इस अवसर पर भारत सरकार के केंद्रीय मंत्रिमंडल ने उस अवधि की निंदा करते हुए तथा आपातकाल की घटना के विरोध में बलिदान देने वालों की प्रशंसा करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया। इसमें "अनगिनत व्यक्तियों के बलिदान को याद करने तथा उनका सम्मान करने का संकल्प लिया गया, जिन्होंने आपातकाल तथा भारतीय संविधान की मूल भावना को नष्ट करने के प्रयास का बहादुरी से विरोध किया, एक ऐसा विध्वंस जिसकी शुरुआत 1974 में नवनिर्माण आंदोलन तथा सम्पूर्ण क्रांति अभियान को कुचलने के एक कठोर प्रयास से हुई थी।"

भाजपा उस अवधि के 21 महीनों के दौरान अपनी “महान भूमिका” पर बहुत जोर दे रही है। यह आरएसएस के उन दावों से मेल खाता है, जिसमें कहा गया है कि आपातकाल का विरोध करने वाली प्रमुख ताकत वे ही थे। परन्तु इसके अधिकांश अन्य दावों की तरह यह दावा भी सत्य के किसी भी तत्व से रहित है।

कुछ गंभीर पत्रकारों के प्रयासों तथा कुछ लोगों द्वारा पुस्तकों की खोज से एक और कहानी सामने आती है। पत्रकारिता के दिग्गजों में से एक प्रभाष जोशी ने लिखा, “तत्कालीन आरएसएस प्रमुख बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को एक पत्र लिखकर संजय गांधी के कुख्यात 20 सूत्री कार्यक्रम को लागू करने में मदद करने का वचन दिया था। यह आरएसएस का असली चरित्र है…आप एक कार्यशैली, एक पैटर्न को समझ सकते हैं। आपातकाल के दौरान भी, जेल से बाहर आए आरएसएस और जनसंघ के कई लोगों ने माफ़ीनामा (माफ़ीनामा) दिया। वे सबसे पहले माफ़ी मांगने वाले थे…अटल बिहारी वाजपेयी [अधिकांश समय अस्पताल में] थे… लेकिन आरएसएस ने आपातकाल का मुकाबला नहीं किया। तो भाजपा उस स्मृति को अपने नाम करने की कोशिश क्यों कर रही है?” वे निष्कर्ष निकालते हैं कि “वे कोई लड़ाकू ताकत नहीं हैं, और वे कभी भी लड़ने के लिए उत्सुक नहीं होते हैं। वे मूल रूप से समझौता करने वाले लोग हैं। वे कभी भी वास्तव में सरकार के खिलाफ नहीं होते हैं”।

उत्तर प्रदेश और सिक्किम के राज्यपाल रह चुके टीवी राजेश्वर ने ‘इंडिया: द क्रूशियल इयर्स’ (हार्पर कॉलिन्स द्वारा प्रकाशित) नामक पुस्तक लिखी है, जिसमें उन्होंने इस तथ्य की पुष्टि की है कि “न केवल वे (आरएसएस) इस (आपातकाल) के समर्थक थे, बल्कि वे श्रीमती गांधी के अलावा संजय गांधी से भी संपर्क स्थापित करना चाहते थे।”

जबकि कई समाजवादी और कम्युनिस्ट जेल की सजा काट रहे थे, आरएसएस के कार्यकर्ता जेल से रिहा होने के लिए बेचैन थे। भाजपा के सुब्रमण्यम स्वामी ने द हिंदू में एक लेख में आपातकाल की कहानी सुनाई जो 13 जून 2000 को प्रकाशित हुई थी। उन्होंने दावा किया कि आरएसएस प्रमुख बालासाहेब देवरस और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को माफी के पत्र लिखकर आपातकाल विरोधी आंदोलन को धोखा दिया। “महाराष्ट्र विधानसभा की कार्यवाही में यह रिकॉर्ड पर है कि तत्कालीन आरएसएस प्रमुख बालासाहेब देवरस ने पुणे की यरवदा जेल के अंदर से इंदिरा गांधी को कई माफी पत्र लिखे, जिसमें जेपी के नेतृत्व वाले आंदोलन से आरएसएस को अलग कर दिया और कुख्यात 20-सूत्री कार्यक्रम के लिए काम करने की पेशकश की। उन्होंने उनके किसी भी पत्र का उत्तर नहीं दिया।” (भारत को पुनर्जीवित करने के अपने प्रयास में आपातकाल लागू करने को सही ठहराने के लिए कांग्रेस शासन द्वारा 20 सूत्री कार्यक्रम और संजय गांधी के पांच सूत्री कार्यक्रम का हवाला दिया जाता है)

मेरे एक मित्र, राष्ट्र सेवा दल के पूर्व अध्यक्ष डॉ. सुरेश खैरनार भी इस दौरान जेल में थे। जब उन्होंने आरएसएस कार्यकर्ताओं को माफ़ीनामे पर हस्ताक्षर करते देखा, तो वे इस विश्वासघात के कृत्य पर क्रोधित हो गये और उनसे भिड़ गये। अपनी शैली के अनुसार उन्होंने कहा कि वे जो कर रहे हैं वह तात्याराव (वी डी सावरकर) द्वारा अपनाये गये मार्ग के अनुसार है। हिंदू राष्ट्रवादियों की रणनीतियों के बारे में यह सच है!

यह भी याद रखें कि जब ए.बी. वाजपेयी को आगरा के पास बटेश्वर में जंगल सत्याग्रह में भाग लेने वाले जुलूस की निगरानी करते समय गिरफ्तार किया गया था, जिसमें सरकारी भवन से यूनियन जैक को हटा दिया गया था और तिरंगा फहराया गया था। वाजपेयी ने तुरंत एक पत्र लिखा और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से खुद को अलग कर लिया। उन्हें तुरंत रिहाई मिल गयी। इस विचारधारा के अनुयायियों के चरित्रों को प्रभाष जोशी ने अच्छी तरह से चित्रित किया है।

जहां एक ओर उनकी मौखिक भाषा आक्रामक और जोरदार होती है वहीं व्यवहार में वे बिल्कुल अलग होते हैं। जब 1998 में वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार थी, तब मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने अंतर महसूस किया था। अब तक मानवाधिकारों के लिए प्रतिबद्ध कई कार्यकर्ता कांग्रेस और भाजपा को एक ही सिक्के के दो पहलू मानते थे। उनके शासन के इस दौर ने हममें से कई लोगों की आंखें खोल दीं कि भाजपा एक अलग पार्टी है। यह इस तथ्य के बावजूद था कि उस समय भाजपा के पास अपने दम पर पूर्ण बहुमत नहीं था।

अब नरेन्द्र मोदी करीब ग्यारह साल से प्रधान मंत्री के रुप में सत्ता में हैं। 2014 और 2019 में उन्हें पूर्ण बहुमत मिला। इस पूर्ण बहुमत के साथ उनकी साख का असली रंग जोर से सामने आ गया है। जहां एक ओर आपातकाल ने उसे लागू करने वाली नेता इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया, जबकि आपातकाल संविधान के प्रवधानों के तहत था, अब हम नरेन्द्र मोदी का एक ‘अघोषित आपातकाल’ देख रहे हैं। 2015 में इंडियन एक्सप्रेस के शेखर गुप्ता को दिये गये एक साक्षात्कार में लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था, "आज (उस समय) आपातकाल की घोषणा हुए 40 साल हो चुके हैं। लेकिन पिछले एक साल से भारत में अघोषित आपातकाल चल रहा है।” ('इंडियन एक्सप्रेस' दिनांक 26-27 जून 2015)

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पूरी तरह से अंकुश लगा दिया गया है। सच बोलने की हिम्मत करने वाले कई लोगों को जेल में डाल दिया गया है। धर्म की स्वतंत्रता का हनन हो रहा है। न्याय की जगह बुलडोजर न्याय ले रहा है। लव जिहाद, गोमांस के बहाने अल्पसंख्यकों को डराना-धमकाना और प्रताड़ित करना घृणित है। भीमा कोरेगांव मामले में कई प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया है। उमर खालिद, गुलफिशा फातिमा जैसे मुस्लिम कार्यकर्ता जेल में बंद हैं, जबकि उनके मामलों की सुनवाई नहीं हो रही है। कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया सरकार की नीतियों की पैरवी करने और असहमति की आवाजों को दबाने के लिए हमेशा तैयार रहता है।

आज जहां एक ओर प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केंद्रीय मंत्रिमंडल और आरएसएस 1975 के आपातकाल का विरोध करने का सारा श्रेय ले रहे हैं, वर्तमान शासन दूसरे तरीकों से उसी आपातकाल को थोप रहा है। वैश्विक स्तर पर भारत में लोकतंत्र का सूचकांक लगातार गिरता जा रहा है। भारत में वर्तमान में जो अघोषित आपातकाल है, उस पर आत्मचिंतन करने और उससे उबरने की आवश्यकता है। (संवाद)