पूरे पूर्वोत्तर भारत में 35 हजार मेगावाट बिजली प्रति दिन पैदा करने की संभावना है। उस संभावना के दोहन के लिए हमारे देश में पिछले कई सालों से चर्चा होती रही है। देश की बढ़ती ऊर्जा जरूरतों के कारण ज्यादा बिजली पैदा करने का दबाव सरकार पर बढ़ रहा है। पानी से पैदा बिजली प्रदूषण नहीं फेलाती। इसलिए भी इस ओर आकर्षण बढ़ रहा था। लेकिन इन परियोजनाओं का विरोध हमारे नीति निर्माताओं के लिए सिरदर्द साबित हो सकता है।

यूक्सम में लेथांग पनबिजली परियोजना पर काम आरंभ हो रहा है। इस परियोजना का मिजोरम द्वारा विरोध किया जा रहा है। विरोध असम और सिक्कम द्वारा भी हो रहा है। खुद अरुणाचल प्रदेश के लोग भी इस परियोजना के खिलाफ खड़े हो गए हैं। हालांकि अरुणाचल के लोगांे का विराध कुछ अन्य कारण से है। उनकी चिंता है कि परियोजना पर काम चलने के कारण राज्य के बाहर के लोग भारी संख्या में उस पर काम करने के लिए आएंगे और उनमें से अनेक लोग वहां स्थाई रूप से बस जाएंगे। उन्हें डर लगता है कि कहीं वे अपने राज्य में ही अल्पसंख्यक न हो जाएं।

बड़ी परियोजनाओं का हमेशा विरोध होता रहा है। टेहरी बांध का दशकों तक विरोध होते रहा। नर्मदा परियोजना के साथ भी वैसा ही हुआ। इन परियोजनाओं की वकालत करते हुए कहा जाता है कि यह बिजली उत्पादन का प्रदूषण विहीन तरीका है और इससे बाढ़ पर भी नियंत्रण किया जा सकता है। सिंचाई की सुविधाएं पैदा करने का भी हवाला दिया जाता है, लेकिन इसका विरोध मुख्यतः तीन तर्कों के साथ किया जाता है।

पहला तर्क होता है कि इन बड़ी परियोजनाओं से पर्यावरण की क्षति होती है। इलाके का संतुलन बिगड़ने लगता है। दूसरा तर्क लोगों का विस्थापन है। इन बड़ी परियोजनाओं के कारण लोगों का भारी संख्या में विस्थापन होता है। विस्थापन के लिए दिए गए मुआवजे काफी नहीं होते और लोगों के अपने घर से उजड़ने के दुख की भरपाई नहीं कर सकते। तीसरा तर्क दन बांधों की संभावित विनाशलीला का होता है। यदि काफी वर्षा के कारण डेम में बहुत पापी जमा हो गए हों और उसके टूटने का खतरा हो, तो पानी को एकाएक छोड़ दिया जाता है, जिसके कारण आसपास के इलाके में बाढ़ आ जाती है। एकाएक आई बाढ़ के कारण भारी तबाही मचती है। अरुणाचल प्रदेश की बिजली परियोजनाओं का विरोध करते हुए भी ये सारे तर्क दिए जा रहे हैं।

भारत निचले सियांग परियोजना को जल्द से जल्द पूरा करना चाहता है। उसका एक कारण तिब्बत में चीन द्वारा अनेक परियाजनाओं पर काम करना भी है। सियांग बेसिन में 20 हजार मेगावाट बिजली पैदा करने की संभावना है। पहले फेज के लिए जिल तीन परियोजनाओं की पहचान की गई है, उनके पूरा होने पर प्रति दिन 11 हजार मेगावाट बिजली पैदा की जा सकती है।

असम निम्न सियांग और निम्न सुबांसिन पर किसी भी परियाजना चलाने का कड़ा विरोध कर रहा है। मुख्यमंत्री तरुण गोगोई अपना विरोध दर्ज करा चुके हैं और उनका दावा है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी बड़ी परियोजनाओं का विरोध करते हैं। असम के राज्यपाल शिवचरण माथुर भी पूर्वोत्तर राज्यों में बड़े बांधों के निर्माण के विरोधी हैं।

पिछले महीने मिजोरम की राजधानी एैजल में ह्मार जनजाति के लोगों ने राज्य के उत्तरी इलाके में पनबिजली योजना आरंभ करने के खिलाफ एक बड़ा प्रदर्शन किया। उनका कहना है कि उन परियोजनाओं के कारण वे बेघर हो जाएंगे और उनकी आजीविका भी मारी जाएगी। असम में कृषक मुक्ति संग्राम समिति इन परियोजनाओं के खिलाफ आंदोलन कर रही है। मुख्य विपक्षी दल असम गण परिषद ने अरुणाचल में बड़े बांध बनाने के खिलाफ बड़ा आंदोलन चलाने की धमकी दे रखी है। आल असम स्अूडेंट्स यूनियन के नेता भी इसी लहजे में बातें कर रहे हैं।

अरुणाचल प्रदेश में इसका विरोध करते हुए कहा जा रहा है कि यह पूरा इलाका भूकंप संभावित है। भूकंप आने के कारण बांधों में दरार आ सकती है और उसमें जमा पानी इलाके में तबाही का कारण बन जाएगी। आल अरुणाचल छात्र संध इन परियोजनाओं का विरोध करते हुए कह रहा है कि इसके कारण राज्य की आबादी में लोकल लोगों के अल्पसंख्यक हो जाने का खतरा है।

इसी माहौल में केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने पिछले महीने गौहाटी की यात्रा की और वहां के लोगों से इन मसलों पर बातचीत की। उन्होेने परियोजना का विरोध कर रहे लोगों को समझाने की भी कोशिश की कि उनसे कोई खतरा नहीं है, लेकिन लोग उनकी बातों से सहमत नहीं हुए। अंत में उन्होंने कहा कि दिल्ली जाकर वे प्रधानमंत्री को उनकी भावनाओं से अवगत करा देंगे।

इस बीच अरुणाचल प्रदेश की सरकार इन परियोजनाओं पर आगे बढ़ रही है। उसने 10 परियोजनाओं पर सहमति पत्र पर दस्तखत किए हैं। यदि सबकुछ ठीक रहा, तो अगले 10 सालों में इन परियोजनाओं से 30 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन हो सकेगा। (संवाद)