चीजों के महंगा होने का एक कारण यह भी है कि बड़े-बड़े व्यापारी जरूरत की चीजों से अपने 'स्टोर` भर लेते हैं और उन्हें तभी मार्केट में डालते हैं जब उनकी कीमतें आसमान छूने लगें। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि ये चीजें कौन-सी हैं और किस तरह की। जैसे गुड़ की मांग जाड़ों तक ही रहती है। जाड़े खत्म होते ही उसकी उपयोगिता एकदम कम होने लगती है। उत्तर भारत में गुड़ की सबसे बड़ी मंडी मुजफ्फरनगर में है। मुजफ्फरनगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मेरठ और सहारनपुर के बीच स्थित है। ये सभी जगह गर्मियों में गर्म और जाड़ों में ठण्डे इलाके हैं। मध्य-जुलाई के करीब से यहां मानसून की वर्षा होती है। गुड़ को बड़ी मात्रा में सर्दियों में मार्किट में डाला जाता है। गर्मी शुरू होते ही उसकी मांग कम होने लगती है। और वर्षात में तो वायुमंडल में नमी के कारण वह गलने लगता है। इसलिए भी कोई व्यापारी गुड़ को वर्षात में स्टोर नहीं करता। गुड़, शक्कर और बूरा की खपत भी सबसे ज्यादा उत्तर भारत में ही है। इसलिए मार्च से पहले-पहले गुड़, शक्कर या बूरे के भण्डार खाली हो जाते हैं। लेकिल चीनी की खपत तो हर जगह सालभर तक होती रहती है। चीनी के ज्यादातर कारखाने उत्तर भारत में ही हैं। कुछ वर्ष पहले तक ये कारखाने छ: महीने खुलते थे और छ: महीने बंद। इसीलिए इनमें ज्यादातर कर्मचारी दिहाड़ी पर कार्य करते थे। गुड़, शक्कर, बूरा और गिंदौड़े किसान लोग गन्ने के खेतों के पास ही तैयार करते थे और इनकी ज्यादातर बिक्री भी वहीं हो जाती थी। शेष राशि मंडियों में पहुंच जाती थी।

इनके अलावा अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की मांग सालभर तक बनी रहती है। लेकिन मांग बढ़ाने के लिये व्यापारी लोग इन्हें अपने भण्डारों (स्टोरों) में भरे रखते हैं। जैसे-जैसे मांग बढ़ती है उनकी कीमत बढऩे लगती है और कीमत बढऩे पर ही व्यापारी अपने भण्डार (स्टोर) खाली करने लगते हैं। उपभोक्ताओं को सबसे ज्यादा जरूरत अन्न की और कपड़ों की होती है। अन्न को ज्यादातर व्यापारी खत्तियों में भर कर रखते थे। इस तरह वे अन्न की कमी पैदा कर सकते थे और कीमत बढ़ते ही खत्तियों का माल बाजार में पहुंचा दिया जाता था। सरकार ने इस प्रक्रिया पर नियंत्रण के लिये अन्न का भण्डारण अपने हाथों में ले लिया। इसके लिये उसने कलकत्ता, हापुड़, मायापुरी (नई दिल्ली) जैसी जगहों पर जमीन के ऊपर अपने साइलो-सिस्टम बनाये। ये 'साइलोज़` धरती के ऊपर विशालकाय खोखले पिलर्स की शक्ल में खड़े होते हैं जिनमें हजारों टन गेहूं का भण्डारण किया जा सकता है। इन 'साइलोज़` में सबसे ज्यादा भण्डारण हापुड़ में होता है। हापुड़ पहले सोना-चांदी और कॉटन बेल्स की सट्टा-मंडी थी। चूंकि यहां खत्तियां भी बड़ी संख्या में थी, इसलिए धीरे-धीरे यह कोटकपूरा की तरह अनाज मंडी के रूप में भी उभर कर आई। सोना चांदी और कपास तो हापुड़ के आस पास होता भी नहीं फिर भी सट्टïा मंडी के लिये किन्हीं जीन्स की उपस्थिति अनिवार्य कहां होती है? इसीलिए जब बारिस का सट्टा शुरू हुआ तब एक 'वाचपोस्ट` से कुछ चुनिंदे लोगों ने यह 'ऑबजर्ब` किया कि छत पर बूंदें पड़ी या नहीं, टिन को बूंदों ने छुआ या नहीं। छत से निकलनेवाला पतनाला बहा या नहीं, सड़क के दोनों तरफ की नालियों में पानी बढ़ा या नहीं, ये दोनों नालियां एक दूसरे से पानी से जुड़ी या नहीं, यानी, वर्षा के पानी में सड़क भी डूबी या नहीं- ये सब चीजें सट्टे का आधार बनीं और हर 'स्लैब` के भाव पिछले स्लैब से कहीं ज्यादा रहे। टिन, छत, पतनाला, सड़क की नाली, सड़क- सट्टे के अनुसार ये सब उसके अलग-अलग भाव हैं। व्यापारी (सट्टेबाज) सुबह-सुबह बच्चों से पूछते: बेटा सपने में क्या देखा? जिज्ञासा रहती कि 'नंगी औरत देखी या नहीं?` बच्चा हां कर दे तो बारिश होगी। और होगी तो झोंक दिया लालाजी ने बारिश के सट्टे पर पैसा ही पैसा!

लालाजी की किस्मत अच्छी हो तो कुछ ही देर में लालाजी लखपति करोड़पति, अरबपति बन जाएं। और कुछ तो घंटों में ही खगपति होकर खाक में मिल जाएं। देश की सट्टा मंडियों में ये खेल वर्षों तक चलता रहा और आखिर सरकार को इसे जबरन रोकना पड़ा। सरकार के बीच में आ जाने से सट्टे पर रोक लगी, इससे भी महंगाई पर रोक लगी। इससे कपड़े और अनाज के भाव और अधिक चढऩे से रुके। लेकिन जमाखोरी तो इनके अलावा अन्य जिन्सों में भी होती रही जिनमें सरकार की ओर से कोई दखल नहीं रही। इसका दोष परोक्ष रूप से सरकार को ही जायेगा। पर सरकार ने खुद भी तो महंगाई बढ़ाने में जोर दिया। तिपहिये वाहन अपने भाड़े में 16 प्रतिशत वृद्धि की मांग कर रहे थे। सरकार ने उसे 16 प्रतिशत की बजाय 24 प्रतिशत बढ़ा दिया। इस तरह सरकार खुद भी महंगाई बढ़ाने में शरीक रही। मंदी के दौर में सरकार महंगाई के पक्ष में खड़ी हो जाए तो और बात है लेकिन मंदी का दौर न हो फिर भी वह चीजों के भाव बढ़ाने में मददगार साबित हो तब तो उसे दोष देना ही पड़ेगा। आम लोगों की आय में कोई वृद्धि न हो, रोजगार की स्थिति भी डांवाडोल रहे, तब बढ़ती हुई महंगाई को आम लोग किस तरह झेलेंगे, यह सोचने की बात है। ऐसी स्थिति में महंगाई को 'ग्लोबल फिनामिनन` बता देनेभर से काम नहीं चलेगा। महंगाई को केवल एक स्थिति में 'ग्लोबल` माना जा सकता है कि अन्य देशों में महंगाई बढऩे के भी वही कारण हों, जो हमारे देश में हैं! (राष्ट्रपक्ष)