता है। अब मजबूत हुआ तो सरकार ने उन्हें 5,200 करोड़ रुपये के पैकेज दे दिये ताकि उन्हें नुकसान न हो। काश अन्य क्षेत्रों के अपेक्षाकृत गरीब लोगों को भी ऐसी ही सुविधाएं बिना जलील किये दी जातीं। यहां मर रहे किसानों को राहत तक भी आसानी से सरकार नहीं देती, जो सरकार में शामिल लोगों की रुचि को साफ जाहिर कर देता है।
बताया गया कि भारत का विदेशी कर्ज लगातार घटता जा रहा है। उन्होंने कहा कि जून महीने के अंत में भारत का विदेशी कर्ज मात्र भारत के विदेशी मुद्रा भंडार का 129 प्रति शत रह गया था। वित्त मंत्री ने इसे आरामदायक स्थिति बताया।
राजकोषीय घाटा भी सितम्बर 2007 में बजट की निर्धारित राशि का 53.8 प्रति शत रह गया था जो पिछले साल इसी अवधि में 58.2 प्रति शत था।
उन्होंने बताया कि देश में गरीबी घट रही है, लेकिन उन्होंने स्पष्ट नहीं किया कि यदि लोगों को भोजन मिलना ही कम हो गया है तो गरीबी घटने का दावा कैसे सही होगा।
आंकड़ों में बोरोजगारी की दर भी बढ़ी है। यह 2004 - 05 में कुल श्रम बल का 3.06 प्रति शत तक पहुंच गयी थी जो 1999 - 2000 में 2.78 प्रति शत ही थी। श्रम बल भी 1.6 से बढ़कर 2.54 हो गया है। #
अप्रत्याशित विदेशी धनागम से भारत को खतरा
भोजन की घटती उपलब्धता
वित्त मंत्री को ऐसे आर्थिक विकास पर गर्व
ज्ञान पाठक - 2007-11-12 18:53
भारत के वित्त मंत्री पी चिदम्बरम ने देश के आर्थिक विकास की एक तस्वीर पेश करते हुए देश के आर्थिक संपादकों के एक सम्मेलन में कहा कि उन्हें और उनकी सरकार को गर्व है। उन्होंने कहा कि ऐसा गर्व क्षमा योग्य है। लेकिन क्या भारत की जनता उन्हें क्षमा कर सकेगी विशेषकर वे जिनके लिए भोजन की उपलब्धता घटी है? उन्होंने देश की विकास दर सकल घरेलू उत्पाद का 9.4 प्रतिशत बताया लेकिन यह भी स्वीकार किया कि प्रति व्यक्ति भोजन की उपलब्धता कम होती जा रही है। सवाल है कि ऐसे विकास का हमारी आम जनता क्या करेगी?