सवाल उठता है कि इस समस्या का हल क्या है? उच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया है, वह भी एक हल हो सकता है, लेकिन दोनों पक्षों ने उसे मानने से इनकार कर दिया है। मंदिर बनाने के पक्षधर इस बात से खुश हैं कि जहां रामलला की मूर्ति रखी हुई है, उस जगह पर कोर्ट ने उनके दावे को स्वीकार कर लिया है। अदालत की इस स्वीकृति को वे अपनी जीत मान रहे हैं, लेकिन विवाविद जमीन की एक तिहाई पर मस्जिद का निर्माण हो, यह उन्हें मंजूर नहीं। वह राम मंदिर के आसपास मस्जिद का निर्माण चाहते ही नहीं। यही कारण है कि फैसले से खुश होने के बावजूद भी वे उसके आधार पर समस्या का समाधान नहीं चाहते।
दूसरी तरफ मस्जिद पक्ष इस आदेश से दुखी है। उसे लग रहा है कि अदालत ने कानूनी दस्तावेजों के ऊपर आस्था को आघार बनाया और उसी के अनुरूप फैसला सुना दिया। केन्द्रीय सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील और बाबरी एक्शन कमिटी के नेता जफरयाब जिलानी सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले के खिलाफ अपील करने का एलान कर चुके हैं।
लेकिन मस्जिद पक्ष के मूल मुदई हासिम अंसारी इस फैसले को स्वीकार कर रहे हैं। फैसला आने के पहले ही उन्होंने कई बार कहा था कि जो भी फैसला आएगा, वह उन्हें मंजूर होगा। सच तो यह है कि फैसला आने के पहले मस्जिद निर्माण पक्ष उसे मान लेने पर ज्यादा जोर दे रहा था, जबकि मंदिर निर्माण पक्ष आने वाले फैसले को लेकर सशंकित था और उसे पक्ष में आने की सूरत में ही उसे मानने की बात कर रहा था। अब हसिम अंसारी को छोड़कर शेष मस्जिद निर्माण पक्ष सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कर रहा है, जबकि खुद 90 वर्षीय अंसारी निर्मोही अखाड़ा के धार्मिक नेताओं से मिलकर अदालती फैसले के आलोक में समस्या को हल करना चाह रहे हैं।
अखाड़ा परिषद के प्रमुख ज्ञानदास और हासिम अंसारी क्या आपसी बातचीत के द्वारा इस समस्या को हल करने में सक्षम हैं? वे दोनों विवाद के स्थानीय पक्ष हैं, यानी दोनों अयोध्या के ही हैं, जबकि मंदिर मस्जिद विवाद में अयोध्या के बाहर के लोग भी शामिल हो गए हैं। राम हिंदुओं की आस्था के केन्द्र हैं, इसलिए दुनिया भर के हिंदुओं की इसमें दिलचस्पी है और आस्थावादी हिंदू इसमें किसी ने किसी रूप में अपने आपको एक पक्ष मानते हैं। मस्जिद के पक्षधर भी देश भर में हैं, क्योंकि मुसलमानों को लगता है कि देश में किसी भी मस्जिद पर हमला उनके ऊपर हमला है।
इस तरह के माहौल में हासिम अंसारी और अखाड़ा परिषद के महंत ज्ञान दास अयोध्या के बाहर के लोगों को कह रहे हैं कि वे विवाद से दूर रहें और उन दोनों को आपस में बात करके मामले को हल करने दें। यदि उनकी बात मान ली जाती है और सारे हिंदू महंत ज्ञान दास को और सारे मुसलमान हासिम अंसारी को विवाद हल करने के लिए किसी भी प्रकार का फैसला करने के लिए अधिकृत मान लेते हैं और सहमति के उनके फैसले को स्वीकार कर लेते हैं, तो इस समस्या का हल हाई कोर्ट फैसले के आलोक में निकल सकता है, लेकिन क्या मंदिरवादी हिंदू और मस्जिदवादी मुसलमान उन दोनों को अपना अपना प्रतिनिधि मानने को तैयार हैं?
दरअसल मंदिर मस्जिद विवाद में जो राजनीति धुस आई है, उसके कारण यह मामला सुलझना मुश्किल हो गया है। दोनों पक्षों के राजनीतिज्ञ इस मामले मे अपनी टांगे अड़ा रहे हैं और यदि धार्मिक हिंदू और और धार्मिक मुसलमान विवाद के मूल पक्षों- अखाड़ा परिषद और हासिम अंसारी द्वारा प्राप्त की गई सहमति को स्वीकार कर भी लें, पर मंदिर और मस्जिद की राजनीति करने वाले लोग उसे स्वीकार नहीं करेंगे। मंदिर निर्माण की राजनीति करने वाली हिंदू महासभा और मस्जिद की राजनीति करने वाले मुस्लिम नेता हाई कोर्ट के फैसले को आधार बनाते हुए मामले को यहीं हल होने ही नहीं देंगे।
उच्च न्यायालय के फैसले के बाद मंदिर और मस्जिद दोनों का निर्माण सभव है। फैसले का मुख्य बिंदु है, रामलला की वर्तमान जगह पर हिंदू दावे पर अदालती मुहर। यदि इसे मुसलमान मान लेतें हैंख् तो फिर मामले को सुलझने में समस्या नहीं आनी चाहिए। इसका कारण यह है कि उसी जगह बाबरी मस्जिद खड़ी थी। पर अब मस्जिद वहां है ही नहीं। इसलिए उसी जगह मस्जिद बनाने की जिद को यदि मुसलमान छोड़ दें, तो फिर बात बन सकती है। और मुसलमानों के बारे मे तो दावे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन हासिम अंसारी ने उसी जगह मस्जिद बनाने की जिद त्याग दी है और लगता है कि वे उस जगह का मोह त्यागकर उसे आसपास मस्जिद बनाने को तैयार हैं। 2 पौनै तीन एकड़ विवादित जमीन के अलावा करीब 64 एकड़ जमीन वहां केन्द्र सरकार के पास है। कुल जमीन 67 एकड़ है, जिसके एक टुकड़े को मस्जिद निर्माण के लिया दिया जा सकता है। यदि फैसले को स्वीकार करते हुए मुसलमान बाबरी मस्जिद के मूल स् थान से हटकर मस्जिद बनाने को तैयार होते हैं, तो वे अपनी सुविधा के अनुसार 67 एकड़ के भूखंड के किसी और हिस्से पर भी मस्जिद बना सकते हैं और शायद अखाड़ा परिषद भी इसके लिए तैयार हो जाए।
पर समस्या राजनीतिज्ञों की ओर से है। भाजपा के अध्यक्ष नीतिन गडकरी कह रहे हैं कि मस्जिद मंदिर परिसर से बाहर बने। वे पूरी अयोध्या को ही मंदिर परिषद बता रहे हैं। यानी वे अयोध्या के अंदर मस्जिद बनाए जाने के खिलाफ हैं। भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी भी कह रहे है कि मस्जिद अयोध्या में नहीं बने, बल्कि पास के ही फैजाबाद में बने, तो उन्हें कोर्इ्र आपत्ति नहीं होगी। यह सच है कि फैजाबाद अयोध्या के पास ही है, लेकिन इस तरह की शर्त रखना गलत है। यदि अयोध्या में मुस्लिम रह सकते हैं, तो फिर अयोध्या में मस्जिद क्यों नही रह सकती? जाहिर है, इस तरह की राय मामले को उलझाए रखने के लिए दी जाती है। राजनीतिज्ञ यह चाहते ही नहीं कि मंदिर मस्जिद विवाद का हल हो, इसलिए वे ऐसी बातें करते हैं, जिससे समस्या का समाधान ही नहीं निकले।
सवाल उठता है कि ऐसे माहौल में संत ज्ञानदास और हासिम अंसारी की बातचीत का क्या अंजाम होगा? उनकी बातचीत सही अंजाम पर पहुंच सकती है, यदि केन्द्र सरकार उस बातचीत को सफल कराने में दिलचस्पी ले। विवादित भूखंड के आसपास की जमीन केंन्द्र सरकार के पास है। दोनों की बातचीत के बाद हुई सहमति को कानूनी संरक्षण देने का अधिकार भी केन्द्र सरकार के पास ही है। इसलिए केन्द्र सरकार को श्री अंसारी और महंत ज्ञानदास की बातचीत को प्रश्रय देना चाहिए। (संवाद)
अयोध्या समस्या का हल कितना दूर?
केन्द्र सरकार चाहे तो यह जल्दी संभव है
उपेन्द्र प्रसाद - 2010-10-05 10:57
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के लखनऊ बेंच के फैसले के बाद भी अयोध्या विवाद अपनी जगह पर कायम है। विवाद से जुड़े दोनों पक्ष फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने की अपनी इच्छा का इजहार कर चुके हैं। फैसले के बाद एक अच्छी बात यह हुई कि किसी पक्ष में इसके कारण उत्तेजना पैदा नहीं हुई और हिंसा की कोई वारदात इसके कारण नहीं हुई, लेकिन मामला अभी भी नहीं सुलझा है।