गैर वाम राजनैतिक ताकतों को अपने साथ करने का उनका इतिहास सिंगुर और नंदीग्राम आंदोलन से ही शुरू होता है। लालगढ़ में सफल रैली करके उन्होंने यह साबित कर दिया कि वे राजनैतिक ताकतें अभी भी उनके साथ हैं। सत्तारूढ़ वामपंथी दलों के लिए यह एकता चिंता का कारण है। 2006 के विधानसभा चुनावों में वामपंथी दलों को अपने सभी विरोधी दलों के सम्मिलित मत से मात्र एक प्रतिशत मत ही ज्यादा मिले थे। उसके सभी विरोघी ताकतों के एक साथ आ जाने से उसका मत प्रतिशत गिर जाएगा। इस तरह ममता बनर्जी का सत्ता में आना और वामपंथियों का हटना आसान हो जाएगा।

दूसरा संदेश यह है कि ममता बनर्जी को माओवादियों से अपने संबंध को लेकर किसी प्रकार का मलाल नहीं है। उन्होंने स्वामी अग्निवेश, मेधा पाटकर और महाश्वेता देवी को भी उस रेली में बुला डाला। इससे उन्होंने संदेश दिया है कि वाम रुझान वाले बाद्धिक वर्ग के लोगों का समर्थन भी उन्हें हासिल है। उन्होंने माओवादी नेता आजाद की कथित पुलिस मुठभेड़ में हुई मौत की भी निंदा की। उनके तेवर से तो यही लगा कि वह भी मानती है कि आजाद की हत्या फर्जी मुठभेड़ में की गई। उनका यह तेवर गृहमंत्री पी चिदंबरम के तेवर से बिल्कुल अलग है।

यह कहना अभी आसान नहीं है कि स्वामी अग्निवेश जैसे लोगों की मार्फत माओवादियों से अपना चैनल खोलकर ममता बनर्जी क्या हासिल कर लेंगी। लेकिन यदि उन्होंने माओवादियों को हिंसा से परहेज करवाने में सफलता हासिल कर ली, तो उन्हें इसका राजनैतिक लाभ मिलेगा। उन्होंने रैली में माआवादियों से अपील की कि वे हिंसा का त्याग करें। वैसे अभी माओवादियों की हिंसा रुकी हुई है। यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि हिंसा पुलिस और अर्द्ध सैनिक बलों की दबिश से दबी हुई है अथवा इसके पीछे माओवादियों की कोई रणनीति है। हालांकि यह भी सच है कि यदि उनकी अपील के बावजूद भी माओवादियों ने हिंसा के वारदातांें को अंजाम देना शुरू कर दिया, तो राजनैतिक स्तर पर उनकी छवि को झटका लगेगा।

पर फिलहाल ममता बनर्जी ने माओवादियों के गढ़ में रैली करके अपनी राजनैतिक छवि चमका ली है। इसका कारण यह है कि सत्तारूढ़ वामपंथी दल भी वहां रैली क्या कोई छोटी मोटी सभा तक नहीं कर सकते। माओवादियों ने एक तरह से वहां से खदेड़ दिया है। सह कहना बलत नहीं होगा कि सत्तारूढ़ वामपंथियों ने नंदीग्राम और सिंगुर में ही नहीं, बल्कि लालगढ़ में भी भयानक गलती की थी। मुख्यमंत्री और रामविलास पासवान के हमले के बाद सरकार की पुलिस ने वहां दमन का नंगा खेल खेला था। उस दमन के बाद माओवादी और मजबूत हो गए, फिर तो उन्होंने सत्तारूढ़ वामपंथियों को ही नहीं, बल्कि पुलिस को भी वहां से खदेड़ दिया था।

लालगढ़, सिंगुर और नंदीग्राम की घटनाओं ने यह साबित कर दिया कि सत्तारूढ़ दलों का गरूर उनके ऊपर ही भारी पड़ सकता है और उसके कारण विरोधी दलों को अपने पांव जमाना आसान हो जाता है। यहां गौरतलब यह है कि ममता बनर्जी की रैली का आयोजन उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने नहीं किया था, बल्कि अभी हाल ही में गठित संत्रास विरोधी मंच ने किया था। ममता ने जानबूझकर अपनी पार्टी के नाम का इस्तेमाल यहां नहीं किया, ताकि इसका पार्टी विहीन रूप को प्रचार मिले।

सत्तारूढ़ वामपंथी दलों की समस्या यह है कि वे ममता बनर्जी और माओवादियों के संबंधों को लेकर केन्द्र सरकार पर किसी प्रकार का दबाव डालने मे विफल साबित हुए हैं। हालांकि कांग्रेस लालगढ़ की इस रैली से अलग रही, लेकिन वह ममता बनजीै को अपने एजेडे से अलग करने में सफल नहीं हो सकती। कांग्रेस को आज केन्द्र में ममता बनर्जी के समर्थन की सख्त जरूरत है, क्योंकि महंगाई, कश्मीर और राष्ट्रमंडल खेलों के भ्रष्टाचार के मसलो पर विपक्ष ने उसकी नाकों में दम कर रखा है। ममता बनर्जी ने भी साफ कर दिया है कि केन्द्र सरकार से अलग होने का उनका कोई इरादा नहीं है, लेकिन इसके लिए वे अपना निजी एजेंडा त्यागने को तैयार नहीं हैं। (संवाद)