मुद्रास्फीति की दर दोहरे अंकों में जा पहुची है। जाहिर है कि संसद में आम आदमी के स्वर उठने चाहिए। इसलिए लोगों के प्रतिनिधि जब संसद में इस मसले पर हंगामा कर रहे हैं, तो इसमें शायद कुछ भी बुरा नहीं है। विपक्ष अस मसले पर चर्चा के बाद मतदान चाहता है, लेकिन सरकार इस तरह का कोई खतरा लेने को तैयार नहीं है। वह महंगाई मसले पर चर्चा कराना तो चाहती है, लेकिन चर्चा के बाद इस पर मतदान हो, वह ऐसा नहीं चाहती। इसका कारण है कि केन्द्र की सरकार के पास लोकसभा में बहुमत का समर्थन हासिल नहीं है और मतदान में अपना बहुमत जुटाने मे उसे काफी मशक्कत करनी पड़ती है।

विपक्ष की एकता इस बार देखने लायक है। भाजपा के नेतृत्व वाला राजग और वामपंथी पार्टियां इस मसले पर एक साथ आ गए है। वे संसद के बाहर ही नहीं, बल्कि संसद के अंदर भी इस मसले पर एक साथ केन्द्र सरकार को कटघरे में खड़े कर रहे हैं। अस मसले पर चर्चा बजट सत्र के दौरान भी हुई थी। सच कहा जाय, तो महगाई के मसले पर संसद में कई बार चर्चा हो चुकी है। लेकिन उन चर्चाओं का कांई असर कीमतों की वृद्धि पर नहीं पड़ता। वह लगातार बढ़ती जा रही है। सरकार द्वारा पेट्रोल की कीमतों में की गई व्द्धि से महगाई की स्थिति और भी बिगड़ गई है।

संसद का मानसुन सत्र इस बार मूल्यव्द्धि के मसले पर हंगामें से ही आरंभ हुआ है। विपक्ष इस मसले पर कार्यस्थगन प्रस्ताव ला रहा है, ताकि चर्चा के बाद इस मसले पर मतदान हो सके। इस पर विपक्ष अड़ा हुआ है, लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं है। महंगाई के मसले पर भारत बंद करवाकर विपक्ष ने पहले से ही इस पर माहौल गर्म कर रखा है। संसद में भी विरोध जारी रखते हुए वह सरकार को राहत लेने नहीं देना चाह रहा है।

इस साल के अंत में बिहार में विधानसभा का चुनाव है। 2011 में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु व कुछ अन्य राज्यों की विधानसभाओं के भी चुनाव हैं। यही कारण है कि विपक्षी पार्टियां इस मसले को जिंदा रखना चाहती हैं, ताकि वह चुनाव के समय कांग्रेस व अन्य सत्तारूढ़ दलों की खबर ले सके। जहिर है विपक्ष के विरोध के राजनैतिक आयाम भी हैं।

वामपंथी पार्टियों और भाजपा के बीच गुप्त रूप से संसद के सदन में एक सहमति सी बनी हुई है। यह सहमति यूपीए के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत से ही बनी है। वामपंथी दलों को इस बात का अहसास हो गया है कि उसका कांग्रेस का विरोध उसे भाजपा के साथ खड़ा कर देता है। लालकृष्ण आडवाणी वामपंथी दलों से कह चुके हैं कि वे उन्हें सभी गैर कांग्रेसी पार्टियों के साथ आ जाना चाहिए। वाम ने भी यह स्पष्ट कर दिया है कि गैर कांग्रेसी पार्टियों के साथ वे महंगाई जैसे कुछ खास मसले पर ही दिखाई पड़ सकते हैं। अमित शाह जैसे विवाद पर वामपंथी दल भाजपा के साथ हरगिज नहीं दिखना चाहंेगे। वामपंथी दल रेल दुर्घटनाओं के मसले पर ममता बनर्जी पर भी हमले करना चाहते हैं।

राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस की स्थिति बहुूत साफ नहीं दिख रही है। बिहार में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। लालू यादव के लिए वह चुनाव काफी मायने रखता है। वहां उनका विरोध कांग्रेस से उतना नहीं हैख् जितना भाजपा और जनता दल(यू) से है, लेकिन मूल्यवृद्धि का मसला ऐसा हैख् जिसपर वे चुप भी नहीं रह सकते। दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश में मायावती का सामना पड़ता है। मूल्यवृद्धि का आंदोलन केन्द्र सरकार के खिलाफ है, लेकिन लोगों से जुड़े होने के कारण वे इस मसले पर चुप नहीं रह सकते।

तृणमूल कांग्रेस की हालत भी विचित्र है। वह खुद केन्द्र सरकार में शामिल है। जिस कैबिनेट की नीतियों के कारण कीमतें बढ़ रही हैं, ममता बनर्जी खुद उस कैबिनेट की हिस्सा हैं। इसलिए उसमें किए जा रहे निर्णयों से वे अपने आपको अलग नहीं कर सकती। पर उन्हें भी आने वाले साल में विधानसभा चुनाव का सामना करना है। यही हाल डीएमके का भी है।

एनसीपी इस मसले पर चुप है, क्योंकि उसके नेता शरद पवार ही खाद्य और उपभोक्ता मामलो के मंत्री हैं। वे कृषि मंत्री भी हैं। कांग्रेस तो कीमतों में वृद्धि के लिए उन्हें ही जिम्मेदार मानती है। हालांकि वे खुद अपने को अकेले जिम्मेदार मानने के लिए तैयार नहीं हैं और उनका कहना है कि जिन फेसलों के कीमतें बढ़ती है, वे फैसले कैबिनेट का होता है, उनका निजी नहीं।

यानी महंगाई के मसले पर विपक्ष एक हैख् जबकि सरकारी दल विभाजित हैं और विपक्ष का सामना करने की अकेली जिम्मेदारी कांग्रेस के ऊपर है। अब कांग्रेस महंगाई के मसले पर एकजुट विपक्ष को अन्य मसले उठाकर विभाजित करने की कोशिश करेगी। (संवाद)