जब लालू ने अपने बेटे को राजनीति में उतारा तो उनके दिमाग में दो बातें जरूर रही होंगी। पहली बात तो कि वे अपने बेटे को पाटी्र में अपना उत्तराधिकारी के रूप में पेश कर रहे हैं और दूसरा उनके बेटे के राजनीति में आने से उनकी पार्टी के युवा समर्थकों में नया जोश उभरेगा और उन्हें एक नेता मिल जाएगा।

जब कोई नेता अपनी पार्टी को अपना जेबी संगठन समझे और अपनी इच्छा के अनुसार उससे संबंधित निर्णय करने का लंबा रिकार्ड बना ले, तो वह जब चाहे किसी को भी अपना उत्तराधिकारी बना सकता है। इसलिए अब लालू पर कोई भी इसके लिए अंगुली नहीं उठाएगा कि उन्होंने अपने बेटे को अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी क्यों बनाया। वह पहले भी अपनी जबह अपनी पत्नी को बिहार की मुख्यमंत्री बना चुके हैं और उनकी पत्नी उनसे भी ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री के पद पर रही हैं। अपने दो सालों को भी वे विधायक और सांसद बना चुके हैं।

इसलिए वे अपने बेटे को भी राजनीति में लाकर उन्हें वहां स्ािापित करना चाहें, तो न तो किसी को आश्चर्य होगा और न ही अब कोई इसके लिए उनकी आलोचना करेगा। इसका एक कारण यह भी है कि वाम दलो को छोड़कर देश की सभी पार्टियां परिवारवाद को बढ़ावा दे रही हैं। भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी भी इसकी शिकार हो गई है। क्षेत्रीय पार्टियों में वंशवाद और परिवारवाद तो सबसे अश्लील रूप में अपना अपनी जगह बना चुका है।

अपने वंश की अगली पीढ़ी को राजनीति में औपचारिक रूप से उतारने के कुछ ही दिनों के अंदर युवाओं के आक्रोश को देखना लालू के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है। मुलायम सिंह यादव भी अपने बेटे को पार्टी में ला चुके हैं। उन्हें सांसद बना कर उन्हें बतौर अपना उत्तराधिकारी भी घोषित कर चुके हैं। अपने बेटे अखिलेश यादव को उन्होंने उत्तर प्रदेश की ईकाई का अध्यक्ष भी बना डाला है। लेकिन बेटे को राजनीति में लाने के बाद पार्टी के युवाओं द्वारा उनका वह स्वागत नहीं हुआ, जैसा लालू यादव का हुआ है।

आखिर लालू के साथ वैसा हुआ क्यों? वह नौबत आई ही क्यों कि पार्टी के युवाओं को पार्टी मुख्यालय के सामने ही उनका पुतला जलाना पड़ा? इसका जवाब ढूंढ़ना कठिन नहीं है। लालू के काम करने की शैली कभी भी उनकी पार्टी के कार्यकर्त्ताओं और नेताओं को पसंद नहीं रही है, लेकिन फिर भी वे उनकी साथ बने रहते थे, क्योंकि सत्ता उनके पास होती थी। उनके एक करीबी नेता जो अब इस दुनिया में नहीं रहे, कहा करते थे कि वे लालू के साथ मात्र इसलिए हैं, क्योंकि उनके साथ जनाधार है। सत्ता को जनाधार का नाम देना कहने का एक सुसंस्क्त तरीका था। सच तो यह है कि जनाधार के कारण लालू को सत्ता मिली हुई थी और सत्ता के कारण अनेक नेता और कार्यकर्त्ता बार बार अपमानित होने के बाद भी उनसे चिपके रहते थे।

लेकिन अब लालू के पास सत्ता नहीं रही। इसलिए उनसे अपमानित होने के बावजूद भी उनसे चिपके रहने की विवशता भी उन लोगों की नहीं रही। यही कारण है कि लोग एक एक कर उनको छोड़ते गए। उनके अपने दोनों सालों ने भी उन्हें छोड़ दिया, जबकि वे दोनों मात्र इसीलिए ही विधायक और सांसद बन पाए क्योंकि वे लालू के साले हैं। और भी अनेक लोगों ने उनका साथ छोड़ दिया है। जो थोड़े बहुत उनके साथ दिखाई पड़ रहे हैं वे भी उनसे छूटने को तैयार हैं। लालू के साथ अबतक बने जगदानंद सिंह अपने बेटे को किसी और पार्टी में एडजस्ट करने में लगे हुए हैं। उन्हें छोड़ देने वालों की एक लंबी लिस्ट बनाई जा सकती है।

ऐसे माहौल में युवाओं से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे लालू के साथ उसी तरह से चिपके रहें, जिस तरह से 1990 के दशक में कार्यकर्त्ता उनके साथ लगे रहते थे? पार्टी के अन्य नेताओं की तरह वे सत्ता के लिए लालू के साथ हैं। लालू अभी सरकार में नहीं हैं, लेकिन चुनाव के पहले पार्टी टिकट बांटने की सत्ता तो उनके पास है ही। युवा उनसे मिलकर चुनाव लड़ने का अपना दावा ठोंकना चाहते हैं, लेकिन लालू अपनी पुरानी शैली में अभी भी पुराने तरीके से ही उनके साथ पेश आते हैं। तो फिर उनके सब्र का बांध टूट जाता है और वे बगावत पर उतारु हो जाते हैं। फिर तो वे अपने नेता केा पुतला ही जलाने लगते हैं और अपनी ही पार्टी के उम्मीदवारों का हराने की कसमें खाने लगते हैं। जिस युवा नेता को उनका नेतृत्व करने के लिए लालू यादव ने कुछ दिन पहले ही राजनीति में प्रवेश दिलाया, वे पुतला दहन के दृश्य के आसपास दिखाई तक नहीं पड़ते।

1991 के लोकसभा चुनावों में अपने दम पर तब के अविभाजित बिहार की 54 में से 48 सीटों पर अपनी पसंद के उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित कराने वाले लालू यादव की आज यह स्थिति हो गई कि उनकी पार्टी कार्यालय में ही उनका पुतला जलाया जा रहा है और जलाने वालों को रोकने के लिए कोई नहीं आता। 1990 के दशक के शुरुआती सालों में जब पड़ोसी उत्तर प्रदेश राममय था, तो बिहार उस समय लालूमय था, लेकिन आज लालू की राजनैतिक औकात इतनी रह गई है कि उनकी पार्टी का कार्यकर्त्ता उनके दफ्तर में ही उनकी पसंद के उम्मीदवारों को हराने की कसमें चिल्ला चिल्लाकर खाता है।

अपनी इस स्थिति के लिए लालू खुद ही जिम्मेदार हैं। आज उनके पास जनाधार नहीं रहा, क्योंकि उन्होंने अपने जनाधार का सम्मान ही नहीं किया। कोई उनको चुनाव में क्यों वोट दे, इसका वे काई तर्कसंगत कारण तक नहीं बता सकते। अपने राजनैतिक अस्तित्व के लिए वे अपनी जाति के लोगों के समर्थन पर निर्भर रह गए हैं, लेकिन उनकी जाति के लोग ही उनको वोट क्यों दें, इसका भी कोई लोकतंत्र संगत जवाब वे नहीं दे सकते। वे मुसलमानों का मत भी चाहतें हैं, लेकिन मुसलमान उनको वोट क्यों दें? इसका भी उचित कारण वे नहीं बता सकते। यानी बिहार में मतदाताओं के किसी भी वर्ग से वोट मांगने का लोकतंत्र संगत कारण बताने की स्थिति में आज लालू यादव हैं ही नहीं। सिर्फ जाति और संप्रदाय के आधार पर वे चुनाव लड़ना और जीतना चाहते हैं, लेकिन उनकी अपनी जाति का मत उन्हें बिहार की सत्ता की दहलीज तक पहुचाने के लिए पर्याप्त नहीं है। रामविलास पासवान की जाति का मत पाने के लिए उन्होंने उनसे समझौता किया है, लेकिन दोनों जातियों का मत मिला भी दिया जाए, तब भी वह जीतते नहीं दिखाई देते। राजपूतों को भी उन्होंने जोड़ने की कोशिश की थी, लेकिन अपने ही इस हल्के बयान से उन्होंने अपनी उन कोशिशों को नाकाम कर दिया। उनके मुह से निकल गया कि बिहार में मुख्यमंत्री ऊंची जाति का अब हो ही नहीं सकता। वैसी स्थिति पैदा करने का श्रेय भी उन्होंने खुद ही ले लिया। फिर तो नीतीश से नाराज हो रहे अगड़ी जातियों के मतों को अपने पक्ष में करने का उनका प्लान ही चौपट हो गया है।

जाहिर है, दो बार विधानसभा आमचुनाव में और एक बार लोकसभा चुनाव में हारने के बाद अब चौथी बार लालू हार की दहलीज पर खड़े हैं। उनके साथ जुड़े लोगों में अजीब किस्म की बेचैनी है। वे उनसे जो भी हासिल कर सकते हैं अभी ही हासिल करना चाहते हैं। इंतजार करने के लिए उनके पास धैर्य नहीं है। वे उनको छोड़ रहे हैं और किसी जगह को छोड़ते समय उस जगह को जलाना कुछ जनजातियों की परंपरा रही है। उनका पुतला दहन इसी पृष्ठ भूमि में देखा जाना चाहिए। (संवाद)