दूसरी तरफ केन्द्र सरकार का कहना है कि उन्हें रिहा करना उनके हाथ में नहीं है। वे न्यायिक हिरासत में हैं और अदालत ही उन्हें रिहा कर सकती है। उल्फा नेता अपनी जमानत के लिए अदालत में आवेदन कर सकते हैं। यदि सरकार ने उनकी जमानत का विरोध नहीं किया, तो उन्हें जमानत भी मिल जाएगी। लेकिन सरकार उनकी जमानत का विरोध नहीं करेगी, इसके बारे में उन्होंने किसी प्रकार का कोई फैसला नहीं किया है।
समस्या इतनी ही नहीं है। केन्द्र सरकार का कहना है कि बातचीत तभी होगी, जब उग्रवादी संगठन हिंसक गतिविधियों का त्याग कर देंगे और वे बातचीत के पहले ही आजाद असम की मांग को भी छोड़ देेगे। केन्द्र सरकार कह रही है कि बातचीत संविधान के दायरे में ही होगी। इसलिए असम की संप्रभुता पर किसी प्रकार की कोई चर्चा नहीं होगी। केन्द्र सरकार की इस शर्त को मानने का कोई संकेत उल्फा के नेताओं ने नहीं दिया है।
सम्मिलित जातीय अभिबर्तन नाम का संगठन सरकार और उल्फा के बीच मध्यस्थता कर रहा है। उस संगठन के नेताओं का कहना है कि दोनों पक्षों को बिना किसी शर्त के बातचीत के लिए राजी हो जाना चाहिए। केन्द्र सरकार द्वारा उल्फा से बातचीत के पहले ही संप्रभुता की मांग को त्यागने की शर्त पर संगठन का कहना है कि उल्फा आजाद असम की मांग के साथ ही अस्तित्व में आया था। इसलिए उससे यह उम्मीद करना कि वह बातचीत के पहले ही अपनी इस मूल मांग का त्याग कर दे, व्यावहारिक नहीं लगता। उसके नेताओं का कहना है कि बातचीत के क्रम में भी उल्फा नेता संप्रभुता की मांग को छोड़ सकते हैं। इसके अलावे संप्रभुता पर बातचीत करने का मतलग यह नहीं होता कि आप उसे मानने के लिए तैयार बैठे हों।
असम में परिस्थितियां शांति के पक्ष में बन रही है। लोगों को अहसास है कि आजाद असम न तो संभव है और न ही वह यहां के लोगों के हित में है। भारत का भाग बने रहना ही असम और असम वासियों के हित में है, यह बात यहां के लोगों में बैठ गई है। इसलिए बातचीत के दौैरान उल्फा नेता असम की संप्रभुता की मांग से पीछे हट जाएंगे, इसकी पूरी संभावना है। पर बातचीत से पहले ही उनसे इस मांग से पीछे हटने की उम्मीद करना उनके अस्तित्व को ही नकार देना होगा।
दोनों पक्षों द्वारा अपनी अपनी शर्तों पर अड़ जाने के बाद उनके बीच बातचीत के आसार कम होते जा रहे हैं। इसके कारण उल्फा समस्या के समाधान को लेकर पैदा हुई उम्मीद भी धूमिल होती जा रही है। उल्फा के मुख्य कमांडर परेश बरुआ अभी भी कानून की गिरफ्त से बाहर हैं। माना जा रहा है कि उनके साथ करीब दो सौ हथियारबंद उग्रवादी हैं। वे अभी कहां हैं, इसके बारे में पक्की तौर पर कुछ भी नहीं पता। वे बातचीत का विरोध कर रहे हैं। कानून की गिरफ्त में आए उल्फा नेताओं के साथ सरकार की बातचीत में देरी का लाभ उन्हें मिल सकता है। वे युवकों को कह सकते हैं कि सरकार बातचीत के लिए राजी ही नहीं है और बातचीत के नाम पर सिर्फ समय बर्बाद कर रही है ताकि उल्फा समर्थक थककर खुद ही समाप्त हो जाएं।
केन्द्र सरकार की ओर से तो बातचीत में उदासीनता साफ देखी जा सकती है। लेकिन क्या असम सरकार भी बातचीत नहीं चाहती? यह मानने के पर्याप्त कारण है कि असम सरकार बातचीत के द्वारा इस समस्या का हल जल्द से जल्द चाहेगी। पर अंतिम तौर पर इसके बारें में फैसला तो केन्द्र सरकार को करना है। (संवाद)
केन्द्र को उल्फा से बातचीत करनी चाहिए
देर करने से उग्रवादी मजबूत होंगे
बरुण दास गुप्ता - 2010-07-17 11:01
कोलकाताः उल्फा समस्या के हल की जो हल्की उम्मीद पहले बनी थी, वह धीरे धीरे समाप्त होती जा रही है। शांति के लिए बातचीत अभी तक आरंभ भी नहीं हो पाई है। सरकार और उग्रवादी संगठन दोनों की दिलचस्पी एकाएक बातचीत के प्रति समाप्त हो गई लगती है। गौहाटी जेल में बंद उल्फा के नेता अब कह रहे हैं कि वे बातचीत में तबतक भाग नहीं लेंगे, जबतक उन्हें रिहा नहीं कर दिया जाता है।