इस बातचीत के बाद कनाडा की पहले से नियत खिलाड़ियों और अधिकारियों का दल भारत के लिए रवाना हो गया। आप यदि दो दिनों पहले तक कनाडा के उच्चायोग, वहां के अधिकारियों की सख्त अलोचनात्मक भाषा को याद करेंगे तो दोनों में कोई साम्य ही नहीं दिखेगा। राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों की कटु आलोचना से पलटते हुए अचानक भरोसे की भाषा बोलने वाला कनाडा अकेला देश नहीं है। भाषा बदलने वाले देशों की संख्या तेजी से बढ़ गई है। दक्षिण अफी्रका के भारत स्थित उच्चायुक्त एच. एम. माजेके ने टेनिस स्टेडियम से सांप निकलने से लेकर आवास व्यवस्था तक की तीखी आलोचना की, कथित गंदगी का जुगुप्सापूर्ण वर्णन किया एवं अपने खिलाड़ियों की सुरक्षा के प्रति गंभीर चिंता प्रकट की। दूसरे ही दिन उनका बयान आया कि भारत के अधिकारियों एवं कर्मचारियों ने कड़ी मशक्कत से महान कार्य किया है और जो बचा वे तेजी से पूरा कर रहे हैं।

ये दो बदले वक्तव्ये तो केवल उदाहरण मात्र हैं। भारत और राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर विेदेशी अधिकारियों एवं राजनयिकों के बदलते सुर को देख-सुनकर किसी को आश्चर्य हो सकता है। किंतु इसमें आश्चर्य का कोई पहलू नहीं है। इसे समझने के लिए वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा द्वारा पिछले 25 सितंबर को कनाडा की राजधानी में दिए गए बयान को याद करना होगा। उन्हांेने बिल्कुल सख्त लहजे में कहा कि भारत के साथ सम्मानजनक बर्ताव न करना भूल होगी। इससे उन देशों को नुकसान उठाना पड़ेगा। उन्होंने नेताओं अधिकारियों के साथ पश्चिमी मीडिया पर भी यह कहते हुए जवाबी हमला किया कि भारत एक उभरती हुई शक्ति एवं विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। एक देश को पुरानी, सड़ी-गली तस्वीरों से नीचा दिखाना हमें कतई स्वीकार्य नहीं है। ध्यान रखने की बात है कि कनाडा में अपनाए गए इस कड़े रुख के कुछ ही घंटों बाद वहां के खेल मंत्री का फोन आ गया। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि ऐसी चेतावनी भरा लहजा अपनाने वाले आनंद शर्मा सरकार के अकेले प्रतिनिधि होंगे। हमने देखा है कि स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 24 सितंबर को खेल संबंधी मंत्रिमलीय समिति से लेकर, संबंधित अधिकारियों के साथ लंबी बैठक की और कैबिनेट सचिव ने उसके बाद का जिम्मा संभाला। दूसरी ओर विदेश मंत्रालय भी संबंधित देशों के राजनयिकों एवं नेताआंे के साथ संवाद बनाने में लग गया।

साफ है कि प्रधानमंत्री की पहल के साथ सरकार ने आलोचनाओं का सख्ती से खंडन करने तथा विदेशियों के साथ उन्हीं की भाषा में जवाब देने की रणनीति अपनाई। प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हरीश खरे ने इन खबरों का खंडन किया कि उन्होंने आयोजन समिति से लेकर खेल आयोजन के प्रबंधन में लगे अपने मंत्रियों को लताड़ लगाई। इसके उलट खरे ने कहा कि प्रधानमंत्री ने तो उनके परिश्रम एवं उत्कृष्ट कार्यो की सराहना की। जाहिर है, इसके माध्यम से भारत के अंदर एवं बाहर यह संदेश दिया गया कि तैयारी में फिसड्डी रहने की जो श्रृंखलाबद्ध खबरें चल रहीं हैं, बयानों का सिलसिला जारी है, और आयोजन समिति एवं संबंधित पदाधिकारियों ने जिस तरह रक्षात्मक या क्षमायाचक मुद्रा अपनाया हुआ है उसे बदल दिया जाए। यह आक्रमण सबसे बेहतर रक्षा है की नीति है। इसका असर साफ तौर पर दिखा है। आप देखिए राष्ट्रमंडल खेल परिसंघ के अध्यक्ष माइकल फेनेल, जिन्हें मीडिया इसलिए घेरती थी कि वे कहीं न कहीं से पेंदी में एक छेद दिखा ही देंगे, ने कहा कि वे भारत को कतई नीचा दिखाना नहीं चाहते और सब काम तेजी से हो रहा है तथा उम्मीद है कि पूरा हो जाएगा। हां, यदि पहले सब कुछ हो गया होता तो अच्छा होता। परिसंघ के मुख्य कार्यकारी माईक हूपर के बयान में पहले केवल तैयारियों की ही नहीं, दिल्ली की बेतरतीव आबादी की भी आलोचना थी, पर बाद में उनकी सफाई आई कि ऐसा उन्होंने कहा ही नहीं। फेनेल स्वयं उनके बचाव में यह कहते हुए आए कि जिस बैठक का जिक्र मीडिया मंे हो रहा है उसमें वे स्वयं थे और ऐसा कुछ उन्होंने नहीं कहा जो भारत देश या यहां के नागरिकों के खिलाफ हो। तो यह सरकार के तेवरों का असर है। आखिर माइकेल फेनेल ने 26 सितंबर को प्रधानमंत्री से मिलने की कोशिश की, लेकिन उनको टका सा जवाब मिला एवं कैबिनेट सचिव से मिलने के लिए कहा गया। कैबिनेट सचिव से उनकी बैठक हुई और उसके बाद उनके हाव-भाव और बयान हमारे सामने है। अब तो कई देशों का दल यह बयान दे रहा है कि वे आवास से लेकर भोजन आदि की व्यवस्था से काफी संतुष्ट हैं और जैसी तस्वीर उनके सामने पेश की जा रही थी स्थिति उसके उलट उतनी ही बेहतर है। भारत की आलोचना में तीखा बयान ऑस्ट्रेलिया का था, उसके बाद न्यूजीलैंड एवं स्कॉटलैंड का था। अंदर से निकलती सूचनाआंे के अनुसार ऑस्ट्रेलिया को भी साफ-साफ बता दिया गया है कि यदि भारत के साथ भविष्य में व्यवसाय करना है तो अपना सुर बदलना होगा।

इस समय दुनिया में जिस प्रकार का आर्थिक संकट है और सारे प्रमुख देश भारत में व्यापार एवं निवेश के लिए तत्पर हैं। इसमें यदि भारत केवल यह चेतावनी दे दे कि इसे नीचा दिखाने वालों के साथ वह भविष्य में व्यापारिक संबंध तोड़ लेगा तो उनके सामने अपना सुर बदलने के चारा ही क्या रह जाएगा। वैसे भी हाल ही में अमेरिकी खुफिया विभाग एवं यूरोपीय संघ की एक सम्मिलित रिपोर्ट में अमेरिका एवं चीन के बाद भारत को विश्व की तीसरी सबसे ज्यादा शक्तिवाला देश माना गया है। यह कितना सही है, कितना नहीं, यह अलग बहस का विषय है, किंतु विश्व की तीसरी शक्ति की दुनिया मंे एक धाक तो होनी चाहिए। इतनी बड़ी आबादी, जहां मध्यमवर्ग की संख्या इतनी बड़ी है जितनी राष्ट्रमंडल तो छोड़िए, दुनिया के ज्यादातर देशों की आबादी नहीं, वह अगर सीना तानकर खड़ा हो जाए तो व्यापार एवं आर्थिक लाभ के इच्छुक देश इसके विरुद्ध बयानवाजी कर ही नहीं सकते। यही हुआ है। आनंद शर्मा ने यही तो कहा कि इन देशों को उभरते भारत में भविष्य के व्यवसाय से वंचित होना पड़ेगा। उनके शब्द कितने कड़े होंगे इसका एक उदाहरण देखिए, ब्लैकमेल करने का खेल चल रहा है। या तो आप मुंह बंद रखिए, या आपके साथ कोई व्यसाय नहीं।’ कनाडा के बाद शर्मा दक्षिण अफ्रिका के दौरे पर गए और वहां भी उनका तेवर यही था।

इस प्रकार भारत के तेवर का असर साफ दिखा है। तो क्या इस समय दुनिया के देष ऐसी ही भाषा समझते हैं? आखिर देशों के संबंध यदि कड़े तेवरों और चेतावनियांे से तय होने लगे तो फिर जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली स्थिति हो जाएगी। किंतु आपके पास चारा क्या है? वैसे भी चीन हमारे सामने ऐसा उदाहरण है जो कभी अपने देश की निंदा बरदाश्त नहीं करता और किसी भी देश को मुंहतोड़ जवाब देता है। हमारे राजनय में शिष्टता और शालीनता का तत्व ज्यादा है। इसी कारण सरकार को तेवर बदलने में समय लगा। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि वर्तमान आर्थिक ढांचे में भारत की ऐसी स्थिति है जिसमें दुनिया का बहुमत इसके बिल्कुल विरुद्ध नहीं जा सकता, अन्यथा कुछ देश इसका बहिष्कार कर सकते थे। इस शर्मनाक तथ्य को कभी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि राष्ट्रमंडल खेलों के निर्माण एवं तैयारियों में हमारी बेईमानी, काहिली, लालफीताशाही, पंूजीशाही और सत्ताशाही का अत्यंत ही उदण्ड और वीभत्स स्वरुप सामने आया है। अगर हम अपना घर संवार सकें तो हमारे तेवर में और दम होगा और तब किसी का मुंह बंद करना हमारे लिए ज्यादा आसान होगा। (संवाद)