यह घटना इस बात का खुलासा कर देती है कि भारत के न्यायालयों में भ्रष्टाचार किस सीमा तक है। वैसे भारत की जनता यह जानती है कि भारत के न्यायालयों में भारी भ्रष्टाचार है और उसमें न्यायालय के कर्मचारियों, सरकारी और गैर-सरकारी वकीलों तथा न्यायाधीशों की एक बड़ी संख्या आकंठ डूबी हुई है। यही कारण है कि काफी लंबे अरसे से न्यायालयों का यह कचड़ा साफ करने की आवश्यकता समझी जाती रही है। अधिकांश लोगों के काम बिना रिश्वत दिये नहीं हो पाते और रिश्वत देना कुबूल कर लेने पर उन्हें कानून के अनुसार सजा भी हो सकती है। इसलिए रिश्वतखोर अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हो पाती तथा रिश्वत उद्योग फलता-फूलता रहता है। यदि रिश्वत देने को मजबूर पीड़ितों को माफी मिले तो वे गवाहियां दे सकते हैं और अनेक रिश्वतखोरों को जेल की हवा खानी पड़ सकती है। लेकिन कानून का जो जाल बुना गया है उससे रिश्वतखोरों का बचाव होता है।
वर्तमान मामले में तो गाजियाबाद बार एसोसिएशन और ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा दायर याचिका पर जब मंगलवार को सर्वोच्य न्यायालय में सुनवाई शुरु हुई तो सुनवाई कर रहे न्यायाधीशों को अपनी भावनाएं काबू में रखने में काफी संघर्ष करनी पड़ी। इसका मुख्य कारण यह था कि इलाहाबाद और उत्तराखंड उच्च न्यायालय के 25 न्यायाधीशों पर इस घोटाले में प्रत्यत्क्ष या परोक्ष रुप से शामिल होने का आरोप था।
वे न्यायाधीश कौन थे इसका खुलासा तो नहीं किया गया लेकिन उनमें से अनेक अवकाश प्राप्त भी कर चुके हैं और एक न्ययाधीश अभी सर्वोच्च न्यायालय में भी हैं, जैसा कि आरोप लगाया गया।
जब कल मुकदमें की सुनवाई शुरू हुई तो न्यायमूर्ति अग्रवाल ने समाचार माध्यमों पर भी टिप्पणी की कि वे किस तरह अनेक लोगों को बिना दोष के भी बदनाम कर देते हैं। उनकी यह टिप्पणी भी गलत नहीं है क्योंकि अनेक पत्रकार गैरजिम्मेदार पत्रकारिता या ब्लैकमेल या पक्षपातपूर्ण पत्रकारिता कर रहे हैं।
लेकिन यदि आम आदमी के नजरिये से देखें तो सवाल पूछा जा सकता है कि न्यायाधीश हों या पत्रकार, गैरकानूनी हथकंडे अपनाने वालों के खिलाफ कार्रवाई न करने या उन्हें नजरअंदाज करने के लिए दोषी कौन है? क्या उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं हो सकती? कार्रवाई तो होनी ही चाहिए।
मामले में याचिकादाता की ओर से वकील और पूर्व विधि मंत्री शांति भूषण ने तो आरोप लगा दिया कि न्यायपालिका साथी दोषी न्यायाधीशों का पक्ष ले रही है। इसपर सुनवाई कर रहे न्यायाधीश न्यायमूर्ति अग्रवाल के पास मुकदमें से स्वयं को मुक्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
ऐसा दूसरी बार हुआ जब किसी जज ने आरोप के कारण सुनवाई से इनकार किया हो। पर सवाल उठता है कि क्या याचिकादाता के वकील के पास ऐसा आरोप लगाने के अलावा कोई कानूनी विकल्प नहीं था?
ध्यान रहे कि भारतीय न्यायपालिका की संरचना ऐसी ही कि वकील समेत किसी भी व्यक्ति को पूरा अधिकार है कि वह किसी भी दोषपूर्ण निर्णय को उपरी अदालत में चुनौती दे सकता है या उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालयों को अपने ही निर्णयों की पुनर्समीक्षा करने के लिए अनुरोध कर सकता है। भारतीय न्यायाधीशों के निर्णय सुधार के लिए हमेशा खुले रहते हैं और यह सबको हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। भारत की जनता को न्याय मिले यही सर्वोपरि है।
इसलिए न्यायालयों को शासन प्रणाली के अन्य अंगों की तरह नहीं देखा जा सकता जहां गलत बात का विरोध करने वाले लोगों को प्रताड़ित किया जाता है। यदि निचली अदालत का विरोध किया गया तो उसे विरोधी को प्रताड़ित करने का कोई मौका नहीं मिलता क्योंकि पूरा मामला उस अदालत के कार्यनिष्पादन क्षेत्राधिकार से बाहर चला जाता है।
यह बात जनता को न सही वकीलों को न सिर्फ मालूम रहना चाहिए बल्कि उन्हें आरोप-प्रत्यारोप से बचकर सीधे कार्यवाही शुरु करवाने में रुचि रखनी चाहिए। इस मामले में यदि न्यापालिका दोषी जजों का बचाव कर रही है तो यह भी एक मामला बनता है जिसके खिलाफ सक्षम न्यायालय में कार्यवाही शुरु करवाने की पहल की जा सकती थी। इसके लिए इजलास के अंदर नाटकीय रुख अपनाना कतई आवश्यक नहीं था क्योंकि इससे त्वरित न्याय का उद्देश्य ही हल नहीं होता है।
न्यायमूर्ति अग्रवाल ने आरोप के बाद इस मुकदमे की सुनवाई से स्वयं को अलग कर न्याय की आचार संहिता का पालन किया। लेकिन तब सवाल इठता है कि तीसरे या चौथे जज पर भी इसी तरह के आरोप लगाये गये तो सुनवाई टलती चली जायेगी। बेहतर है कि फैसले का इंतजार किया जाये क्योंकि दोषपूर्ण फैसलों के खिलाफ अपील करने का अधिकार याचिकादाता को है।
उल्लेखनीय हो कि गाजियाबाद जिला न्यायालय के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी आशुतोष अस्थाना ने एक दंडाधिकारी के समक्ष अपनी स्वीकारोक्ति में कहा है कि चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की भविष्य निधि की राशि को अन्यत्र लगाने का लाभ 36 न्यायाधीशों या उनके वांछित लोगों ने उठाया है। यह गबन सात वर्षों तक होता रहा । अब तक इस मुकदमे में 69 लोग गिरफ्तार हो चुके हैं। (समाप्त)