जेनेवा में पहले सफल वार्ता के बाद लंदन में चीनी उप प्रधानमंत्री हाय ली फंग और अमेरिकी ट्रेजरी सचिव स्कॉट बेसेंट, वाणिज्य सचिव हॉवर्ड लुटनिक और यूएसटीआर जैमीसन ग्रीर के बीच अनुवर्ती वार्ता के परिणामस्वरूप यह सौदा हुआ।
दोनों में से कोई भी देश व्यापार युद्ध नहीं झेल सकता क्योंकि अमेरिका बहुत से उत्पादों परिष्कृत प्रौद्योगिकियों के लिए चीन पर निर्भर है और टैरिफ युद्ध शुरू होने के बाद से इसका व्यापार एक तिहाई घट गया है।
लेकिन इस सौदे में सबसे बड़ी सफलता अमेरिका की दुर्लभ खनिज और चुम्बकों तक पहुँच है जबकि चीन के लिए सेमीकंडक्टर तक सशर्त पहुँच और चीनी छात्रों के लिए वीज़ा विनियमन है, जो यद्यपि जांच और नियंत्रण के अधीन होंगे ताकि उन्हें रक्षा और जासूसी सॉफ़्टवेयर में न बदला जाये। ट्रम्प ने इसे कैसे अंजाम दिया यह एक लाख टके का सवाल है। लेकिन तथ्य यह है कि उन्होंने ऐसा किया। इससे अमेरिकी आयातकों को बहुत लाभ होगा क्योंकि विभिन्न वस्तुओं की एक बड़ी मात्रा तैयार और मध्यवर्ती उत्पादों के रूप में चीन से प्राप्त की जाती है।
यहाँ बड़ी तस्वीर भारत को होने वाले नुकसान की है। सबसे पहले, इस बात को लेकर बहुत अनिश्चितता है कि क्या एप्पल आईफोन के लिए अपनी विनिर्माण सुविधाएँ भारत में स्थानांतरित करेगा, जिसकी घोषणा इसके सीईओ टिम कुक ने तब की थी जब चीन पर टैरिफ़ उच्च सीमा पर पहुँच गये थे। लेकिन अब तस्वीर नाटकीय रूप से बदल गयी है।
जैसे ही भारत ने दुनिया का कारखाना बनने के अपने लंबे समय से रखे गये सपने की दिशा में प्रगति की झलक दिखायी, वाशिंगटन और बीजिंग ने एक व्यापार "रीसेट" की घोषणा की, जो चीन के साथ प्रतिस्पर्धा में वैश्विक विनिर्माण केंद्र के रूप में उभरने की दिल्ली की महत्वाकांक्षाओं को पटरी से उतार सकता है।
अमेरिका-चीन समझौते से संभव है कि चीन से भारत की ओर जाने वाला विनिर्माण निवेश या तो "ठहर" सकता है या "वापस लौट सकता है", दिल्ली स्थित थिंक टैंक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इंस्टीट्यूट (जीटीआरआई) के अजय श्रीवास्तव का मानना है।
"भारत की कम लागत वाली असेंबली लाइनें बच सकती हैं, लेकिन मूल्य-वर्धित विकास खतरे में है।" भावना में यह बदलाव पिछले महीने दिल्ली में उस उत्साह से बिल्कुल अलग है, जब एप्पल ने संकेत दिया था कि वह आईफोन के अपने अधिकांश उत्पादन को चीन से भारत में स्थानांतरित कर रहा है। ऐसा अभी भी हो सकता है, भले ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने खुलासा किया हो कि उन्होंने एप्पल के सीईओ टिम कुक से कहा था कि वे भारत में निर्माण न करें क्योंकि यह "दुनिया में सबसे अधिक टैरिफ वाले देशों में से एक है"।
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि बीजिंग और वाशिंगटन के बीच तथाकथित व्यापार "रीसेट" के बावजूद, चीन और अमेरिका के बीच एक बड़ा रणनीतिक अलगाव लंबे समय में भारत को लाभान्वित करना जारी रखेगा।
नरेंद्र मोदी की सरकार वर्षों की संरक्षणवादी नीतियों के बाद विदेशी कंपनियों के लिए अपने दरवाजे खोलने के लिए अधिक इच्छुक है, जो अनुकूल परिणाम दे सकती है। भारत और अमेरिका एक व्यापार समझौते पर भी बातचीत कर रहे हैं, जो एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को तथाकथित "चीन पलायन" से लाभ उठाने के लिए एक अच्छी स्थिति में ला सकता है - क्योंकि वैश्विक फर्म आपूर्ति श्रृंखलाओं में विविधता लाने के लिए परिचालन चीन से अन्यत्र स्थानांतरित कर रही हैं।
भारत ने हाल ही में यू.के. के साथ एक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं, जिसमें व्हिस्की और ऑटोमोबाइल जैसे संरक्षित क्षेत्रों में शुल्क में भारी कटौती की गयी है। यह उन रियायतों की एक झलक दिखाता है जो भारत-अमेरिका व्यापार वार्ता में ट्रम्प को दे सकता है। अमेरिका से आयातित वस्तुओं पर एक समान 10% टैरिफ की बात चल रही है।
भारत में मैनहट्टन से संचालित होने वाले दुनिया के शीर्ष ब्रांडों के कपड़ों से लेकर परफ्यूम तक के फैशन उत्पादों की बाढ़ के लिए द्वार खुल सकते हैं। टॉमी हिलफिगर, डायर, कार्टियर, चैनल, कुछ ऐसे लक्जरी ब्रांड हैं जो किफायती कीमतों पर भारत में नाटकीय शुरुआत कर सकते हैं।
जो भी हो, भारत के उदार आशावाद को बहुत सावधानी से नियंत्रित करने की आवश्यकता है। क्योंकि, इस तथ्य के अलावा कि चीन अब फिर से दौड़ में है, कंपनियां "अन्य एशियाई प्रतिस्पर्धियों को पूरी तरह से खारिज नहीं कर रही हैं। वियतनाम जैसे देश अभी भी उनके रडार पर हैं", नोमुरा के अर्थशास्त्री सोनल वर्मा और ऑरोदीप नंदी ने इस महीने की शुरुआत में एक नोट में कहा था।
"अगर भारत को मौजूदा अमेरिकी-चीन व्यापार स्थिति का लाभ उठाना है, तो उसे इस अवसर का लाभ उठाने की जरूरत है, और उसे किसी भी टैरिफ आर्बिट्रेज को गंभीर ईज-ऑफ-डूइंग-बिजनेस सुधारों के साथ पूरक करने की जरूरत है।" भारत के कठिन कारोबारी माहौल और व्यापार करने में कठिनाइयों ने लंबे समय से विदेशी निवेशकों को निराश किया है और भारत के विनिर्माण विकास को रोक दिया है, जिसका सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में हिस्सा दो दशकों से लगभग 15% पर अटका हुआ है।
मोदी सरकार के उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना जैसे प्रयासों ने इस आंकड़े को बढ़ाने में केवल सीमित सफलता ही दी है। सरकार के थिंक टैंक, नीति आयोग ने चीन से निवेश आकर्षित करने में भारत की "सीमित सफलता" को स्वीकार किया है। इसने नोट किया कि सस्ते श्रम, सरल कर कानून, कम टैरिफ और सक्रिय मुक्त व्यापार समझौतों जैसे कारकों ने वियतनाम, थाईलैंड, कंबोडिया और मलेशिया जैसे देशों को निर्यात बढ़ाने में मदद की - जबकि भारत पीछे रह गया।
व्यापार विशेषज्ञों के अनुसार, एक और बड़ी चिंता यह है कि भारत आईफोन जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल और घटकों के लिए चीन पर निर्भर है, जिससे आपूर्ति श्रृंखला में होने वाले बदलावों का पूरा लाभ उठाने की दिल्ली की क्षमता सीमित हो जाती है।
अंत में, चिंता यह है कि चीनी निर्यातक भारत का इस्तेमाल करके उत्पादों को अमेरिका में भेजने की कोशिश कर सकते हैं। भारत इस विचार के खिलाफ़ नहीं लगता, भले ही इसमें कई खामियाँ हों। देश के शीर्ष आर्थिक सलाहकार ने पिछले साल कहा था कि देश को निर्यातोन्मुखी कारखाने लगाने और अपने विनिर्माण उद्योग को बढ़ावा देने के लिए ज़्यादा चीनी व्यवसायों को आकर्षित करना चाहिए - यह एक मौन स्वीकृति है कि इसकी अपनी औद्योगिक नीति ने ऐसा नहीं किया है।
लेकिन विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि इससे भारत की स्थानीय कुशलता और ज्ञान बढ़ाने और अपना औद्योगिक आधार विकसित करने की क्षमता और कम हो सकती है। यह साफ है कि एप्पल जैसी कंपनियों को भारत लाने की घोषणा कर सुर्खियाँ बटोरने के अलावा, भारत ने कोई खास काम नहीं किया हो और अभी भी अपनी फ़ैक्टरी महत्वाकांक्षाओं को साकार करने से बहुत दूर है। (संवाद)
अमेरिका-चीन व्यापार समझौते से भारत के विनिर्माण लक्ष्य को हानि संभव
शी जिनपिंग ने ट्रम्प से और रियायतें हासिल कीं, अमेरिका ने इसे अपनी जीत बताया
टी एन अशोक - 2025-06-14 10:54
न्यूयॉर्क: अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने चीन के साथ व्यापार और टैरिफ पर अपनी सौदे की कला की घोषणा कर शहर में हलचल मचा दी, जबकि चीन ने इसे बहुत प्रचारित नहीं करने का विकल्प चुना क्योंकि वार्ता में अमेरिका में आयातित सभी चीनी वस्तुओं के लिए 55% का एक समान टैरिफ तय हुआ, जो व्यापार युद्ध में एशियाई दिग्गज पर लगाये गये 135% टैरिफ से बहुत नीचे है, और उस समय चीन ने अमेरिका पर पारस्परिक 125% टैरिफ लगाया गया था।