इस तरह के बदलाव को भाजपा ने ही नहीं, बल्कि राजनीति से अपने को दूर कहने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी महसूस किया है। उसे भी समझ में आ गया है कि सांप्रदायिक भावनाओं से खेलते हुए ज्यादा दिनों तक राजनैतिक फायदा नहीं उठाया जा सकता है। यही कारण है कि अयोध्या पर फैसला आने के बाद संध की प्रतिक्रिया भी बहुत ही संयमित रही है। हांण् विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों को अभी तक ये बाते समझ में नहीं आई हैं, लेकिन संघ ने उन संगठनों को भी अभी तक सीमा से बाहर नहीं जाने दिया है।

मंदिर एक मुद्दे के रूप में कमजोर पड़नी भाजपा की अकेली मुश्किल नहीं है। बिहार और कर्नाटक में जो कुछ हो रहा है, वह भी उसके लिए सिरदर्द का कारण बन रहा है। कर्नाटक में उसकी सरकार पर संकट छाया हुआ है। उसके अपने विधायकों ने बगावत कर दी है। 12 बागी विधायकों की सदस्यता समाप्त कर भाजपा ने फिलहाल अपनी सरकार का बहुमत तो वहां साबित कर दिया है, लेकिन सभी विधायको को साथ लेकर फिर से विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए उसे कहा गया है। जाहिर है कर्नाटक की समस्या अभी भी उसके गले की हड्डी बनी हुई है।

बिहार में भी भाजपा का बुरा हाल है। वहां विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं और ठीक उसी समय उसके प्रदेश अध्यक्ष ने अपने पद से इस्तीफे की घोषणा कर दी। अध्यक्ष सीपी ठाकुर का दर्द था कि उनके बेटे को पार्टी ने टिकट नहीं दिया। मान मनौवल के बाद श्री ठाकुर ने अपना इस्तीफा वापस ले लिया है, लेकिन उससे पार्टी की छवि चुनाव के पहले बहुत ही खराब हुई है।

पड़ोसी झारखंड में भाजपा ने अपनी सरकार बना ली। लेकिन सरकार बनने के पहले जो कुछ हुआ, उससे उसकी प्रतिष्ठा गिरी ही। शीबू सोरेन की सहायता से उसने सरकार बनाई है, और कुछ समय पहले श्री सोरेन की सरकार को ही उसने गिरा दिया था। उस समय दोनों के बीच चूहे और बिल्ली का लंबा खेल चला था और अंत में भाजपा ने थककर अपने आपको उस खेल से अलग कर लिया था। झारखंड में फिर किसी भी समय उसकी सरकार के लिए संकट खड़ा हो सकता है, क्योंकि मंत्रिमंडल के गठन के बाद घटक दलो के अनेक विधायक अपने आपको उपेक्षित महसूस कर रहे हैं।

बिहार और झारखंड से भी ज्यादा समस्या भाजपा को कर्नाटक के मार्चे पर देखने को मिल रही है। वहां उसकी सरकार गिरती हुई दिखाई पड़ रही है। यदि सरकार बच भी गई, तो इस ड्रामें में उसकी प्रतिष्ठा को काफी नुकसान हो चुका होगा। पहले भी कर्नाटक ने उसकी काफी किरकिरी की है। बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं का घनबल उसके गले की फांस बनी हुई थी। उनके घन के बूते ही भाजपा ने कर्नाटक में 2008 में पहली बार अपनी सरकार बनाई थी। तब रेड्डी बंधुओं का घनबल ही निर्दलीय विधायकों को पटाने के काम में आया था। लेकिन बाद में उसी घन बल से भाजपा की बहुमत वाली सरकार के सामने अपनी जान के लाले पड़ गए थे।

लोकायुक्त प्रकरण ने भी भाजपा की साख को चोट पहुचाई। वहां के लोकायुक्त ने अपने पद से यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया था कि राज्य की सरकार उनके साथ सहयोग नहीं कर रही है और वह अपना काम सही तरीके से करने में अपने आपको असमर्थ पा रहे हैं। बाद में लालकुष्ण आडवाणी ने हस्तक्षेप किया और लोकायुक्त का इस्तीफा वापस हुआ। (संवाद)