कश्मीर की ताजा समस्या के लिए मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की अनुभवहीनता को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है और कहा जा रहा है कि उनका काम करने का तरीका गलत है और वे लोगों के साथ जुड़ने में विफल रहे हैं। इसके कारण उनको हटाकर उनकी जगह उनके पिता फारुक अब्दुल्ला को फिर से राज्य के मुख्यमंत्री के पद पर बैठाने का प्रस्ताव भी आ चुका था, लेकिन उमर अब्दुल्ला ने अपना पद छोड़ने मे दिलचस्पी नहीं दिखाई और अपने समर्थन में ंरंाहुल गांधी तक को मैदान मे उतार दिया।

गौरतलब है कि राहुल गांधी के सक्रिय सहयोग के कारण ही उमर जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री बन सके थे। उस समय फारुक अब्दुल्ला खुद भी मुख्यमंत्री बनना चाह रहे थे, लेकिन राहुल ब्रिगेड के कारण अंत में उमर अपने पिता पर भारी पड़ गए और प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए। जाहिर है उनका अपने पद से हटना राहुल गांधी के युवा ब्रिगेड पर एक विपरीत टिप्पणी होती और इससे श्री गांधी की प्रतिष्ठा को भी ठेंस पहुंचती। लिहाजा राहुल उमर के पक्ष में मजबूती से खड़े हो गए और उन्होंने यहां तक कह डाला कि कश्मीर की समस्या कोई अंशकालीन समस्या नहीं है, बल्कि यह एक दीर्धकालीन समस्या है।

यानी राहुल गांधी कहना चाह रहे थे कि इस समस्या को लंबे समय तक खिंचना है। किसी को मुख्यमंत्री पद से हटाकर किसी और को मुख्यमंत्री पर बैठा देने से इसका कोई हल निकलने वाला नहीं है। उनका कहना गलत भी नहीं है, क्योंकि इस समस्या के अंतरराष्ट्रीय आयाम हैं और वहां हिंसा में तेजी अथवा कमी सिर्फ लोकल कारणो से नहीं, बल्कि राज्य के बाहर के कारणो से भी होती है। अभी हाल मे जो हिंसा बढ़ी है, उसके पीछे भारत और पाकिस्तान के बीच चल रही बातचीत मुख्य रूप से जिम्मेदार है न कि उमर अब्दुल्ला का मुख्यमंत्री पद पर बैठा होना।

दरअसल पाकिस्तान के साथ बातचीत के मसले पर भारत सरकार दबाव में दिखाई पड़ रही है। मुंबई में हुए आतंकी हमले के बाद भारत ने साफ साफ कहा था कि जबतक पाकिस्तान हमले मे २शामिल आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करता, वह उससे बातचीत नहीं करेगा। पर भारत अपने उस बयान से पीछे हट गया है। मुंबई के आतंकी हमले के दोषियों के खिलाफ की जा रही उसकी कार्रवाई कोई संतोषजनक नहीं है। भारत सरकार खुद उस पर असंतोष जाहिर कर रही है, लेकिन उसके बावजूद उसने पाकिस्तान से बातचीत प्रारंभ कर दी है।

कहने की जरूरत नहीं कि पाकिस्तान से बातचीत भारत अपनी मर्जी से नहीं कर रहा है, बल्कि वह अमेरिकी दबाव में कर रहा है। अमेरिका चाहता है कि पाकिस्तान अपनी सेना को भारतीय सीमा से हटाकर अफगानिस्तान की सीमा पर ज्यादा से ज्यादा तैनात करे। पाकिस्तान भारतीय खतरे का राग अलापकर वैसा करने से मना कर रहा है। अमेरिका को लगता है कि पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्ते शांतिपूर्ण होने चाहिए और ऐसा होने के लिए दोनों के बीच संवाद कायम रहनी चाहिए। यही कारण है कि वह भारत को पाकिस्तान के साथ निरंतर बातचीत करते देखना चाहता है।

यानी भारत नहीं चाहते हुए भी यदि पाकिस्तान के साथ बातचीत कर रहा है, तो उसका कारण अमेरिका की अफगानिस्तान में कमजोरी है। अफगानिस्तान के साथ भारत के हित भी जुड़े हुए हैं। अमेरिकी सैनिकों के अभियान का वहां सफल होना भारत के हित में भी है, क्योंकि तालिबान की वापसी भारत के लिए भी अपशकुन साबित होगी। यही कारण है कि अमेरिका को अफगानिस्तान में पाकिस्तान की मदद मिले यह भारत भी चाह रहा है और इसके कारण वह पाकिस्तान से बातचीत करने को तैयार है।

पर कश्मीर के अलगाववादियों के बीच इसका गलत संकेत जा रहा है। वे समझ रहे हैं कि अब भारत दबाव में है। उन्हें यह भी लग रहा है कि हिंसा फैलाकर पाकिस्तान के साथ बातचीत में भारत का पक्ष कमजोर कर देंगे। जून के बाद कश्मीर घाटी में हिंसा में आई तेजी की पृष्ठ भूमि यही हैं। इसके अलावा महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी की अपनी राजनीति भी इस आग में घी का काम रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव के पहले राज्य में पीडीपी और कांग्रेस की मिलीजुली सरकार थी। पहले 3 साल तक मुफ्ती मुहम्मद सईद मुख्यमंत्री थे और अंतिम 3 साल में कांग्रेस गुलाम नबी आजाद मुख्यमंत्री रहे थे। मिलीजुली सरकार के अंतिम दिनों में मुफ्ती मुहम्मद ने आजाद सरकार से समर्थन वापस ले लिया था।

विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस ने नेशनल कान्फ्रेंस के साथ सरकार बनाई। कांग्रेस का साथ छूटने का गम पीडीपी नेताओं को है, क्योंकि साथ रहने पर शायद एक बार फिर मुफ्ती मुख्यमंत्री बन जाते। कश्मीर की अशांति के बीच पीडीपी और कांग्रेस की मिलीजुली सरकार का एक विक्ल्प भी चर्चा का विषय बना था। पीडीपी के नेता कहते रहे हैं कि कश्मीर की ताजा हिंसा में उनका कोर्इ्र हाथ नहीं है, लेकिन उसका एक जोनल अध्यक्ष सेना की गोलीबारी में मारा गया। पीडीपी का वह नेता हिंसक गतिविधियों में लिप्त भीड़ का नेतृत्व कर रहा था और सेना द्वारा की गई गोलीबारी में घायल होकर अस्पताल आया, जहां उसने दम तोड़ दिया। उसका शामिल होना यह साबित करता है कि पीडीपी भी हिंसा के पीछे सक्रिय है।

उमर अब्दुल्ला को नहीं हटाकर कांग्रेस एनसीपी गठबंधन ने सही निर्णय लिया है। इस मौके पर अलगाववादियों को जश्न मनाने का कोई मौका नहीं देना चाहिए। सेना को मिले कानूनी अधिकारो में कटौती करने की बात नहीं मानकर भी सही निर्णय किया गया है, क्योंकि वहां जो हालात उभर रहे हैं, उसमें सेना को और मजबूत किए जाने की जरूरत है, न कि कमजोर किए जाने की। यह सच है कि कश्मीर की आबादी का बहुसंख्यक शांति चाहता है। अलगाववादियों की संख्या बहुत ही कम है, लेकिन यदि वहां के लोग अलगाववादियों का मजबूत होता देखेंगे, तो वे उनके पीछे चलते भी दिखाई पड़ सकते है।

अच्छा होता यदि सर्वदलीय शिष्टमंडल में पीडीपी भी होती, लेकिन पीडीपी ने शायद इसलिए अपने पांव वापस खींच लिए, क्योंकि हिंसा में उसकी संलिप्तता का मामला सामने आ गया है। अलगाववादी नेता भी शिष्टमंडल से मिलने से कतरा रहे हैं। वे बदल जाएंगे, इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती। इसलिए यदि लोगों को यह संकेत देने में शिष्टमंडल सफल रहा कि हिंसा के द्वारा अलगाववादी कुछ भी हासिल नहीं कर पाएंगे, तो यह एक उपलब्धि होगी। ( संवाद )