प्रधानमंत्री ने लोकसभा में घोषणा भी कर दी कि जाति जनगणना पर निर्णय लेते हुए लोकसभा की भावना का ख्याल रखा जाएगा। भावना जाति जनगणना के पक्ष में थी, इसलिए प्रधानमंत्री की उस घोषणा का मतलब यही था कि सरकार जाति जनगणना करवाएगी।

लेकिन उसके बाद केन्द्र सरकार पर दूसरी तरह का दबाव पड़ने लगा। देश का सत्ता प्रतिष्ठान जाति जनगणना करवाने के खिलाफ रहा है। उस दिन लोकसभा में घोषणा करने के पहले न तो प्रधानमंत्री ने और न ही सोनिया गांधी ने अपने सत्ता प्रतिष्ठान की इस मसले पर सलाह मांगने की जरूरत समझी थी, हालांकि गृहमंत्री पी चिदंबरम जनगणना पर लोकसभा में दिए गए अपने भाषण में जाति जनगणना का विरोध कर चुके थे, लेकिन लगता है कि प्रणानमंत्री और सोनिया गांधी को श्री चिदंबरम का वह बयान उनका निजी मत लगा और उन्होंने विपक्षी नेताओं को अनौपचारिक रूप से यह कह दिया कि जाति जनगणना करवा ली जाएगी और बाद में लोकसभा की भावना का ख्याल रखते हुए अस मसले पर निर्णय करने की बात कहकर एक तरह से इस पर औपचारिक मुहर भी लगा दी।

पर बाद में कांग्रेस अध्यक्ष सानिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अहसास हुआ कि उन्होंने कुछ वैसा करने का वादा कर दिया है जिसके लिए देश का सत्ता प्रतिष्ठान तैयार ही नहीं है। वहीं से सरकार का असमंजस शुरू हो गया। जो लोग जाति जनगणना की मांग कर रहे थे, उन्हें भी यह लगने लगा कि कहीं सरकार अपने वायदे से पीछे न हट जाए। सरकार शायद पीछे हट नहीं सकती थी, क्योंकि वैसा करने पर उसके अस्थिर हो जाने का खतरा था। यूपीए के अपने सांसदों की संख्या लोकसभा में पूर्ण बहुमत से कुछ कम है और राज्य सभा में तो यह स्पष्ट रूप से अल्पमत में है। यूपीए के अंदर सरकार ममता बनर्जी पर ज्यादा यकीन नहीं कर सकती है, इसलिए किसी आपात् स्थिति में उसे लालू और मुलायम के समर्थन की जरूरत पड़ सकती है। उसी मजबूरी के तहत मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और प्रणब मुखर्जी ने शरद, लालू और मुलायम को जाति जनगणना कराने का भरोसा दिलाया था। यदि सरकार अपने वायदे से मुड़ती तो उसके गिरने का ही खतरा पैदा हो जाता।

यही कारण है कि सरकार अपने वायदे से पीछे हटने के पहले बहुत बार सोचती। और उसने सोचने का काम किया भी। उसने जाति जनगणना से पीछा छुड़ाने की भरसक कोशिश की। मामले को मंत्रियों के समूह के जिम्मे कर दिया गया। उस समूह ने बहुत दिनों तक कोई बैठक ही नहीं की और बैठक करने के बाद मामले को टालने के लिए सभी पार्टियों को चिट्ठी लिखकर उनकी राय मांगनी शुरू कर दी, जबकि सभी पार्टियों की राय का उसे लोकसभा में बहस के दौरान ही पता चल गया था। पर सरकार अब जाति जनगणना को किसी तरह से टालना चाह रही थी। लेकिन जाति जनगणना के समर्थक नेता इस पर लगातार दबाव बना रहे थे। उनके दुर्भाग्य से जाति जनगणना का पहला दौर उसी समय शुरू हो गया था, जब वे संसद में इसमें जाति को शामिल करने की मांग कर रहे थे। जाहिर है कि सरकार के पास समय बहुत कम था, लेकिन फिर भी वह इस मसले पर निर्णय लेने में लगातार देरी कर रही थी। अंत में उसने बायोमेट्रिक फेज में जाति को जानने का निर्णय किया। पर शरद यादव ने उस लोकसभा में उसका विरोध करना प्रारंभ कर दिया और देखते देखते पूरा विपक्ष बायोमेट्रिक फेज में जाति की पहचान करने के निर्णय का विरोध करना प्रारंभ कर दिया। फिर तो सरकार को कहना पड़ा कि सरकार ने अभी यह तय ही नहीं किया है कि किस तरह से गणना करवाई जाए और इसका फैसला मंत्रिमंडल की बैठक में किया जाएगा।

अब मंत्रिमंडल ने फैसला कर लिया है। जो जनगणना अभी हो रही है, उसमें जाति का कॉलम डालने का निर्णय नहीं किया गया है, क्योंकि जो मशीनरी जारी जनगणना में लगी हुई थी, वह इसमें जाति शामिल करने का जबर्दस्त विरोध कर रही थी। गृहमंत्री पी चिदंबरम उस मशीनरी के साथ थे। इसलिए अंत में यह फैसला हुआ कि जारी जनगणना में तो जाति को शामिल नहीं किया, बल्कि सरकार द्वारा की गई घोषणाओं को ध्यान में रखते हुए एक अलग से जाति जनगणना करवा दी जाए। और अब वह जाति जनगणना अगले साल जून से सितंबर महीने के बीच होगी। जो लोग जाति जनगणना का विरोध कर रहे हैं उनकी भावनाओं का ख्याल रखते हुए यह भी निर्णय लिया गया है कि किसी को जाति बताने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा, बल्कि यदि कोई अपनी जाति नहीं बताना चाहता है और कहता है कि उसकी कोई जाति नहीं है, तो उसके नाम के सामने जातिविहीन लिख दिया जाएगा।

केन्द्र सरकार का यह फैसला अपने आप में नया इसलिए है कि अब देश की सौ फीसदी आबादी जाति जनगणना के दायरे में आ जाएगी। आजादी के बाद सिर्फ अनुसूचित जाति के लोगों की जातियों और अनुसूचित जनजाति की जनजातियों के बारे में आंकड़ा इकट्ठा किया जाता था। 2001 की जनगणना की बात करें तो देश की कुल आबादी की लगभग 24 फीसदी जाति जनगणना के दायरे में आया था। उनकी जाति अथवा जनजाति पूछकर उसे रिकार्ड किया गया था। अब देश के सभी लोगों की जाति पूछकर उसे सरकार के रिकार्ड में शामिल किया जाएगा। यानी आजाद भारत के लिए जाति जनगणना कोई नई बात नहीं होगी, बल्कि नई बात यह होगी कि इसके दायरे में देश की सारी आबादी आ जाएगी।

यह जनगणना देश के लिए निश्चय ही एक बड़ी घटना होगी। इसके कारण देश की राजनीति भी प्रभावित हो सकती है, क्योकि जाति विभाजित समाज की जाति चेतना को यह और भी बढ़ाने का काम करेगी। जिन जातियों के लोगांे की संख्या अधिक पर राजनीति में उनका प्रतिनिधित्व कम है, वे अपनी जाति को ज्यादा प्रतिनिधित्व देने की मांग करने लगेंगे और राजनैतिक पार्टियों को उनकी मांग के सामने झुकना भी पड़ सकता है। जातियों के बीच आपसी गंठजोड़ भी हो सकता है। नए नए जातीय समीकरण अस्तित्व में आ सकता है। राजनीति तो अभी भी जाति से ही संचालित होती है, लेकिन जातीय जनगणना के बाद वर्तमान जाति समीकरण बदल भी सकता है।

जाति जनगणना का विरोध कर रहे लोगों का एक डर पिछड़े वर्गों की बड़ी संख्या को लेकर भी है। उन्हें लगता है कि पिछडे़ वर्गों के लोग अपनी जनसंख्या का अहसास कर नई जातीय चेतना के तहत सत्ता पर काबिज भी हो सकते हैं, लेकिन उनका यह डर गलत है। पिछड़े वर्गो में भी सैंकड़ों जातियां है और उनमें आपसी टकराव भी है। इसलिए उनके आपसी विरोधाभासों का लाभ मायावती जैसी दलित नेता को भी मिल सकता है और कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों को भी, जो राजनीति में जाति के इस्तेमाल के बावजूद जाति की पार्टी का रुतबा नहीं पा सके हैं। इसलिए जाति जनगणना के बाद किसी जाति क्रांति का भय गलत है। हांण् कम आबादी वाली जातियां अपने पेशों अथवा किसी अन्य प्रकार की समानता का तत्व ढूंढ़कर आपस में जुड़ सकते हैंख् जिससे जातियों की संख्या में कमी आ सकती है और इस तरह से जाति के टूटने का अधार तैयार हो सकता है। (संवाद)