इसमें सबसे बड़ी परिघटना के रूप में सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हुआ रणनीतिक पारस्परिक रक्षा समझौता दिखाई देता है। जिस तरह से ये दोनों देश—जो अमेरिका के साथ ही माने जाते हैं, वे साथ आए, उससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खलबली मची है। सवाल सीधा सा है कि क्या पश्चिम एशिया के देशों में खासतौर से जो अमेरिका की गुड बुक्स में रहे हैं, उनका भरोसा अमेरिका से हट रहा है। पश्चिम एशिया के देश क्या अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने के लिए मजबूर हो रहे है। इसे ट्रंप द्वारा अफगानिस्तान के तालिबानी शासन पर बगराम एयरबेस को वापस मांगने के लिए धमकी देने वाले घटनाक्रम से भी जोड़कर देखा जा सकता है। जिस तरह से तालिबानी शासन ट्रंप की इस मांग का विरोध कर रहा है—वह उसके वर्चस्व को चुनौती देने जैसा प्रतीत होता है। और तो और ट्रंप ने भारत पर जो एच 1बी वीजा की फीस बढ़ाकर 88 लाख रुपये सालाना करके एक और वार किया, उसमें चीन का के-1 वीजा का ऑफर भी इसी सिलसिले में दिखाई देता है।

सवाल है कि पश्चिमी एशिया में ऐसा क्या घट रहा है जिसकी वजह से सऊदी अरब और पाकिस्तान ने इतना अहम समझौता किया। दरअसल, इस समझौते के पीछे सबसे बड़ा कारक है कतर पर किया गया इजराइल का हमला। फिलिस्तीन को लेकर इजराइल लगातार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अकेला पड़ता दिख रहा है, उसमें जिस तरह से इजराइल ने अच्छी-खासी दूरी को लांघते हुए कतर की राजधानी दोहा पर हमला किया—उसने पूरे इलाके में गहरा विक्षोभ व असंतोष पैदा किया। कतर अमेरिका का पुराना सहयोगी देश है और यहां वर्ष 2000 से अमेरिका का सैन्य अड्डा है। कतर की राजधानी दोहा के पास मौजूद अल उदैद एयरबेस पश्चिम एशिया में अमेरिकी सेंट्रल कमांड के एयर ऑपरेशंस का मुख्यालय है। यानी कतर को यह 100 फीसदी गारंटी थी कि अमेरिका का सैन्य अड्डा यहां है, लिहाजा वह इज़राइल समेत तमाम देशों के किसी भी हमले से महफूज़ है। जब दोहा में हमास के नेताओं को मारने के लिए इज़राइल ने हमला बोला—तब उसका ये विश्वास खंडित हो गया। यहां कतर का यह कहना भी वाजिब है कि वह अमेरिका के कहने पर ही फिलिस्तीन के मिलिटेंट संगठन हमास के संग शांति वार्ता आयोजित कर रहा था। यानी सब कुछ अमेरिका के ही इशारे पर हो रहा था, ऐसे में उसकी राजधानी पर इजराईल का हमला—उसके लिए बर्दाश्त करना बहुत मुश्किल था। पूरी इलाके में खलबली मची। साथ ही साथ सऊदी अरब को भी लगा कि वह भी सुरक्षित नहीं है, क्योंकि इज़राइल की मिसाइल सऊदी के एयर स्पेस को पार करके ही दोहा पहुंच सकती थीं। सऊदी अरब पश्चिमी एशिया में बड़ा देश है और उसे भी गहरी बेचैनी व असुरक्षा लगी।

दोहा पर हमले के बाद जिस तरह से इजराइल के प्रधानमंत्री नेत्यानाहू ने भी यह कहा कि उन्होंने ट्रंप को दोहा पर इस हमले के बारे में बता दिया था, उससे भी पश्चिम एशिया के सभी देशों में असुरक्षा फैली। हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को भी मजबूरी में कहना पड़ा कि इजराइल सही कह रहा है, लेकिन वह कतर के साथ है। लेकिन ऐसा लगता है कि ट्रंप के इस प्रयास से डैमेज कंट्रोल नहीं हुआ। सऊदी अरब जो इस इलाके का सबसे बड़ा और शक्ति संपन्न देश है, उसने गहरी असुरक्षा से भरकर ही पाकिस्तान के साथ हाथ मिलाया।

वैसे, 17 सितंबर 2025 को सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हुए रणनीतिक पारस्परिक रक्षा समझौते को कई लिहाज से इस क्षेत्र के लिए गेम चैंजर कहा जा सकता है। इसमें यह तय किया गया है कि यदि किसी बाहरी देश ने एक पक्ष पर आक्रमण किया तो इसे दूसरे देश पर भी आक्रमण माना जाएगा। सऊदी अरब पाकिस्तान के न्यूक्लियर एम्ब्रेला के अंदर है, यानी पाकिस्तान द्वारा सऊदी के रक्षा कवच के रूप में न्यूक्लियर क्षमताएं शामिल हो सकती हैं। आज की तारीख में सऊदी अरब के पास पाकिस्तान का न्यूक्लियर कवच मौजूद होगा, जो उसे किसी भी देश के हमले में बचाने में काम आ सकता है। पाकिस्तान का भी कद बड़ गया और उसे न्यूक्लियर पॉवर होने का लाभ भी मिला। ये अलग बात है कि हाल ही में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री, अमेरिकी राष्ट्रपति से मुलाकात करने वाले हैं और वहां क्या डेवलपमेंट हो कहा नहीं जा सकता। लेकिन फिलहाल पश्चिम एशिया में सऊदी अरब को पाकिस्तान का न्यूक्लियर कवच मिल गया है। इस समझौते का पूरे इलाके में बढ़ा असर पड़ेगा, हालांकि इजराइल इसे कैसे देखेगा और क्या जवाब देगा, उस पर भी भविष्य में इन देशों की आपसी समझदारी निर्भर करेगी क्योंकि वे सीधे-सीधे इजराइल को चुनौती देने की स्थिति में तो नहीं हैं।

वैसे यह भ्रम नहीं पाला जा सकता कि इससे पश्चिम एशिया में अमेरिकी पकड़ ढीली होगी, क्योंकि बड़ा प्लेयर अभी भी अमेरिका ही है और उसने इस इलाके पर अपने अप्रत्यक्ष दबदबे को कायम रखने के लिए बहुत से घोड़े दौड़ा रखे हैं। लेकिन अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती जरूर मिल रही है। जिस तरह से संयुक्त राष्ट्र परिषद में गाजा में सीजपायर के प्रस्ताव पर भी अमेरिका अलग-थलग पड़ गया था। भारत में शंघाई सहयोग संगठन के प्रस्ताव के बाद यहां भी सीजफायर यानी गाजा में युद्ध विराम के पक्ष में अपना मत दिया था। चीन से भारत की नजदीकियां ट्रंप को कितनी नागवार गुजरी कि उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की बैठक में भारत व चीन को यूक्रेन युद्ध में रूस का साथ देने वाले देशों की संज्ञा दे डाली।

हालांकि यह याद रखना भी जरूरी है कि सऊदी और पाकिस्तान के बीच यह समझौता भारत के लिए परेशानी का सबब हो सकता है। पाकिस्तान के बढ़ते कद से भारत को परेशानी होनी स्वाभाविक है। दूसरी तरफ, यह समझौता पाकिस्तान को सऊदी अरब जैसे शक्तिशाली राज्य के साथ एक पारंपरिक रक्षा साथ जोड़ता है। इससे क्षेत्रीय शक्ति संतुलन प्रभावित हो सकता है। भारत को पश्चिमी एशिया और दक्षिण एशिया में अपनी रणनीतिक पहुंच और साझेदारियों पर फिर से विचार भी करना पड़ सकता है। अगर पाकिस्तान वास्तव में सऊदी को न्यूक्लियर एम्ब्रेला प्रदान करता है तो भारत के परमाणु रणनीतिक संतुलन (nuclear deterrence balance) पर यह एक नया तत्व जोड़ता है। भारत को यह देखना होगा कि इस तरह की स्थिति में कौन-सी कार्रवाई और सुरक्षा नीति अपनानी है। साथ ही साथ, यह भी ध्यान देना चाहिए कि भारत और सऊदी अरब के बीच ऊर्जा, निवेश, व्यापार आदि मामलों में बेहद मजबूत संबंध हैं। वैसे भी इस तरह के रक्षा समझौते अक्सर यह संकेत देते हैं कि भविष्य में यदि कोई संघर्ष हो, तो इसमें शामिल देशों की भूमिका और प्रतिक्रिया अधिक व्यापक हो सकती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सऊदी अरब से खासे घनिष्ठ संबंध है और भारत के उद्योगपतियों के लिए भी सऊदी से दोस्ती बहुत जरूरी है। जिस तरह पहलगाम में आतंकी हमला हुआ था, उस समय भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सऊदी अरब की यात्रा पर ही थे।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जिस तरह से दुनिया भर में टैरिफ युद्ध छेड़ा, उसके बाद कोई देश भी ये दावा करने की स्थिति में नहीं है कि वह अमेरिका का स्थायी दोस्त है। कब ट्रंप उस देश के खिलाफ मोर्चा खोल दें, यह किसी को पता नहीं। लिहाजा सारे देश अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखकर ही दूसरे देशों से संबंध व नजदीकियां बढ़ा रहे हैं, समझौता कर रहे हैं। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नीतियां विश्व स्तर पर नये गठबंधन, सत्ता समीकरण को जन्म दे रही हैं। हर देश इस समय अपने को केंद्र में रखकर कई स्तरों में वार्ता व समझौते कर रहा है। एक तरह की बार्गेनिंग या डील करने-कराने का दौर शुरू हो चुका है। इसमें पश्चिम एशिया, एशिया व ब्रिक्स के देशों के बीच भी जो संवाद स्थापित हो रहे हैं—वे यथास्थिति को तोड़ने वाले साबित हो सकते हैं। पश्चिम एशिया में अमेरिका के बहुत बड़े हित हैं। तेल का अकूत भंडार होने के साथ-साथ उसके शक्तिशाली सैन्य बेस उसे दुनिया को अपने हिसाब से चलाने की शक्ति प्रदान करते हैं। अमेरिका के घरेलू संकट को हल करने के लिए भले ही ट्रंप कभी टैरिफ का डंडा चलाते हैं कभी धमकियों का इस्तेमाल करते हैं लेकिन दुनिया के बाकी देश उस तरह से लंबलेट नहीं हो रहे हैं। अभी तक भारत का दबाने के लिए भी ट्रंप ने कम हथकंड़े नहीं इस्तेमाल किये, लेकिन अपने हिसाब की टेड्र डील नहीं करवा पाए।

फिलहाल सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हुआ रक्षा समझौता आने वाले दिनों में क्या गुल खिलाएगा, इसके लिए तो इंतजार करना होगा, लेकिन संदेश साफ है कि पश्चिम एशिया पर अमेरिकी पकड़ के ढीली हो रही है। ट्रंप के फैसले, विरोधाभासी बयान लगातार नए समीकरणों, समझौतों को जन्म दे रहे हैं और देते रहेंगे। (संवाद)