हाउडी मोदी रैलियों और उत्साही सार्वजनिक इशारों के माध्यम से सावधानीपूर्वक कोरियोग्राफ की गयी रणनीतिक दोस्ती का मिथक आखिरकार तब खत्म हो गया जब ट्रंप ने पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर की मेजबानी की और उसके बाद एक चौंकाने वाला बयान दिया। ट्रंप ने एक ऐसे लहजे में घोषणा की जिसमें भारत और पाकिस्तान के पास "बहुत ही चतुर नेता" हैं और उन्होंने दोनों देशों के बीच युद्ध विराम बनाये रखने का श्रेय उन्हें दिया। सतही तौर पर, यह एक कूटनीतिक शिष्टता की तरह लग रहा था। लेकिन पंक्तियों और निहितार्थों के बीच पढ़ने पर यह नई दिल्ली के लिए एक झटका है, खासकर मोदी के लिए, जिन्होंने एक विशेष ट्रंप-मोदी मित्रता बंधन की छवि बनाने में महत्वपूर्ण राजनीतिक पूंजी का निवेश किया था।

इस घोषणा ने उत्तरों से अधिक प्रश्न छोड़े। जब ट्रंप ने पाकिस्तान के दूसरे "चतुर" नेता का उल्लेख किया तो उनका आशय वास्तव में किससे था? क्या यह नाममात्र के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ थे, जिनका प्रभाव व्यापक रूप से सैन्य प्रतिष्ठान के बाद दूसरे दर्जे का माना जाता है? या यह जनरल असीम मुनीर थे - वही व्यक्ति जिसकी ट्रंप ने अभी-अभी मेजबानी की थी? दोनों ही व्याख्याएं मोदी के लिए घातक हैं। अगर ट्रंप मुनीर की तुलना मोदी से करते हैं, तो वे एक प्रतिद्वंद्वी देश के सैन्य अधिकारी को भारत के निर्वाचित नेता के समान पद पर बिठा देते हैं। अगर यह शहबाज शरीफ़ हैं, तो वे एक ऐसे व्यक्ति का समर्थन कर रहे हैं जिसे पाकिस्तान की सेना ने राजनीतिक ढांचे में खड़ा किया है, जिसे मोदी अक्सर अस्थिर और समझौतावादी कहकर उनका उपहास करते रहे हैं। किसी भी मामले में, मोदी न केवल पाकिस्तान के नेतृत्व की तुलना में बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर उनके कथित कद के मामले में भी कमतर नज़र आते हैं।

यह सिर्फ़ एक कूटनीतिक तिरस्कार नहीं है - यह एक राजनीतिक तमाशा है। सालों से, मोदी के समर्थक ट्रंप के साथ उनके संबंधों को भारत के बढ़ते वैश्विक प्रभाव के सुबूत के रूप में पेश करते रहे हैं। टेक्सास और अहमदाबाद में जयकारे लगाती भीड़ के सामने हाथ मिलाते और हाथ हिलाते हुए दोनों नेताओं की छवि मोदी की वैश्विक राजनेता के रूप में स्थिति को पुख्ता करने वाली थी, न कि सिर्फ़ एक क्षेत्रीय शक्ति दलाल के रूप में। “अबकी बार ट्रंप सरकार” एक नारे से कहीं ज़्यादा था; यह भारत के भाग्य को उस समय दुनिया के सबसे शक्तिशाली राजनीतिक ब्रांड से जोड़ने का एक प्रयास था। इसने घरेलू स्तर पर अच्छा प्रदर्शन किया, जिससे यह कहानी मजबूत हुई कि मोदी सत्ता से बराबरी की बात कर सकते हैं। लेकिन पिछले हफ़्ते की घटनाओं ने उस दिखावे को खत्म कर दिया है। ट्रंप ने अपने खास अंदाज में दुनिया को याद दिलाया है कि वे दोस्ती नहीं करते। वे लेन-देन करते हैं।

ट्रंप का स्नेह हमेशा के लिए नहीं, बल्कि किराये पर उपलब्ध है। जिस व्यक्ति ने कभी मोदी को “महान व्यक्ति” और “भारत का मित्र” कहा था, उसी व्यक्ति ने अपने राष्ट्रपति काल के दौरान, भारत से किसी अनुरोध के बिना कश्मीर विवाद में मध्यस्थता की पेशकश भी की थी। उन्होंने बार-बार यह स्पष्ट किया कि किसी भी विदेशी नेता या सिद्धांत के प्रति वफादारी व्यक्तिगत लाभ और रणनीतिक लचीलेपन से दूसरे स्थान पर आती है। इसलिए जब ट्रंप अब पाकिस्तान के नेतृत्व की प्रशंसा करते हैं - नागरिक या सैन्य - तो ऐसा इसलिए नहीं है कि उनका मन बदल गया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे इसमें अपने लिए कुछ देखते हैं। चाहे वह दक्षिण एशिया में अमेरिका की प्रासंगिकता को फिर से स्थापित करने के बारे में हो या बस कुछ घरेलू निर्वाचन क्षेत्रों को साधने के बारे में। ट्रंप दिखा रहे हैं कि अगर इससे डोनाल्ड ट्रंप को मदद मिलती है तो वे तुरंत बदलाव करने के लिए तैयार हैं।

मोदी के लिए, जिन्होंने रणनीतिक दूरदर्शिता और अंतरराष्ट्रीय गंभीरता की छवि बनाने के लिए सावधानीपूर्वक काम किया है, ट्रंप की टिप्पणी सिर्फ एक अजीब क्षण से कहीं अधिक है। यह एक सार्वजनिक अनुस्मारक है कि चाहे कितने भी गले मिलें या स्टेडियम भरे हों, ट्रंप जैसे नेताओं के अधीन कूटनीति एक हाई-वायर एक्ट है जिसमें कोई सुरक्षा जाल नहीं है। फिर भारत अकेला ऐसा देश नहीं है जिसने यह सबक कठिन तरीके से सीखा है। जर्मनी और फ्रांस जैसे पारंपरिक सहयोगियों ने, नाटो की तो बात ही छोड़िए, ट्रंप को बिना किसी हिचकिचाहट के अपने रुख बदलते, वायदे तोड़ते और धमकियाँ देते देखा है। उनकी विदेश नीति शैली उतनी यथार्थवादी नहीं है जितनी अवसरवादी है, जो अहंकार की सनक और व्यक्तिगत लाभ की अनिवार्यताओं से संचालित होती है। इस आलोक में, मोदी का ट्रंप के साथ प्रणय निवेदन रणनीतिक गठबंधन से कम और राजनीतिक नाटक से अधिक दिखता है - जहाँ पटकथा हमेशा एक अभिनेता द्वारा अकेले लिखी जाती है।

ट्रंप की टिप्पणी के बाद भारत सरकार ने स्पष्ट चुप्पी बनाये रखी है। निहितार्थों को कम करने के लिए कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया, कोई स्पष्टीकरण, कोई परदे के पीछे की ब्रीफिंग नहीं हुई है। यह चुप्पी बहुत कुछ कहती है। या तो नई दिल्ली को पता नहीं है कि कैसे जवाब देना है, या फिर वह इस उम्मीद में टिप्पणी को अनदेखा करना चुन रही है कि यह अगले समाचार चक्र के वजन के नीचे दब जायेगी। दोनों ही विकल्प अप्रिय हैं। एक ऐसी सरकार के लिए जिसने विश्व मंच पर अपनी मुखरता को प्रदर्शित करने का शायद ही कोई मौका छोड़ा हो। प्रतिक्रिया की कमी या तो इस बात का संकेत है कि मोदी कि या तो रणनीतिक गलतफहमियाँ हैं या उनके असहज अहसास हैं। मोदी की व्यक्तिगत कूटनीति का मिथक वास्तविकता के बोझ तले ढह रहा है।

इसका मतलब यह नहीं है कि भारत और अमेरिका के रिश्ते खतरे में हैं। भारत-अमेरिका की रणनीतिक साझेदारी किसी भी दो व्यक्तियों से बड़ी है, और वाशिंगटन में भारत के महत्व के बारे में द्विदलीय आम सहमति में इस बात की संभावना नहीं है कि ओवल ऑफिस में कोई भी बैठे, इसमें कोई बड़ा बदलाव आयेगा। लेकिन कूटनीति का निजीकरण - जो मोदी की विदेश नीति के दृष्टिकोण का केंद्र है - अब तेजी से जोखिम भरा लग रहा है। यह भारत को विदेशी नेताओं, खासकर ट्रंप जैसे नेताओं के अस्थिर व्यक्तित्व के प्रति संवेदनशील बनाता है, जो संस्थान से ज्यादा सहज ज्ञान पर काम करते हैं।

इसके अलावा, ट्रंप द्वारा पाकिस्तान की सेना का समर्थन - अंतर्निहित या स्पष्ट - भारतीय संदर्भ में विशेष रूप से कष्टप्रद है। भारतीय प्रतिष्ठान लंबे समय से यह मानता रहा है कि पाकिस्तानी सेना क्षेत्र में अस्थिरता का मूल कारण है, सीमा पार आतंकवाद के लिए जिम्मेदार इकाई है, और इस्लामाबाद की कमजोर नागरिक सरकारों की डोर खींचने वाला कठपुतली मास्टर है। उसी सेना प्रमुख की मेजबानी अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति द्वारा की जाती हुई देखना और उसकी एक चतुर नेता के रूप में प्रशंसा सुनना, एक लंबे समय से चले आ रहे घाव पर नमक छिड़कने जैसा है। यह वैश्विक समुदाय को नई दिल्ली के संदेश को भी जटिल बनाता है, जहाँ उसने अक्सर खुद को एक अनिश्चित पड़ोसी के विपरीत जिम्मेदार अभिनेता के रूप में चित्रित करने की कोशिश की है। शशि थरूर मोदी मिशन के साथ आधा दर्जन और यात्राएँ कर सकते हैं, लेकिन इससे ज़रा भी बदलाव नहीं होने वाला है। (संवाद)