लेकिन आज एक के बाद एक हमारे नेताओं पर नाराज जनता द्वारा जूते फेंके जा रहे हैं और हमारे नेता निर्लज्जता की हद तक मोटी चमड़ी वाला चरित्र ही प्रदर्शित कर रहे हैं। जूते वर्तमान प्रधान मंत्री और कांग्रेस नेता डॉ मनमोहन सिंह, विपक्ष के नेता और प्रधान मंत्री पद के लिए दावेदार भाजपा के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी और गृह मंत्री पी चिदम्बरम पर फेंके गये। श्री आडवाणी पर तो दोबारा जूता फेंका गया। गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी तो डर के मारे जाल के पीछे खड़े होकर भाषण कर रहे हैं।

इन जूते फेंकने की इन घटनाओं पर अभी प्रतिक्रियाएं ही व्यक्त की गयी हैं। लेकिन इन घटनाओं का मर्म समझने की कोशिश ही नहीं की जा रही जो जूते फेंकने की घटना से भी ज्याद खतरनाक बात है। प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह पर जब रविवार के जूता फेंका गया तो जो प्रतिक्रियाएं सामने आयीं वे इस बात की सुबूत हैं कि घटना को समझने में किसी की कोई दिलचस्पी नहीं है।

उदाहरण के लिए, डॉ सिंह ने जूता फेंकने वाले को माफ कर देने की घोषणा की। कांग्रेस ने कहा कि इसके लिए राज्य सरकार (इस मामले में गुजरात की नरेन्द्र मोदी की नेतृत्व वाली भाजपा सरकार) दोषी है। प्रधान मंत्री से कोई यह पूछे कि परपीड़क ही पीड़ित को माफ करने का दंभ भरेगा ? माफ करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है यह अधिकार तो जनता का है कि उसने उनके शासनकाल के काले कारनामों और जनविरोधी कदमों के बावजूद उन्हें और उनकी सरकार को माफ कर दिया, सिर्फ एक नौजवान को छोड़कर जो आपको माफ न कर सका और जूता फेंक दिया। फिर कांग्रेस से पूछा जाना चाहिए कि यदि इस घटना में राज्य सरकार दोषी है तो दिल्ली में उनकी पार्टी के नेता और गृहमंत्री पर जूता फेंकने की घटना में दिल्ली और नई दिल्ली को भी इसी तर्ज पर दोषी माना जाये? जाहिर है कि जवाब में ही खोट है।

भगवान बुद्ध ने तो अपने मूंह पर थूकने वाले के बारे में कहा था कि संभवत: उनसे कोई ऐसा कार्य अनजाने में हो गया होगा जिससे उस व्यक्ति को भारी पीड़ा हुई होगी। उस व्यक्ति के पास विरोध करने का और कोई साधन नहीं था, इसलिए उसने सिर्फ थूककर ही उसे अभिव्यक्त किया।

बुद्धिमानी की बात तो सिर्फ बुद्ध ही कर सकते थे। वे जानते थे कि निर्धनतम और निरीह व्यक्ति के पास हमला करने के लिए सिर्फ थूक ही बचा था।

इस बात को समझना होगा। क्योंकि आज विरोध करने वाला हर आदमी साधनहीन नहीं है। जिनके पास गोली है वे गोलियां बरसा रहे हैं। जिनके पास गोले हैं वे गोले दाग रहे हैं , विस्फोट कर रहे हैं। जिनके पास जूते-चप्पल हैं वे जूते-चप्पल फेंक रहे हैं और वह दिन दूर नहीं जब रोड़े पत्थर भी फेंके जाने लगेंगे।

पुलिसिया कार्रवाई की प्रभावशालिता की एक सीमा है। सिर्फ पुलिस के बल पर इस तरह की गतिविधियों को नहीं रोका जा सकता है। यदि हमारे नेता अपना चरित्र नहीं सुधारते और जनता से प्रेम नहीं करते तो इस तरह के उपद्रव की संभावनाएं बनी रहेंगी। जनता को दोहन की वस्तु न समझा जाये तो बेहतर होगा। जन-पीड़ा फैलाकर सत्ता, धन और सुख के लिए हमारे अधिकांश नेता आज किसी भी हद तक गिरने वाली छवि के स्वामी बन गये हैं।

आश्चर्य यह कि हमारे नेताओं ने जो प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं उनमें उनका आत्मचिंतन नहीं दिखता और उन्हें अपने में कोई दोष नहीं दिखायी देता। सारा दोष विरोध करने वालों का बताया जा रहा है। अर्थात जतो दोष नंद घोष।

जूता फेंकने की घटनाएं नि:संदेह निंदनीय हैं, लेकिन किसी को जूता उठाने की हद तक धकेलना भी नेताओं की बुद्धिमानी नहीं मानी जायेगी।

सम्पूर्ण स्थिति पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है, विशेषकर आत्मचिंतन की। जूते फेंकने की घटनाओं को सामान्य घटनाएं नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि जिन्होंने जूते फेंके वे लफंगे, बदमाश और अपराधकर्मी नहीं थे। उन्होंने विरोधी राजनीतिक दलों से धन लेकर ऐसा नहीं किया बल्कि उन्हें लगा कि अत्याचार, अन्याय और दुर्दशा के पुरोधाओं का विरोध करने का वही अंतिम हथियार उनके पास था। वे गलत थे, लेकिन उनकी समझ ही उतनी थी।

फिर भी आम जनता को इस तरह का रुख अख्तियार नहीं करना चाहिए क्योंकि उनके पास मतदान का अधिकार है। वे बड़ी से बड़ी संख्या में गलत नेताओं के खिलाफ वोट डालकर हरा सकते हैं। हताशा में वोट डालने ही नहीं जाना ठीक नहीं। इस बार के चुनाव की सबसे बड़ी चिंता यही है कि मतदान काफी कम हो गया और जूते फेंकने की घटनाएं लगातार हो रही हैं। #