आयोग इस तरह की मांग पहले भी कर चुका है और उसकी मांग आंशिक तौर पर पूरी भी हुई है, लेकिन अब वह चाहता है कि केन्द्र सरकार चुनाव के पहले होने वाले किसी भी सर्वे के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दे, क्योंकि उन परिणामों से मतदाताओं का रूझान प्रभावित होता है।
निर्वाचन आयोग की मांग का तात्कालिक कारण एक टीवी चैनल द्वारा दिखाया गया वह सर्वेक्षण नतीजा था। सर्वेक्षण बिहार के पहले चरण के मतदान के 60 घंटे पहले जारी किया गया था। मतदान के पहले जब मतदाता अपनी अंतिम राय बनाने में लगे हुए थे, ठीक उसी समय चैनल ने अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी कर बताना प्रारंभ कर दिया कि बिहार के चुनावी नतीजे क्या होंगे। मतदाताओं का एक वर्ग अंतिम अंतिम समय तक अनिर्णय की स्थिति में रहता है। वह वर्ग आमतौर पर स्थायित्व चाहता है, इसलिए उसी को मत देना चाहता है, जो चुनावी दौड़ में आगे चल रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो वह जीतते हुए घोड़े पर दाव लगाना चाहता है। और चुनावी सर्वेक्षणों के नतीजे उन्हें यह बताने का काम करते हैं कि कौन सा घोड़ा आगे चल रहा है।
कुछ लोग यह कह सकते हैं कि यदि मतदाता यह जानना चाह रहे हैं कि चुनाव में कौन आगे चल रहा है और उसी के मुताबिक मतदान करना चाहते हैं तो उनकी इच्छा पूरी करने में परेशानी क्या है? यदि कोई मतदाताओं को उनकी इच्छा के अनुसार मतदान करने में उनकी सहायता कर रहा है, तो फिर सहायता करने वाला गलत कहां है? उम्मीदवार मतदाताओं के पास जाकर उनके मत मांगते हैं और उन्हें बताते हैं कि वे उनको क्यों मत दें। राजनैतिक पार्टियों के नेता सभाएं करके मतदाताओं के मत मांगते हैं और वे उन्हें मतदान क्यों करें इसका कारण भी बताते हैं। अब यदि कोई निष्पक्ष तबका मतदाताओं को चुनाव का रुझान बताकर उन्हें निर्णय करने के लिए अतिरिक्त जानकारी प्रदान करता है, तो इसमें गलत क्या है?
यदि सर्वेक्षण के नतीजे सही सही जानकारी दें, तो शायद इसपर ज्यादा आपत्ति नहीं होनी चाहिए, पर सच्चाई कुछ और है। पिछले दो दशकों से हम लगातार देख रहे हैं कि चुनावी सर्वेक्षण आमतौर पर गलत साबित हो जाते हैं। यह भी देखने को मिल रहा है कि अनेक सर्वेक्षण पहले से ही मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए तैयार कर लिए जाते हैं। कई बार यह भी शिकायत की गई है कि सर्वेक्षण रिपोर्ट घर बैठे ही तैयार कर ली गई और प्रकाशित कर दी गई। यानी इन सर्वेक्षणों का जबर्दस्त राजनैतिक इस्तेमाल हुआ है। उनके राजनैतिक इस्तेमाल की बातें जनता के सामने पहले अनेक बार आ चुकी हैं। इसलिए अब उनका पहले वाला प्रभाव रहा भी नहीं। जनता का एक वर्ग अब उन पर पहले की तरह विश्वास ही नहीं करता। फिर भी सर्वेक्षण रिपोर्ट के नतीजे आते हैं और बहुत नहीं तो कुछ न कुछ तो उसका असर मतदान पर पड़ ही जाता है। मतदाताओं पर ही नहीं, बल्कि चुनाव अभियानों में हिस्सा ले रहे पार्टी कार्यकर्त्ताओं के हौसले पर भी उसका असर पड़ता है। कुछ कार्यकर्त्ता मायूस होकर शांत होने लगते हैं, तो कुछ दुगने उत्साह में आ जाते हैं।
जाहिर है सूचना तंत्र का इस्तेमाल कर मतदान को प्रभावित करना निष्पक्ष मतदान के खिलाफ है। और निर्वाचन आयोग का कहना कि उन सर्वेक्षण नतीजों पर रोक लगे गलत नहीं है। बिहार चुनाव से संबंधित सर्वेक्षण के जिन नतीजों से निर्वाचन आयोग विचलित हुआ, वे नतीजे कुछ थे भी वैसे ही, जिससे कोई भी विवेकशील व्यक्ति विचलित हो जाए। बिहार में 243 सीटों के लिए चुनाव हो रहे हैं। पहले के चुनावों की तरह इस बार भी जाति के ही आधार पर वहां मतदान हो रहे हैं और जातीय गणित में नीतीश कुमार अन्य लोगों पर भारी पड़ रहे हैं। जाहिर है कि उनकी जीत की प्रबल संभावना है। जाति समीकरण पक्ष में होने के साथ साथ उन्हें अपनी उपलब्धियों के बारे मे जनता को बताने के लिए भी बहुत कुछ है। उनकी सरकार के कार्यकाल के पहले वाले 15 साल के कार्यकाल के बीच कोई तुलना ही नहीं है। यानी काम करने वाली सरकार के रूप में नीतीश जनता के बीच जा रहे हैं। और उनकी सरकार के दुबारा सत्ता में आ जाना कोई अप्रत्याशित घटना नहीं होगी।
बिहार की राजनीति पिछले 20 सालों से पिछड़े वर्गो के इर्द गिर्द घूम रही है। बिहार में आज पिछड़े वर्गाें के लोगों की संख्या 64 फीसदी होगी, जिसमें 54 फीसदी हिन्दू और 10 फीसदी मुसलमान होंगे। 54 फीसदी पिछड़े वर्गो में 14 फीसदी यादव और 40 फीसदी गैर यादव पिछड़े हैं। इन 40 फीसदी गैर यादव पिछड़ो ंका ठोस समर्थन नीतीश के साथ है। इसके अलावा समाज के अन्य तबकों का भी समर्थन कुछ न कुछ उनकी पार्टी और गठबंधन को मिल रहा है। दूसरी तरफ लालू यादव के पास अपनी जाति के अलावा और कोई आधार नहीं रह गया है। रामविलास से गठबंधन कर उन्होंने 5 फीसदी पासवानों को भी अपनी तरफ कर लिया है। यानी उनके पास 20 फीसदी ठोस समर्थन है, तो नीतीश के पास 40 फीसदी। समाज के अन्य तबकों में यदि मुसलमानों पर लालू का ज्यादा दबदबा है, तो अगड़ी जातियों पर भाजपा और नीतीश का ज्यादा दबदबा। इसके अलावा सरकार चलाने में नीतीश का रिकार्ड बेहतर होने का नुकसान भी लालू यादव को उठाना पड़ रहा है। लालू यादव पर परिवारवाद का आरोप हैख् जिसे वे अपने बेटे को राजनीति में उतारकर वे सच भी साबित कर रहे हैं, पर नीतीश की इस मामले में छवि बेहतर है। लालू यादव पर भ्रष्टाचार के मामले भी चल रहे हैं और वे इन मामलों में कई बार जेल भी जा चुके है। यानी व्यक्तिगत रूप से भी नीतीश लालू पर भारी पड़ रहे हैं।
ऐसे माहौल में नीतीश की सरकार बनने की संभावना पर संदेह व्यक्त करना उचित नहीं होगा। इसलिए सर्वेक्षण की वह रिपोर्ट इस मामले में गलत नहीं लगती कि नीतीश की सरकार बनने वाली है, लेकिन भाजपा और जनता दल(यू) की जीत प्रतिशत में जो भारी अंतर दिखाया गया है, वह समझ से बाहर की बात है। जद(यू) के 85 फीसदी उम्मीदवार उसमें जीतते हुए दिखाई दे रहे हैं, तो भाजपा के 48 फीसदी उम्मीदवार ही जीतते हुए दिखाई दे रहे हैं। यह आंकड़ा उस पूरे सर्वेक्षण रिपोर्ट को बोगस साबित कर देता है। इस तरह के सर्वेक्षण रिपोर्ट प्रकाशित होने से बेहतर है कि कोई सर्वेक्षण रिपोर्ट प्रकाशित ही नहीं हो। (संवाद)
चुनाव पूर्व सर्वेक्षण - क्या इसपर रोक लगाना उचित होगा?
उपेन्द्र प्रसाद - 2010-10-23 14:30
भारत के निर्वाचन आयोग ने केन्द्र सरकार से मांग की है कि वह जनप्रतिधित्व कानून में संशोधन कर चुनाव से पहले होने वाले सर्वेक्षणों पर रोक लगा दे, क्यांेकि इसके कारण स्वच्छ एवं स्वतंत्र मतदान में वाधा पैदा हो रही है। आयोग ने जिस दिन केन्द्र सरकार को यह पत्र लिखा था, उसकी पूर्व संघ्या को एक चैनल ने बिहार के हो रहे विधानसभा चुनाव से संबंधित एक सर्वे के नतीजे जारी किए थे। जाहिर है, उन नतीजों ने ही निर्वाचन आयोग को वह पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया।