यह बात साफ है कि दक्षिण एशिया की शांति और स्थिरता बहुत हद तक पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान की आंतरिक शांति तथा भारत पाकिस्तान संबंधों पर निर्भर है। इस दृष्टि से अफगानिस्तान पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का काफी महत्व है। दुनिया में 70 देशों के प्रतिनिधियों का संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव के साथ इकट्ठा होना अपने-आपमें महत्वपूर्ण घटना है। यद्यपि यह सम्मेलन केन्द्रित तो था अफ्रगानिस्तान पर, किंतु नेताआंे के भाषणों एवं लिए गए फैसलों का संबंध पाकिस्तान से भी है। वैसे भी अफगानिस्तान में आतंकवाद विरोधी युद्ध का सीधा ताल्लुक किसी देश से है तो वह पाकिस्तान ही है। प्रश्न है कि क्या इन सारी घटनाओं से ऐसे कुछ संकेत निकलते हैं जिनसे भविष्य में शांति एवं स्थिरता की उम्मीद जगे?
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने 2014 तक अफगानिस्तान की सैन्य एवं असैन्य सारी व्यवस्थाओं की कमान खुद संभालने के प्रति संकल्पबद्धता दुहराई। इससे पहली नजर में ऐसी उम्मीद जगती है कि तब तक वहां से आतंक फैलाने वाले तत्वों का अंत हो चुका होगा और अफगानिस्तान वर्तमान संसदीय लोकतंत्र के तहत अपने पैरों पर खड़ा होकर पुनर्निर्माण की दिशा में अग्रसर होगा। किंतु इस समय उम्मीद और यथार्थ के बीच मिलन विन्दु ढूंढना मुश्किल है। शायद करजई की उम्मीद दो बातों पर टिकीं हैं। एक, सभी देशों के सहयोग से तालिबानी सिपाहियों के उनके नेताओं से अलग कर शांति प्रक्रिया में शामिल करने की कोशिशें सफल होंगी एवं दो, अमेरिका एवं दूसरे देश वहां से अपना हाथ नहीं खीचेंगे। अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के अंत मंे जारी घोषणा मंे कहा गया है कि अफगान सरकार की शांति एवं पुर्नएकीकरण प्रक्रिया हथियारबंद विरोधियों और उनसे जुड़े समुदायों के उन सभी अफगानियों के लिए खुली है जो हिंसा छोड़ चुके हैं, जिनका अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठनांे से रिश्ता नहीं है एवं जो संविधान का आदर करते हैं। इस घोषणा का अर्थ है, करजई द्वारा तालिबानों को शांति प्रक्रिया में लाने की नीति का अंतरराष्ट्रीय समुदाय का समर्थन। चूंकि भारत भी इसमें शामिल था, इसलिए अब यह मान लेना होगा कि इस योजना का अब इसने भी समर्थन कर दिया है। भारत ने इस योजना पर पहले जो आशंकाएं उठाईं थीं वे वाजिब थीं और वे आज भी बनी हुईं हैं, पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय यदि यह सूत्र आजमाना चाहता है तो इसका परीक्षण करने में कोई हर्ज नहीं है। वैसे भी केवल युद्ध से कभी शांति स्थापित नहीं होती। युद्ध की सफलता को बातचीत से संतुलित करना जरुरी होता है।
लेकिन अफगानिस्तान में यह कदम काफी जोखिम भरा है। आतंकवादियों की रणनीति यह हो सकती है कि अमेरिका द्वारा जुलाई 2011 तक वापसी की घोषणा का लाभ उठाते हुए एक रणनीति के तहत हथियार डालकर शांति प्रक्रिया में शामिल हुआ जाए। ऐसा होने का अर्थ हम जानते हैं। अमेरिका की इस घोषणा का करजई पर असर साफ दिख रहा है। हालांकि क्लिंटन ने कहा कि सैनिकों की वापसी की योजना का मतलब यह नहीं है कि अमेरिका का इरादा बदल गया है या हम अफगानिस्तान को समर्थन जारी नहीं रखेंगे, पर अमेरिका हस्तांतरण प्रक्रिया आरंभ करने की अपनी घोषणा पर कायम है और इसके असर से इन्कार नहीं किया जा सकता। 2011 और 2014 के बीच में अफगानिस्तान का क्या होगा यह प्रश्न अनुत्तरित रह गया है। यह सम्मेलन ऐसे समय हुआ जब अमेरिका और नाटो की सेनाएं पूर्वी अफगानिस्तान एवं कंधार में तालिबानों के खिलाफ सघन अभियान चलाने जा रही हैं। तो एक ओर तालिबान पर सैनिक कार्रवाई का दबाव और शांति प्रक्रिया में शामिल होने के प्रस्ताव का विकल्प दिया जा रहा है। शांति योजना के असर का आकलन आगामी एक दो महीने के भीतर हो जाएगा।
पूरी दुनिया को पता है कि तालिबान और अल कायदा का मूल पाकिस्तान में है। क्लिंटन ने पाकिस्तान दौरे में जिस साफ लहजे में बात की उसका संकेत साफ है। उन्होंने 50 करोड़ डॉलर की सहायता राशि अवश्य दी, पर इसके साथ गैर राज्यीय आतंकवादी शक्तियों के साथ राज्य प्रतिष्ठान के तहत व्याप्त इन शक्तियों पर भी बोला। एस. एम. कृष्णा के दौरे के बाद पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने जो जहर उगला उसका एक कारण अमेरिका पर सक्रिय भूमिका निभाने का दबाव डालना हो सकता है। अमेरिका इस समय भारत एवं पाकिस्तान के बीच सामान्य संबंध चाहता है ताकि पाकिस्तान आतंकियों के विरुद्ध कार्रवाई पर केन्द्रित रहे। भारत के लिए यह निश्चय ही राहत एवं संतोष की बात है कि बातचीत विफल होने तथा इसके लिए भारत को दोषी करार देकर पाकिस्तान जो कुछ हालिस करना चाहता है अमेरिका ने उसे पलट दिया। कुरैशी ने क्लिंटन के साथ संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कश्मीर से लेकर जल विवाद तक की चर्चा की। इसके जवाब मंे क्लिंटन ने आपस मंे विवाद सुलझाने की नसीहत तथा जो जल है उसके उचित प्रबंधन की सलाह द्वारा पाकिस्तान को झिड़क दिया। पाकिस्तान के लिए यह तगड़ा कूटनीतिक झटका है। खासकर अमेरिका में गिरफ्तार डेविड हेडली द्वारा आतंकवादी गतिविधियांे में आईएसआई एवं सरकार के लोगों के शामिल होने के खुलासे का जिक्र तो उसके लिए वज्रपात जैसा है। केवल भारतीय विदेश मंत्री ऐसा कहते कि पाकिस्तान को हेडली द्वारा अमेरिका की संघीय जांच एजेंसी के सामने किए गए खुलासे को स्वीकार करते हुए उचित कार्रवाई करनी चाहिए तो पाकिस्तान के लिए इसका जवाब देना आसान होता, लेकिन क्लिंटन ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि हेडली ने जो भी बयान दिया है वह पाकिस्तान को बता दिया गया है एवं उन तत्वों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। इसके बाद पाकिस्तान का मुंह बंद होना ही था। क्लिंटन यहीं तक सीमित होती तो शायद पाकिस्तान के लिए थोड़ी राहत की स्थिति होती। एक अमेरिकी समाचार चैनल को दिए साक्षात्कार में ओसामा बिन लादेन एवं अयमान अल जवाहिरी के पाकिस्तान में होेने तथाा पाक सरकार के कुछ तत्वों को इसकी जानकारी होने की बात कहकर तो उन्होंने पाकिस्तानी नेताओं की नींद हराम की है। जरा क्लिंटन की कुछ पंक्तियों पर ध्यान दीजिए, ‘ हमें लगता है कि इस सरकार में कोई न कोई तो है, ऊपर से लेकर नीचे तक, जो बिन लादेन का पता जानता है। मैं भी यह जानना चाहूंगी। इसलिए लगता है कि हमें लगातार दबाव बनाए रखना होगा, जो हम कर रहे हैं। ..... मैं पाक को कोई समय सीमा नहीं देना चाहती। लेकिन मैंने पाक को चेताया है कि जब तक आप सशस्त्र सैन्य बल को लादेन की खोज में नहीं लगाओगे, तब तक वह आस्तीन में जहरीले सांप की तरह पलता रहेगा।..’ यह चेतावनी साधारण नहीं है। इसका दूसरा अर्थ यही है कि पाकिस्तानी सत्ता इन जहरीले सांपों को अब तक पाल रही है।इससे साफ है कि अमेरिका का दबाव पाकिस्तान पर बढ़ने वाला है।
इस परिप्रेक्ष्य में तीनों घटनाओं को आधार बनाकर विचार करें तो किसी देश के लिए ये सबसे ज्यादा प्रतिकूल रहे हैं तो वह पाकिस्तान ही है। भारत को कठघरे में खड़ा करने, अमेरिका द्वारा भारत को नसीहत दिलवाने, अफगानिस्तान से इसे अलग करने की उसकी चाल केवल विफल नहीं हुई, उल्टी पड़ गई। अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को सभी ने स्वीकारा एवं पिछले वर्ष हमले के बाद जो मेडिकल मिशन बंद कर दिया गया था वह पुनः आरंभ हो रहा है। यानी अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत की भूमिका फिर बढ़ेगी। यह पाकिस्तान की चाहत के प्रतिकूल है। भारत की इस राय से प्रायः आम सहमति थी कि अफगानिस्तान में स्थिरता लाने की कोई भी पहल पूरी तरह से अफगान नेतृत्व की ओर से होनी चाहिए। भारतीय के नजरिए से यह हमारे लिए राहत की बात हो सकती है। अगर अमेरिकी दबाव में पाकिस्तान अपनी भूमि पर कायम आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई सघन करता है, जिसमें भारत भूमि में आतंक फैलाने वाले तत्व भी हैं तो इससे केवल भारत एवं पाकिस्तान के बीच ही नहीं, अफगानिस्तान में भी शांति कायम होने की आधारभूमि बनेगी तथा विस्तारित रूप मंे इससे पूरी दक्षिण एशिया में शांति एवं स्थिरता की संभावना प्रबल होगी। लेकिन प्रश्न तो यही है कि क्या पाकिस्तान ऐसा करेगा? (संवाद)
अफगानिस्तान सम्मेलन एवं क्लिंटन की पाक यात्रा
दक्षिण एशिया में शांति के लिए पाकिस्तान का बदलना आवश्यक
अवधेश कुमार - 2010-07-24 12:24
लगभग एक सप्ताह तक दक्षिण एशिया भारी कूटनीतिक हलचलों का क्षेत्र बना रहा। अफगानिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन, उसके पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन का पाकिस्तान दौरा, इसके पहले भारतीय विदेश मंत्री एस. एम. कृष्णा की पाकिस्तान यात्रा एवं उसके बाद पाकिस्तानी नेताओं के शांति प्रयासों पर पानी फेरने वाले वक्तव्यों के कारण यह क्षेत्र लगातार सुर्खियों में रहा है। जाहिर है, इन सारी घटनाओं का कुछ न कुछ परिणाम आना चाहिए।