आखिर देश के कितने लोग हैं, जो परमाणु देयता विधेयक को समझते हैं? लोगों की बात तो छोड़ दीजिए अनेक सासंद भी इसे अच्छी तरह से नहीं समझते होंगे। पर पिछले 6 साल से प्रधानमंत्री के एजेंडे पर यह मसला सबसे ऊपर रहा है। वह तो पिछले साल अक्टूबर महीने में ही इस बिल को पारित करवाना चाहते थे, ताकि उसके बाद अमेरिका की हुई उनकी यात्रा में अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा में व्यापारिक सहयोग के समझौते हो पाते। लेकिन उस समय प्रधानमंत्री के सामने राज्य सभा में बहुमत की समस्या थी। इसलिए चाहते हुए भी वे ओबामा से मिलने के पहले वे यह विधेयक पारित नहीं कावा पाए।
कुछ दिनो के बाद ओबामा अब खुद भारत की यात्रा पर आ रहे हैं। मनमोहन सिंह इस बार तो ओबामा को निराश नहीं करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने इस विधेयक को पारित करवाने के लिए जबर्दरूत राजनैतिक पहल की। अगले नवंबर महीने में ओबामा की भारत यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री परमाणु मसले पर हकलाते दिखना नहीं चाहते थे, बल्कि वे चाहते हैं कि अमेरिका के साथ सामरिक सहयोग के रास्ते पर वे आगे बढ़ता दिखाई पड़ें।
अमेरिका के साथ भारत के तो परमाणु करार संपन्न हो चुके हैं, फिर इस परमाणु देयता कानून की जरूरत क्यों पड़ रही है? यह जरूरी है, क्योंकि किसी परमाणु संयत्र में दुर्घटना की स्थिति में देशी आपरेटर और विदेशी सप्लायर के ऊपर उस दुर्घटना की जिम्मदारी तय की जा सके और उनसे मुआवजा लिया जा सके। अमेरिका के साथ व्यापारिक परमाणु सौदा होने के पहल इस कानून बनना जरूरी है, अन्यथा दोनों देशों की सरकारों के बीच परमाणु करार होने के बाद भी दोनों के बीच व्यावसयायिक संबंध नहीं बन पाएगा।
भारत के पास पहले से इस तरह का कोई कानून नहीं है, इसलिए यह कानून बनाया जा रहा है। इस कानून के द्वारा विदेशी सप्लायर को विदेशी भूमि से भी कानून की गिरफ्त में लिया जा सकता है। भोपाल गेस हादसे के बाद उपयुक्त कानून नहीं होने के कारण भारत सरकार को किस तरह की शर्मिंदगी का सामना करना पड़ रहा है, उसे हम पहले से ही देख रहे हैं। इस तरह के कानून का वजूद विदेशी आपूर्त्तिकर्त्ता को जिम्मेदारी का ज्यादा अहसास कराएगा।
यह सच है कि कांग्रेस ने भाजपा को विधेयक का समर्थन करने को तैयार करने के लिए बहुत पापड़ बेले, लेकिन सच यह भी है कि मामला बार बार सरकारी पक्ष के कारण ही जटिल बन जाता था। सरकार विधेयक में कभी कोई शब्द डाल देती थी, तो कभी उसके मसौदे से कोई शब्द निकाल लेती थी। फिर भाजपा को अपना विपक्षी तेवर दिखाना पड़ता था। सच तो यह है कि भाजपा इस तरीके से लोगों तक यह संदेश पहुंचाना चाहती थी कि वह सरकार को अपनी इच्छा के अनुसार झुकाने में सक्षम है।
परमाणु मसले पर शुरू से ही भारत में विवाद रहा है। राजनैतिक वर्ग ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिकों के वर्ग में भी इस मसले पर मतभेद है। वामपंथी दल तो वैचारिक कारणो से इसका विरोध करते रहे हैं। कुछ पार्टियां ऐसी भी हैं, जो परमाणु ऊर्जा के उत्पादन के ही खिलाफ हैं। उनका कहना है कि परमाणु ऊर्जा भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने का सही विकल्प है ही नहीं। एक अन्य वर्ग है, जो परमाणु हथियारो के खिलाफ है और उसका कहना है कि इस तरह के परमाणु करारो से भी परमाणु हथियारों के कार्यक्रमों को परोक्ष रूप से बढ़ावा ही मिलता है।
भाजपा की खायिसत यह है कि वह भी कांग्रेस की तरह परमाणु ऊर्जा को बढ़ावा देना चाहती है। अमेरिका के साथ रिश्ता बढ़ाने की भी वह पक्षधर है। सच तो यह है कि अमेरिका के साथ परमाणु सहयोग की शुरुआत की कोशिशें भाजपा के अटल बिहारी की सरकार के समय ही हो चुकी थी। मनमोहन सिंह ने तो अस उसे आगे बढ़ाने का काम किया है।
अनेक मसलों पर भाजपा केन्द्र की सरकार का बढ़चढ़ कर विरोध करती रही है। महंगाई के मसले पर ही नहीं, कश्मीर के मसले पर भी वह केन्द्र सरकार के सामने खड़ी दिखाई पड़ रही है। वैसे माहौल में परमाणु मसले पर केन्द्र सरकार के साथ उसका हाथ मिलाना क्या केन्द्र सरकार के साथ मुख्य विपक्षी दल के सहयोग के दौर की शुरुआत तो नहीं? (संवाद)
भारत
परमाणु देयता विधेयक पर उठते सवाल
क्या कांग्रेस भाजपा के बीच सहयोग का दौर शुरू हो चुका है?
कल्याणी शंकर - 2010-08-27 11:11
क्या यह परमाणु ऊर्जा के प्रति प्रतिबद्धता है अथवा कोई राजनीति है जिसकी वजह से परमाणु देयता विधेयक कानून बनने जा रहा है? सरकार के पास लोकसभा में नाम का बहुमत है और राज्य सभा में यह अल्पमत में है। जाहिर है, उसे इस विधेयक को पारित करवाने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ रही थी। वैसे में उसे भाजपा के समर्थन की सख्त जरूरत थी।