शिखर सम्मेलन में अभी दो हफ्ते बाकी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा योजनाओं के बारे में भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है, लेकिन मेजबान मलेशियाई प्रधानमंत्री अनवर इब्राहिम ने शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दोनों के शामिल होने की पुष्टि की है। हालांकि, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग इसमें शामिल नहीं होंगे। चीन का प्रतिनिधित्व प्रधानमंत्री ली कियांग करेंगे।

आसियान समूह में वर्तमान में ग्यारह सदस्य हैं - मलेशिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया, ब्रुनेई, वियतनाम, लाओस, म्यांमार, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड और पूर्वी तिमोर। भारत, अमेरिका और चीन सदस्य नहीं हैं, लेकिन उन्हें हमेशा मित्रवत पर्यवेक्षकों के रूप में आमंत्रित किया जाता है। इसी प्रकार, जापान, ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका और केनडा को भी आमंत्रित किया गया है। ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका दोनों के राष्ट्रपति इसमें भाग ले रहे हैं। इस तीन दिवसीय बैठक में विचार-विमर्श का विशेष महत्व है, क्योंकि हाल ही में हुए इज़राइल-हमास शांति समझौते और दक्षिण चीन सागर में सुरक्षा को लेकर आसियान की चीन से जुड़ी चिंताओं को देखते हुए यह विशेष महत्व रखता है।

भारत के लिए यह बैठक बेहद महत्वपूर्ण होगी क्योंकि 2025 में प्रधानमंत्री मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच यह दूसरी आमने-सामने की मुलाकात होगी। दोनों की पिछली मुलाकात इसी साल 13 फरवरी को हुई थी। उस बैठक में दोनों देशों के बीच गहरी आत्मीयता देखने को मिली और भारतीय प्रधानमंत्री ने वर्ष 2030 तक भारत-अमेरिका व्यापार को 500 अरब डॉलर तक बढ़ाने का विश्वास व्यक्त किया। लेकिन ट्रंप द्वारा इस वर्ष 1 अप्रैल से भारतीय निर्यात पर 25 प्रतिशत की एकतरफा टैरिफ वृद्धि और उसके बाद इस वर्ष अगस्त से 25 प्रतिशत का अतिरिक्त जुर्माना लगाने की घोषणा के साथ, अमेरिका को भारतीय निर्यात पर कुल 50 प्रतिशत टैरिफ लग गया, जिसका चालू वित्त वर्ष में अमेरिका को भारतीय निर्यात पर गंभीर प्रभाव पड़ा। विशेष रूप से, रूस से तेल आयात करने पर भारतीय निर्यात पर अतिरिक्त 25 प्रतिशत जुर्माना लगाने से भारत सरकार स्तब्ध रह गई।

इसके अलावा, इस वर्ष मई में भारत और पाकिस्तान के बीच चार दिवसीय युद्ध के बाद, राष्ट्रपति ट्रंप ने दोनों देशों पर व्यापार प्रतिबंध लगाने की धमकी देकर युद्ध को रोकने का श्रेय लिया। भारतीय प्रधानमंत्री ने इस पर नाराजगी जताई और कहा कि भारत ने त्रस्त पाकिस्तान की अपील पर बिना किसी बाहरी शक्ति के हस्तक्षेप के, स्वयं ही युद्धविराम पर सहमति व्यक्त की। भारत-पाकिस्तान युद्ध रोकने में ट्रंप की भूमिका का मुद्दा अभी भी गरमा रहा है। इस साल 10 मई को हुए युद्धविराम के बाद से पिछले पांच महीनों में ट्रंप ने लगभग पचास बार इसका ज़िक्र किया होगा। पिछले हफ़्ते नोबेल शांति पुरस्कार के लिए दावेदारी पेश करते समय भी उन्होंने इसका ज़िक्र किया था, जो इस साल उन्हें अंततः नहीं मिला।

भारत-अमेरिका द्विपक्षीय संबंधों में उथल-पुथल के राजनीतिक विश्लेषकों ने पाया है कि पिछले एक हफ़्ते में भारतीय प्रधानमंत्री ने धीरे-धीरे अपने अमेरिका-विरोधी रुख़ को कमज़ोर किया है और ट्रंप को लुभाने के संकेत देने शुरू कर दिए हैं, जो भारतीय विदेश मंत्रालय के लिए शर्मिंदगी का सबब बन गया है। इज़राइल-हमास समझौते की घोषणा के तुरंत बाद मोदी ने ट्रंप से बात की और उन्हें उनकी ऐतिहासिक गाज़ा शांति योजना की सफलता के लिए बधाई दी। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि भारतीय प्रधानमंत्री ने इज़राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के नेतृत्व की प्रशंसा करते हुए सभी कूटनीतिक सीमाओं को पार कर लिया। यह ट्रंप की नज़रों में बने रहने के लिए था।

अमेरिकी राष्ट्रपति को और लुभाने की नरेंद्र मोदी की उत्सुकता गुरुवार को तब साफ़ दिखाई दी जब उन्होंने ट्रंप को बधाई देने के लिए दो बार 'एक्स' का सहारा लिया। इन सभी पोस्टों से यह स्पष्ट था कि भारतीय प्रधानमंत्री इस साल अप्रैल में व्यापार युद्ध शुरू होने से पहले की तरह राष्ट्रपति के साथ अच्छे संबंध बनाने की कोशिश कर रहे थे। कुआलालंपुर में होने वाली आगामी बैठक इसी पृष्ठभूमि में हो रही है—एससीओ शिखर सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री के कूटनीतिक रुख और इस साल 31 अगस्त को तियानजिन में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ उनकी द्विपक्षीय बैठक से थोड़ा अलग।

राजनयिक सूत्रों की मानें तो अमेरिकी विदेश विभाग के अधिकारी भारतीय विदेश मंत्रालय को लगातार यह समझा रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति ट्रंप की सीधी मुलाकात ही इन परेशानियों को दूर करने में मदद कर सकती है। वे इस बात का ज़िक्र करते रहे हैं कि भारत का स्वाभाविक स्थान अमेरिका के साथ है और कुआलालंपुर शिखर सम्मेलन में मोदी द्वारा ट्रंप के अहंकार को थोड़ा शांत करने से भारत-अमेरिका संबंधों, जिसमें व्यापारिक संबंध भी शामिल हैं, को फिर से पटरी पर लाने में मदद मिल सकती है। मोदी पर उन भारतीय तकनीकी नेताओं का दबाव है जो भारत-अमेरिका संबंधों में गिरावट से चिंतित हैं।

अब स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि चीन के साथ संबंधों में सुधार के संदर्भ में भारतीय प्रधानमंत्री अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ कैसे पेश आएंगे। इस साल 31 अगस्त और 1 सितंबर को चीन में हुए पिछले एससीओ शिखर सम्मेलन के बाद वैश्विक मामलों में चीन, भारत और रूस की एक अनौपचारिक तिकड़ी का उदय हुआ है। दोनों देशों के बीच उड़ानें फिर से शुरू होने के साथ भारत-चीन संबंधों का नया दौर शुरू हो गया है। जुलाई 2020 में गलवन युद्ध के बाद ठंडे पड़े द्विपक्षीय संबंधों को फिर से गति देने के लिए अन्य उपाय भी किए जा रहे हैं।

इसी तरह, राष्ट्रपति पुतिन 5 और 6 दिसंबर को भारत का दौरा करेंगे और चर्चा का केंद्र आर्थिक संबंधों को बढ़ाने पर होगा, जिसमें रूस से तेल उत्पादों का भारतीय आयात जारी रखना भी शामिल है, जिस पर अमेरिका आपत्ति जता रहा है और जिसके कारण ट्रम्प ने भारतीय निर्यात पर 25 प्रतिशत का जुर्माना लगाया है। ट्रम्प लगातार इस भारतीय तेल आयात पहलू पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, यह कहकर कि भारत भी रूसी तेल आयात के माध्यम से पुतिन के यूक्रेन युद्ध का वित्तपोषण कर रहा है। ट्रम्प के साथ प्रस्तावित आमने-सामने की बैठक के पांच हफ़्ते बाद राष्ट्रपति पुतिन के साथ होने वाली अपनी आगामी वार्ता को बाधित किए बिना प्रधानमंत्री मोदी ट्रम्प के साथ इस तेल आयात मुद्दे को कैसे सुलझाएंगे? यह एक यक्ष प्रश्न है।

ट्रंप की बात करें तो, आसियान शिखर सम्मेलन के लिए कुआलालंपुर की उनकी यात्रा, पिछले एक दशक में किसी अमेरिकी राष्ट्रपति की पहली मलेशिया यात्रा होगी। बराक ओबामा ने 2015 में मलेशिया का दौरा किया था और अब ट्रंप ऐसे नेता के रूप में मलेशिया आ रहे हैं जिन्होंने कई क्षेत्रों में शांति स्थापित की है, जिनमें सबसे हालिया उदाहरण गाजा शांति समझौता है। इसी तरह, मलेशियाई प्रधानमंत्री अनवर इब्राहिम ने भी कंबोडिया और थाईलैंड के बीच शांति समझौते में मध्यस्थता की है और ट्रंप ने उनकी सराहना की है। ट्रंप के समर्थन से इब्राहिम इस शिखर सम्मेलन के माध्यम से एक क्षेत्रीय नेता के रूप में उभरने की कोशिश करेंगे।

लेकिन इज़राइल के मामले में, मलेशिया ट्रंप और मोदी दोनों से बहुत अलग राय रखता है। मलेशिया चाहता था कि नेतन्याहू को युद्ध अपराधी घोषित किया जाए और उसने अन्य आसियान सदस्यों के साथ मिलकर गाजा में इज़राइली नरसंहार के खिलाफ रुख अपनाया। इस साल मई में भारत-पाक टकराव के बाद मलेशिया ने पाकिस्तान का भी साथ दिया था। इसलिए मलेशियाई प्रधानमंत्री इब्राहिम के साथ द्विपक्षीय वार्ता में भारतीय प्रधानमंत्री के लिए कोई आसान रास्ता नहीं होगा, लेकिन दोनों प्रधानमंत्री आर्थिक सहयोग की संभावनाओं पर अधिक ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।

भारतीय विदेश मंत्रालय के अधिकारी और व्हाइट हाउस, दोनों ही मोदी-ट्रंप मुलाकात के लिए पर्याप्त तैयारी कर रहे होंगे। दोनों पक्षों के लिए दांव बहुत ऊंचे हैं, लेकिन भारत के लिए, यह और भी ज़्यादा है, खासकर प्रधानमंत्री मोदी के लिए, जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से ट्रंप के पक्ष में बहुत कुछ दांव पर लगा दिया है। यही कारण है कि इस साल अप्रैल के बाद ट्रंप के व्यवहार ने उन्हें चौंका दिया। लेकिन राजनीति में ऐसे झटके लगते रहते हैं और सत्ता में बैठे लोगों को ऐसे अचानक बदलावों से कूटनीतिक और दूरदर्शिता से निपटना होता है। वैश्विक भू-राजनीति के बदलते परिदृश्य में, यह देखना होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ अपनी आगामी बैठक में भारत की रणनीतिक स्वायत्तता का दृढ़ता से बचाव करते हुए राष्ट्रीय हितों का कैसे ध्यान रखते हैं, जो साथ ही यह सुनिश्चत करे कि चीन और रूस के साथ भारत के द्विपक्षीय संबंधों में सुधार की प्रक्रिया में इससे कोई बाधा भी उपस्थित न हो। (संवाद)