कश्मीर की ताजा समस्या को हल करने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सभी पार्टियों को इस प्रयास में शामिल करना प्रारंभ किया है। यह बहुत ही अच्छी रणनीति है। इससे लगने लगा है कि केन्द्र समस्या के समाधान के लिए उन उग्रवादियों तक भी पहुंचना चाहता है, जो समस्या के मूल में हैं, बशर्ते कि वे उग्रवादी बातचीत के लिए तैयार हो जाएं। सभी लोग इस बात को मान रहे हैं कि बातचीत से ही समस्या का हल निकल सकते है, लेकिन उनके राजनैतिक दृष्टिकोण अलग अलग हैं। सर्वदलीय बातचीत का एक फायदा तो यह हुआ है कि अब सभी दलों के नेता घाटी में एक शिष्टमंडल बनाकर जाएंगे और वहां के लोगों के साथ सीधा संवाद के सकेंगे। इससे उन्हे समस्या के बारे में साफ साफ समझ विकसित हो सकेगी। जबतक राज्य और केन्द्र की सभी राजनैतिक पार्टियां अपने छोटे छोटे राजनैतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर इस समस्या पर एक मत होकर कोई कड़ा राजनैतिक निर्णय नहीं लेती, इसका समाधान नहीं हाने वाला है। सुरक्षा पर बनी मंत्रिमंडलीय समूह का यह मानना था कि कश्मीर के वर्तमान हालात के पीछे विश्वास की कमी के साथ साथ प्रशासन की विफलता भी जिम्मेदार है। इसलिए इस दोनों पर खास ध्यान दिए जाने की जरूरत है। उमर अब्दुल्ला आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल एक्ट को समाप्त करने की मांग कर रहे हैं, लेकिन उस मामले पर सर्वसम्मति होने तक उसे फिलहाल टाल दिया गया है।
हालांकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जम्मू और कश्मीर समस्या के हल करने का सपना पाल रहे हैं, लेकिन उस दिशा में कोई प्रगति ही नहीं हो रही है। उन्होंने अबतक 3 बार गोलमेज बैठक आयोजित की है और अबतक 5 कार्यसमूहों का उसके लिए गठन किया है। लेकिन इस सबका परिणाम कुछ भी नहीं निकला है। कार्यसमूहों ने क्या रिपोर्ट दी, इसके बारे में कुछ भी जानकारी नहीं है। प्रधानमंत्री खुद 6 बार कश्मीर घाटी की यात्रा कर चुके हैं, लेकिन उसका भी कोई नतीजा नहीं निकला है।
यदि पिछले विधानसभा चुनाव में लोगांे की ज्यादा भागीदारी को केन्द्र और राज्य सरकारों ने कश्मीरियों के मूड में बदलाव का संकेत मान लिया था, तो वे अब गलत साबित हो चुके हैं। सच तो यह है कि आज जो वहां देखा जा रहा है, उसकी चिनगारी पहले से ही वहां थी, जो दिखाई नहीं पड़ रही थी। अनेक कारणो से उस चिनगारी को हवा मिली। एक कारण तो दो साल का उमर फारूक का कार्यकाल ही है। उनके खराब प्रशासन के कारण लोगों का उनसे मोहभंग हुआ है। युवाओं को शिक्षा और काम चाहिए, लेकिन उनकी कमी के कारण उनमें हताशा का माहौल छा गया है। नई पीढ़ी सुरक्षा बलों की उपस्थिति को वहां पसंद नहीं कर रही है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि मुख्यमंत्री उमर पूरी तरह नकारा साबित हुए हैं। प्रशासन का सही तंत्र विकसित करने में वे विफल साबित हुए हैं। उनकी अपनी पार्टी के लोग भी उनसे नाराज हैं। उनकी अकर्मण्यता के कारण अलगावादियों को अपना खेल खेलने का मौका मिल गया है। काम करने का उनका तरीका उनके खराब प्रशासन के लिए जिम्मेदार है। वे सप्ताह का अंतिम दिन दिल्ली आकर बिताना पसंद करते हैं। सलाहकारों की उनकी पसंद भी इस असंतोष का एक कारण है। यही कारण है कि आज उमर अब्दुल्ला कश्मीर की ताजा समस्या के खलनायक माने जा रहे हैं। कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस पार्टी के रूप में वहां विफल रही है। उसके कारण आल इंडिया हुरियत कान्फ्रंेस को फिर से अपने आपको चुस्त दुरुस्त करने का मौका मिल गया है। पिछले कई दशकों से पाकिस्तान कश्मीर में उग्रवाद को बढ़ावा दे रहा है, ताकि वह इसे भारत से अलग कर सके। आज वह कश्मीर का हाल देखकर खुश होगा।
आखिर कश्मी के ताजा संकट का हल क्या है? अनेक विकल्पों पर बात हो रही है। पहला विकल्प तो यह है कि फारूक अब्दुल्ला को फिर से मुख्यमंत्री बना दिया जाए। इसका मतलब होगा उमर की राजनीति पर ग्रहण लग जाना। दूसरा विकल्प नेशनल कान्फ्रंेस द्वारा कोई और नेता चुन लिया जाना है, जिसकी संभावना नहीं के बराबर है, क्योंकि पार्टी में वैसा कोई नेता ही नहीं है। तीसरा विकल्प कांग्रेस का मुख्यमंत्री हो सकता है। पर कांग्रेस की इसमें दिलचस्पी नहीं है। चौथा विकल्प कांग्रेस द्वारा एक बार फिर पीडीपी के साथ हाथ मिलाना है, लेकिन इसके लिए संख्या जुटाना शायद मुश्किल हो जाए। अंतिम विकल्प वहां राज्यपाल का शासन हो सकता है, लेकिन इसके लिए भी केन्द्र सरकार तैयार नहीं है। इसलिए फिलहाल वह उमर पर ही दाव लगाएगा। लंकिन क्या इससे वहां स्थिति संभल पाएगी? (संवाद)
उमर से सरकार नहीं संभल रही है
उग्रवादी हावी होते जा रहे हैं
कल्याणी शंकर - 2010-09-17 13:32
जब उमर अब्दुल्ला ने पिछले विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी, तो उसे समय कश्मीर को लेकर आशा का माहौल था। विधानसभा चुनाव में भारी संख्या मंे लोगों ने हिस्सा लिया था। तब लग रहा था कि युवा मुख्यमंत्री राज्य में शांति बनाने और विकास की गति को आगे बढ़ाने में सफल हो जाएंगे। लेकिन पिछले जून से जो कुछ भी वहां हो रहा है, वह अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। कहने की जरूरत नहीं कि वह संकट सरकार की विफलता के कारण पैदा हुआ है।