यह कहना गलत होगा कि यह सब अकस्मात ही हुआ। जिन परिस्थितियों में यूपीए सरकार विरोधी बंद के दिन नरेन्द्र मोदी विरोधी नारे लगाए गए उससे साफ है कि वह पूर्व नियोजित था। मोदी के विरोध के लिए पटना और भागलपुर को चुना गया। पटना राज्य की राजधानी है। इसलिए वहां जो कुछ होता है, उसका असर पूरे राज्य में होता है। भागलपुर 1989 में हुए दंगे के लिए कुख्यात है। नीतीश कुमार ने उस दंगे में शामिल कुछ लोगों को सजा दिलवाकर मुसलमानों की वाहवाही हासिल की है। उन्हें लगता है कि उनका मुस्लिम समर्थन भागलपुर से ही शुरू होंकर पूरे राज्य से प्राप्त होगा। यही कारण है कि पटना के साथ साथ भागलपुर को भी नरेन्द्र मोदी के खिलाफ नारेबाजी के लिए चुना गया।
पटना में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ मोर्चा मोनाजिर हसन संभाल रहे थे। वे बेगूसराय से जनता दल (यू) के सांसद हैं। कायदे से उन्हे उस दिन अपने निर्वाचन क्षेत्र में होना चाहिए था। लेकिन वे पटना में थे। वे पटना में थे ही नरेन्द्र मोदी के खिलाफ मोर्चा संभालने के लिए। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ पटना में नारेबाजी डाकबंगला चौराहे के पास हुई, जो बंद के दिन पटना में प्रदर्शनकारियों का सबसे बड़ा केन्द्र होता है। उस समय वहां जनता दल (यू) के साथ साथ भाजपा के कार्यकर्त्ता भी मौजूद थे।
सबसे अचरज की बात तो यह है कि उस रोज पटना में जनता दल (यू) के बड़े बड़े नेता मौजूद थे, लेकिन उस समय डाकबंगला चौराहे पर मोनाजिर से बड़ा कोई नेता मौजूद नहीं था। मोनाजिर के नेत्त्व में नरेन्द्र मोदी विरोधी नारेबाजी हुई और बदले मे भाजपा कार्यकर्त्ताओं ने नरेन्द्र मोदी के समर्थन में नारे लगाने आरंभ कर दिए। उन्होंने नीतीश कुमार के खिलाफ भी नारेबाजी प्रार्रभ कर दी और फिर मोनाजिर हुसेन के पुतले भी जलाए। बात मारपीट तक बढ़ रही थी, लेकिन बाद में कुछ अन्य नेताओं ने आकर मामले को संभाला।
जाहिर है नीतीश कुमार अभी भी 12 जून के अखबारों में नरेन्द्र मोदी के साथ छपी तस्वीरों को भुला नहीं सके हैं। उन्हें लगता है कि उसके कारण मुसलमानों मे उनकी स्वीकार्यता कम हो गई है और अपनी स्वीकार्यता बहाल करने के लिए उन्हें नरेन्द्र मोदी के खिलाफ लगातार कुछ न कुछ करते रहना पड़ेगा।
सवाल उठता है कि क्या नीतीश कुमार की यह राजनीति उन्हें मुसलमानों का मत दिलवा पाएगी? यह तो अब साफ हो गया है कि नीतीश किसी भी कीमत पर भाजपा का साथ नहीं छोड़ेंगे, क्योंकि उन्हें पता है कि भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़े बिना वे दुबारा मुख्यमंत्री बन ही नहीं सकते। उनके द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण रिपोर्ट की चर्चा आजकल पटना में जोरों पर है। उसके अनुसार यदि भाजपा और जनता दल (यू) अलग अलग चुनाव लड़ते हैं तो भाजपा को 47 सीटें और जनता दल (यू) को मात्र 37 सीटें ही हासिल होगी। बिहार की जातियों के राजनैतिक ध्रुवीकरण का जो वर्तमान माहौल है, उसमें जनता दल (यू) के उस सर्वेक्षण के नतीजों को गलत भी नहीं कहा जा सकता।
12 जून के बाद की राजनीति में नीतीश कुमार का पूरा जोर था कि भाजपा नेताओं से वह यह वायदा ले लें कि नरेन्द्र मोदी से बिहार में प्रचार नहीं करवाया जाएगा। नीतीश को लग रहा था कि वे इस तरह का दबाव डालकर कामयाग हो जाएंगे, लेकिन इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। बिहार भाजपा के प्रभारी अनंत कुमार ने अहमदाबाद में जाकर नरेन्द्र मोदी को बिहार मंे प्रचार करने का औपचारिक निमंत्रण दे दिया है। उस निमंत्रण के बाद नीतीश कुमार कुछ नहीं बोल नहीं रहे हैं। हां, भाजपा के साथ सीटों के तालमेल पर बात जारी है। जाहिर है नीतीश का भाजपा के साथ गठबंधन बना रहेगा। इसके साथ नीतीश कुमार अपने समर्थकों द्वारा मुयलमानों को यह संदेश देते रहेंगे कि वे नरेन्द्र मोदी के खिलाफ हैं।
पर सवाल उठता है कि क्या इससे मुसलमानों का समर्थन नीतीश कुमार की पार्टी को मिलने लगेगा? कुछ राजनैतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि इसका मुसलमानों के बीच उल्टा असर पड़ रहा है। नीतीश के विरोधी उनके नरेन्द्र मोदी विरोध को राजनैतिक नौटंकी बता रहे हैं और मुयलमानों का एक बड़ा वर्ग भी यही मानता है। नीतीश की मोदी राजनीति का एक और खतरा मुयलमानों को सता रहा है। वह खतरा राज्य में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का है। नीतीश यदि नरेन्द्र मोदी का नाम ले लेकर मुसलमानों का सांप्रदायिक समर्थन हासिल करने की कोशिश करते हैं, तो इससे हिंदुओं के बीच भी प्रतिक्रिया हो सकती है। और इसके कारण राज्य में सांप्रदायिक तनाव भी पैदा हो सकता है। यदि इस तरह का तनाव थोड़ा भी हिंसक हुआ, तो नीतीश कुमार को मुसलमानों के मतों से पूरी तरह हाथ धोना पड़ जाएगा, क्योकि उनका भाजपा का साथ होना तब मुसलमानों को बहुत ही नागवार गुजरेगा।
मोदी की राजनीति करके नीतीश कुमार भाजपा कार्यकर्त्ताओं को भी लगातार नाराज किए जा रहे हैं। उनकी सरकार में भाजपा औसत कार्यकर्त्ता वैसे भी खुश नहीं है, क्योंकि उसे लगता है कि घरातल पर उसकी पार्टी के मजबूत होने के बाद भी सत्ता पर लगभग पूरा कब्जा नीतीश कुमार का है। नरेन्द्र मोदी बिहार की राजनीति में पहले कोई बहुत बड़ा फैक्टर नहीं थे, लेकिन नीतीश विरोधी भाजपा कार्यकर्त्ताओं के बीच नरेन्द्र मोदी अब हीरो बन चुके हैं। बिहार भाजपा के किसी भी नेता से ज्यादा समर्थन अब नरेन्द्र मोदी अब कार्यकर्त्ताओं के बीच पा रहे हैं। यदि नीतीश कुमार ने अपना नरेन्द्र मोदी अभियान जारी रखा, तो उनके दल के उम्मीदवारों को चुनाव के समय भाजपा कार्यकर्त्ताओं के विरोध अथवा उदासीनता का सामना करना पड़ सकता है। यही कारण है कि जनता दल(यू) के वे नेताण् जिन्हें विधानसभा का चुनाव लड़ना है नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कुछ भी बोलने से परहेज कर रहे हैं। नीतीश ने नरेन्द्र मोदी के खिलाफ शिवानंद तिवारी, नरेन्द्र सिंह और देवेश चंद्र ठाकुर जैसे लोगांे को मोर्चे पर उतार रखा है। उनमें दो तो विधान परिषद के सदस्य है और एक राज्य सभा के। उनमें से किसी को विधानसभा का अगला चुनाव नहीं लड़ना है। मोनाजिर हुसेन लोकसभा के सांसद हैं। इसलिए उनको भी विधानसभा का अगला चुनाव नहीं लड़ना है।
यानी अपनी मोदी राजनीति से नीतीश कुमार ने बिहार में अपना नुकसान ही किया है। वे जो कुछ भी कर रहे हैं, उससे नरेन्द्र मोदी के साथ छपी उनकी तस्वीर की याद लोगों को बार बार ताजा हो जाती है। आखिर वे यह तो नहीं कह सकते कि नरेन्द्र मोदी के साथ उनकी जो तस्वीर अखबारों में छपी वह नकली थी। (संवाद)
जारी है नीतीश की मोदी राजनीति
विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा इसका असर
उपेन्द्र प्रसाद - 2010-07-09 07:44
बिहार में नीतीश कुमार की मोदी राजनीति जारी है। इसका ताजा नमूना पिछले 5 जुलाई को आयोजित बंद के दिन देखने को मिला। उस दिन राज्य की राजधानी पटना और भागलपुर में जनता दल (यू) के समर्थकों ने नरेन्द्र मोदी विरोधी नारे लगाए और उसकी प्रतिक्रिया में भाजपा के कार्यकर्त्ताओं ने नीतीश के खिलाफ नारेबाजी की। जनता दल (यू) और भाजपा के कार्यकर्त्ताओं के बीच झड़प भी हुई।