पंचायत चुनावों को लोग अब उत्सव की तरह लेने लगे हैं। दूरदराज के गांवों की महिलाएं भी इन चुनावों में बहुत ही गर्मजोशी के साथ हिस्सा लेती हैं। सच तो यह है कि अब महिलाएं चुनाव प्रचारों के दौरान भी बहुत सक्रिय देखी जा सकती हैं। उससे भी बड़ी बात तो यह है कि अब वे पहले की तरह आवश्यक रूप से परिवार के पुरुष सदस्यों के इशारे पर पंचायत चुनावों के दौरान अपनी राजनीति नहीं तय कर रही हैं, बल्कि अब वे स्वतंत्र रूप से भी कहीं कहीं निर्णय लेने लगी हैं। पंचायत चुनावों के द्वारा महिलाओं के सशक्तिकरण को कोई भी अब देख सकता है। इसका कारण यह है कि पंचायतों में अब महिलाओं को भी वित्तीय अधिकार मिल गए हैं और उन अधिकारों का अब वे स्वतंत्र रूप से इस्तेमाल भी करने लगी हैं।

जहां मतदान हुए हैं, वहां मतदाताओं में अभूतपूर्व उत्साह देखने को मिला। मतदान करने के लिए केन्द्र पर आए मतदाताओं की संख्या कहीं कहीं इतना ज्यादा थी कि समय समाप्त होने के बाद भी उन सबके मत नहीं पड़ सके थे। दिन ढल रहा था और मतदान अधिकारियों को लाचार होकर जीप के हेडलाइट की रोशनी का इस्तेमाल मतदान संपन्न कराने मंे करना पड़ा।

इसका एक सकारात्मक पहलू यह भी था कि मतदान के दौरान डॉक्टर, इंजीनियर, एमबीए और वकील जैसे लोग भी वोट डालने के लिए लाइन में खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार करते दिखाई पड़े। उनमें अनेक तो गांवों की सेवा करना चाहते हैं और अनेक मतदान की ओर इसलिए आकर्षित हुए हैं, क्योंकि सरकार की अनेक योजनाओं का क्रियान्वयन अब पंचायतों के जरिए होने लगा हैं और पंचायतों के प्रतिनिधियों को उन योजनाओं से संबधित वित्तीय अधिकार भी मिलने लगे हैं। यह सच है कि योजनाओं के क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार भी हो रहा है।

राज्य चुनाव आयोग के अनुसार पंचायत चुनावों में कुल 13 लाख 14 हजार उम्मीदवार खड़े थे और उनमें 5 लाख 21 हजार महिलाएं थीं। जाहिर है कुल मतदाताओं की 40 फीसदी संख्या महिलाओं की है। इन चुनावों में 3 लाख 15 हजार उम्मीदवार तो निर्विरोध चुनाव जीत गए। इनमें 1 लाख 32 हजार महिलाएं थीं। इससे पता चलता है कि अब महिलाओं की स्वीकार्यता भी बढ़ने लगी है।

इस बार वे महिलाएं, जो पर्दा में रहती हैं, वे भी भारी संख्या मेें प्रचार करने को घर से बाहर निकली। उन लोगों ने अपनी पसंद के उम्मीदवारों को जीताने के लिए पुरुषों की तरह अभियान चलाए और घर घर जाकर लोगों का वोट मांग रही थीं।

चुनाव जीतने के लिए वह सब भी किया गया, जिसे अच्छा नहीं माना जाता है। सत्तारूढ़ पार्टी के लोगों ने अपने पद और हैसियत का इस्तेमाल अपने समर्थकों को जीताने के लिए किया। पैसे भी बांटे गए और बाहुबल का भी इस्तेमाल किया गया। गांवों ेमे शराब की नदी भी कहीं कहीं बहती देखी गई। प्रशासन इन सबको रोकने की कोशिश करता रह गया, लेकिन वे कोशिशें काम नहीं आईं।

पहले दो दौर के मतदान के दौरान हिंसा की वारदातें भी हुईं। अनेक लोग मारे भी गए। कहने को तो ये चुनाव पार्टी के आधार पर नहीं हो रहे थे, लेकिन सभी पार्टियों के नेता अपने अपने चहेतों को चुनाव जीताने मे लगे हुए थे। पूरा विपक्ष हिंसा के लिए बसपा नेताओं और प्रशासन को जिम्मेदार बता रहा है। कहीं कहीं तो लोगों ने अपनी पुरानी दुश्मनी इन चुनावों के दौरान निकाली। (संवाद)