जब इस मामले को संसद में उठाया गया, तो इस पर सरकार की ओर से कोई बहुत सकारात्मक जवाब नहीं मिल रहा था। तब लालू प्रसाद यादव ने अपने तर्कों से सरकार को इसे मानने के लिए तैयार कर लिया। हालांकि वेतन वृद्धि का यह मामला अमीर सांसदों के लिए मायने नहीं रखता होगा, क्योंकि उनके पास पहले से ही बहुत धन है, लेकिन जो साधारण परिवार के हैं, उनके लिए यह काफी मायने रखता है। एक सांसद को दो जगह घर और दफ्तर रखने होते हैं- एक दिल्ली में और दूसरी अपने निर्वाचन क्षेत्र में। उन्हें अपने परिवार पर भी खर्च करना पड़ता है। दोनों जगह मिलने के लिए आने वाले अपने क्षेत्र के लोगों की खातिरदारी भी करनी पड़ती है। अपने क्षेत्र से दिल्ली आ धमके अपने मतदाताओं की कुछ मांग का भी उन्हें सामना करना पड़ता है।

सांसदों की वेतन वृद्धि का मामला हमेशा संवेदनशील रहा है। इसका एक कारण तो यह है कि सांसद को खुद अपना वेतन बढ़ाने के लिए मतदान करना पड़ता है। इसके कारण उन्हें मीडिया और अन्य लोगों की आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ता है।

अब तक उनके वेतन 7 बार बढ़ाए जा चुके हैं। पहली लोकसभा में उनका वेतन था 400 रुपए प्रतिमाह। यह 1952 में शुरू हुआ था। 1964 में इसे बढ़ाकर 5 सौ रुपए कर दिया गया। 1983 में यह बढ़कर 750 रुपए हुआ। 2006 में यह बढ़कर 16 हजार रुपए तक हो गया। 1952 में दैनिक भत्ता 21 रुपए था। 2006 में यह 1000 रुपए हो गया। सांसदों के पेंशन की शुरुआत 300 रुपए प्रति महीने से 1978 में हुई, जो 2006 में 8000 रुपए प्रति महीने हो गई।

राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल और सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों का वेतन जब बढ़ाया गया था, तो उस समय सांसदों का वेतन नहीं बढ़ाया गया था। इतना ही नहीं, कुछ राज्यों के विधायको के वेतन भी सांसदो की तुलना में ज्यादा हैं। इसलिए सांसदों के बीच अपने वेतन को लेकर असंतोष होना स्वाभाविक था।

और भी अनेक कारणों से सांसदों के वेतन बढ़ाने का उचित माना जा सकता है। दुनिया के अन्य देशों की तुलना में भारत के सांसदों के वेतन सबसे कम हैं। सवाल पूछने के बदले मे पैसा लेने जैसी घटनाओं के पीछे एक कारण सांसदों का कम वेतन भी है।

जब यह मामला संसद में उठा, तो मंत्रियों के बीच इस मसले पर दो तरह की राय उभर कर आए। जहां एक ओर आनंद शर्मा और कपिल सिब्बल जैसे नेता इसका समर्थन कर रहे थे, तो पी चिदंबरम जैसे अमीर नेता इसका विरोध कर रहे थे। उनका कहना था कि इस समय सासंदों का वेतन बढ़ने से लोगों के बीच गलत संदेश जाएगा, क्यांेकि लोग गरीबी से पहले से ही परेशान हैं।

अब जब उनका वेतन बढ़ रहा है, तो उनकी भी जिम्मेदारी बनती है कि वे अपना काम सही तरीके से करें। उन्हें संसद के सत्र के समय ज्यादा से ज्यादा समय सदन के अंदर बिताने चाहिए, लेकिन देखा जाता है कि अनेक बार सदन का कोरम तक पूरा नहीं रहता। उन्हें जनता से जुड़े मामले पर संसद में ज्यादा रुचि लेनी चाहिए और जनता के प्रति ज्यादा जवाबदेह होना चाहिए। (संवाद)