हालांकि, हमें ज्ञान के उन अमर शब्दों की याद आती है: 'जिन लोगों में इतिहास के सबक भूलने की प्रवृत्ति होती है, वे उन्हें दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं।' ये शब्द हमें भारतीय लोकतंत्र के इतिहास के उस काले अध्याय को फिर से देखने के लिए मजबूर करते हैं।
1960 के दशक के उत्तरार्ध में कांग्रेस पार्टी के सत्ता पर एकाधिकार को झटका लगा था, जिसमें विपक्षी दलों ने कई राज्यों में जीत हासिल की थी। जवाब में श्रीमती इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ, बैंकों का राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स के उन्मूलन जैसे प्रगतिशील नारे लगाकर खुद को फिर से स्थापित किया। पारंपरिक राजनीतिक व्यवहार से हटकर उन्होंने राज्य स्तर के मजबूत नेताओं को दरकिनार करते हुए सत्ता को अपने हाथों में केंद्रित किया और सीधे जमीनी स्तर पर जनता से अपील की।
श्रीमती गांधी के ऐसे कदमों का उन्हें कुछ लाभ हुआ। हालांकि, बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष के समर्थन में भारत के हस्तक्षेप ने उनके राजनीतिक आधिपत्य को वास्तव में मजबूत किया। अंततः एक स्वतंत्र बांग्लादेश की स्थापना और पाकिस्तान की निर्णायक हार ने उनके कद को काफी हद तक बढ़ा दिया। सोवियत संघ की उपस्थिति ने पाकिस्तान के सैन्य शासन को बचाने के उद्देश्य से संभावित अमेरिकी हस्तक्षेप को रोकने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
इसने श्रीमती गांधी के कद को फिर से बढ़ा दिया जिसने 1971 के आम चुनावों में उनकी जीत सुनिश्चित की। फिर भी, यह समग्र तस्वीर सीपीआई (एम) को नहीं रोक सकी, जो पश्चिम बंगाल विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। लेकिन, इसे आगे बढ़ने नहीं दिया गया। 1972 के विधानसभा चुनावों में पूरी तरह से धांधली की गयी थी, जिसने लगभग आधे दशक तक अर्ध-फासीवादी दमन का मार्ग प्रशस्त किया। सत्तावाद का यह दौर 25 जून, 1975 की मध्यरात्रि को आपातकाल की घोषणा के साथ सहज रूप से जुड़ गया।
आपातकाल के दौरान, इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया गया था और प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गयी थी। उनके शासन में 10,000 से अधिक राजनीतिक विरोधियों, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया था। इस बीच, देश थोड़े ही समय पहले हुए पाकिस्तान के साथ युद्ध, सूखे और 1973 के वैश्विक तेल संकट से उपजी आर्थिक चुनौतियों की एक श्रृंखला से जूझ रहा था। बढ़ती बेरोजगारी और मुद्रास्फीति ने जनता के असंतोष और राजनीतिक विरोध को और बढ़ा दिया। इन बढ़ते दबावों के साथ-साथ श्रीमती गांधी की व्यक्तिगत असुरक्षा और कानूनी झटकों की भावना - विशेष रूप से उनकी लोकसभा सदस्यता खोने का खतरा - ने आपातकाल लगाने के निर्णय में योगदान दिया।
संक्षेप में, 1975 का आपातकाल राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक कारकों के संयोजन के कारण घोषित किया गया था। सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 352 का इस्तेमाल किया, जो युद्ध, बाहरी आक्रमण या आंतरिक अशांति की स्थिति में आपातकाल की घोषणा की अनुमति देता है। आधिकारिक रूप से इसके औचित्य में राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था के लिए खतरों का हवाला दिया गया, जिसके कारण मौलिक अधिकारों का निलंबन और कार्यपालिका में सत्ता का संकेन्द्रण हुआ।
आपातकाल की घोषणा के अनुमोदन के लिए वैधानिक प्रस्ताव पर बहस के दौरान, लोकसभा में सीपीआई (एम) समूह के नेता ए के गोपालन ने आपातकाल की ओर ले जाने वाली राजनीतिक गतिशीलता को उजागर करते हुए 21 जुलाई, 1975 को कहा: "पिछले तीन वर्षों में अधिनायकवादी और एक-पक्षीय तानाशाही की प्रवृत्ति के बढ़ने के बारे में हमारी पार्टी द्वारा दी गयी चेतावनी नये आपातकाल की अचानक घोषणा के साथ सच साबित हुई है।" उन्होंने आगे कहा कि सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा खुद को और अपने नेता को गहराते व्यक्तिगत और राजनीतिक संकट से निकालने का यह अचानक कदम ताकत का नहीं, बल्कि कमजोरी का संकेत है। इसे विपक्षी आवाजों और जनांदोलनों को कुचलने के लिए बनाया गया था। उन्होंने इस झूठे आख्यान को भी उजागर किया कि यह आपातकाल चरम दक्षिणपंथी और वामपंथी दुस्साहसवादियों के खिलाफ था।
इसके कारण जो अपरिहार्य था हुआ और इंदिरा गांधी के साथ कांग्रेस राजनीतिक हार से बच नहीं सकी। अठारह महीने का आपातकाल समकालीन भारतीय इतिहास में एक गंभीर विचलन और लोकतंत्र के घिनौने विघटन के रूप में दर्ज किया गया है। 1977 के लोकसभा चुनावों के बाद विपक्षी राजनीतिक ताकतों के एक व्यापक गठबंधन ने लोकतंत्र की बहाली सुनिश्चित की।
नरेंद्र मोदी 25 जून, 1975 को लगाये गये आपातकाल के दौर को याद करते हुए इसे भारत के "संविधान पर एक काला धब्बा" बताते रहे हैं। उन्होंने घोषणा की है, "आपातकाल के बाद से ये 50 साल हमें अपने संविधान और लोकतंत्र की रक्षा गर्व के साथ करने की याद दिलाते हैं। देशवासियों को यह संकल्प लेना चाहिए कि ऐसा अपमान फिर कभी नहीं होने दिया जायेगा। हम एक जीवंत लोकतंत्र सुनिश्चित करने और भारतीय संविधान द्वारा उल्लिखित आम आदमी के सपनों को पूरा करने के लिए खुद को प्रतिबद्ध करते हैं।" हालाँकि, यह दिखावा तेजी से एक बड़े धोखे में बदल रहा है - आरएसएस-भाजपा द्वारा भारतीय लोकतंत्र पर अपने सबसे घृणित हमले को छिपाने का एक प्रयास हो रहा है, जैसा कि पिछले 11 वर्षों के नरेन्द्र मोदी का कार्यकाल में सामने आया है।
पचास साल बाद पीछे मुड़कर देखें तो आपातकाल को भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर पहला बड़ा हमला माना जा सकता है - जिसने नागरिक स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक अधिकारों को गंभीर रूप से सीमित कर दिया। लेकिन, जैसा कि कई लोग करते हैं, 1975 के आपातकाल और वर्तमान स्थिति के बीच सीधी तुलना करना एक गलती है। मोदी के शासन में पिछले दशक को अक्सर "अघोषित आपातकाल" के रूप में संदर्भित किया जाता है, लेकिन ऐसी तुलना कई मामलों में गलत है।
साम्राज्यवाद के पक्ष में राजनीतिक ताकतों के बदलते सहसंबंध के बीच, अति-दक्षिणपंथी वैश्विक पुनरुत्थान की पृष्ठभूमि में वर्तमान परिदृश्य उभरा है। इस चरण ने वित्तीय पूंजी संचालित वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं के युग की शुरुआत की है, जो तीव्र असमानता, बड़े पैमाने पर बेरोजगारी और भारी कॉर्पोरेट प्रभुत्व से चिह्नित है। इसके साथ ही पहचान-आधारित ध्रुवीकरण और एक निरंतर घृणा अभियान के अभूतपूर्व स्तर हैं, जो आर्थिक और सामाजिक दोनों क्षेत्रों में साथी नागरिकों को 'अन्य' बना रहे हैं।
इस प्रकार, लोकतंत्र और संवैधानिक सिद्धांतों पर वर्तमान हमला कहीं अधिक घातक है। इसने संस्थागत अधिनायकवाद को जन्म दिया है - या जिसे कुछ पर्यवेक्षक "चुनावी निरंकुशता" कहते हैं।
भारतीय संदर्भ में, इस अधिनायकवादी बदलाव का नेतृत्व आरएसएस ने किया है, जिसने साम्प्रदायिक हिंदुत्व की जहरीली विचारधारा को बढ़ावा दिया है, जो भारत के मूल विचार को मौलिक रूप से बदलने का प्रयास करता है। भारत का यह विचार - उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष से पैदा हुआ – जो एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, सामाजिक रूप से न्यायपूर्ण और संघीय गणराज्य में निहित था। इसलिए वर्तमान हमला अधिक व्यापक और दमघोंटू है, जिसका उद्देश्य भारतीय नागरिकता के मूलभूत सिद्धांतों को नष्ट करना है।
पीछे देखने पर, 1975 का आपातकाल, आज हम जिस पूर्ण-विकसित अधिनायकवाद का अनुभव कर रहे हैं, उसकी तुलना में लगभग अनुभवहीन अभ्यास लगता है। वर्तमान शासन को हटाना कठिन लग सकता है, परन्तु 1970 के दशक में आपातकाल के खिलाफ लड़ने के अनुभव से आत्मविश्वास बढ़ना चाहिए। आरएसएस की घातक साम्प्रदायिक विचारधारा का विरोध करने और लोकतंत्र को पुनः प्राप्त करने की इच्छाशक्ति के साथ एकजुट लोग आज भी चुनौती का सामना कर सकते हैं और उससे पार पा सकते हैं। (संवाद)
आपातकाल के पचास साल बाद मोदी सरकार की तानाशाही कम दमघोंटू नहीं
आरएसएस की घातक विचारधारा के खिलाफ एकजुट संघर्ष सबसे महत्वपूर्ण काम
पी. सुधीर - 2025-06-20 11:19
25 जून, 1975 की आधी रात को आंतरिक आपातकाल की घोषणा के साथ शुरू हुई घटनाओं के अपमानजनक क्रम को याद करना थोड़ा असामान्य लग सकता है।