यदि लोकपाल विधेयक के इतिहास पर ध्यान दें तो पता चलता है कि 1966 में मोराजी देसाई के नेतृत्व में एक प्रशासनिक सुधार आयोग गठित किया गया था। उस आयोग ने केन्द्र में लोकपाल और राज्यों मे लोकायुक्तों की नियुक्ति की अनुशंसा की थी।

इस प्रस्ताव पर शुरुआती प्रतिक्रिया बहुत अच्छी थी। राजनैतिक वर्ग ने उस समय इसे बहुत उत्साह से लिया था। 1969 में इसे लोकसभा से पास भी कर दिया गया था। लेकिन इसे राज्यसभा से पारित कराने के पहले ही लोकसभा भग हो गई। लोकसभा भंग होने के साथ ही यह विधेयक लैप्स कर गया।

फिर 1971 में भी इसे संसद से पास कराने की कोशिश हुई, पर वह कोशिश भी नाकाम हुई। 1975 में एक प्रयास और किया गया। वह प्रयास भी विफल रहा। 1985 में राजीव गांधी की सरकार ने फिर नए सिरे से उसपर काम करना शुरू किया। लेकिन एक बार फिर इतिहास दुहरा दिया गया। 1989 के प्रयास की भी वही नियति हुई। 1996, 1998, 2001, 2004 और 2008 में भी कोशिशें हुईं। पर सारी की सारी नाकाम साबित हुईं। सिर्फ 1985 में इस विधेयक को सरकार द्वारा संसद से वापस लिया गया था। इसके अलावा हमेशा लोकसभा का कार्यकाल समाप्त होने अथवा भंग होने के कारण लैप्स होना पड़ा था।

मोरारजी देसाई आयोग ने राज्यों के लिए लोकायुक्तों की नियुक्ति की सिफारिश की थी। 17 राज्यों ेमें लोकायुक्तों की नियुक्ति भी हुई। उड़ीसा लोकायुक्त को नियुक्त करने वाला पहला राज्य थां। वहां 1971 में ही इसकी नियुक्ति हो गई थी, लेकिन 1993 में उड़ीसा में लोकयुक्त की व्यवस्था समाप्त भी कर दी गई। राज्यों में लोकायुक्तों की शक्ति अलग अलग राज्यों में अलग रही है। किसी राज्य में मुख्यमंत्री को भी लोकायुक्त के दायरे में रखा गया है, तो किसी राज्य में मुख्यमंत्री इस दायरे से बाहर हैं। कुछ राज्यों मे तो विधायकों को भी लोकायुक्त के दायरे से बाहर रखा गया है। लोकायुक्त के मामले मे सभी राज्यों की अपनी अपनी अलग कहानी है।

ऐसा दावा नहीं किया जा सकता कि जिन राज्यों मे लोकायुक्त की व्यवस्था हुई, वहां भ्रष्टाचार पर लगाम लग गया। कर्नाटक एक ताजा उदाहरण है। वहां लोकायुक्त न्यायमूर्त्ति संतोष हेगड़े ने वहां अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। इसका कारण यह था कि अवैध खनन से जुड़े बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं के खिलाफ कार्रवाई करने में वे अपने आपको असमर्थ पा रहे थे। बाद में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने समझाबुझाकर उनका इस्तीफा वापस करवा दिया।

यह अच्छी बात है कि केन्द्र सरकार ने लोकपाल विधेयक को शरद सत्र में संसद में पेश करने का फैसला किया है। इससे संबंधित सबसे अहम मसला प्रधानमंत्री को इसके दायरे मे लाने अथवा न लाने से संबंधित है। लेकिन इस मसले का अब सुलझा लिया गया है। सच तो है कि पूर्ववर्त्ती प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और वर्तमान प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी दोनों प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में रखने के पक्षधर रहे हैं।

प्रस्तावित लोकपाल विधेयक के दायरे मे प्रधानमंत्री के अलावा सभी केन्द्रीय मंत्री और सभी सांसद होेगे। जाहिर है कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा के अध्यक्ष, राज्यसभा के उपसभापति, लोकसभा के उपाध्यक्ष, सर्वाच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाघीश, एटोर्नी जनरल, मुख्य चुाव आयुक्त, चुनाव आयुक्त और अनसूचित जाति व जनजाति आयोग के अध्यक्ष और सदस्य इसके दायरे से बाहर होंगे।

उम्मीद की जानी चाहिए कि सभी पार्टियां इस मसले पर एक साथ होगी और इस बार इतिहास नहीं दुहराया जाएगा। (संवाद)