पहला मसला अल्पसंख्यकों के भय को लेकर है। यह भय मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हैं। उनकी आबादी राज्य में 30 फीसदी से भी ज्यादा है और चुनावों के दौरान वे महत्वपूर्ण भुमिका निभाते हैं। उनका भय राष्ट्रीय रजिस्टर के निर्माण के लिए चल रही कसरत है। पूरे देश में एक राष्ट्रीय रजिस्टर बन रही है। देश के अन्य हिस्सों के लिए यह पहला अनुभव होगा, लेकिन इस तरह का रजिस्टर असम में एक बार पहले भी बन चुका है। अब वह यहां के लोगों के लिए दूसरी बार बन रहा है।
अल्पसंख्यक मुसलमानों को डर सता रहा है कि रजिस्टर बनाने के क्रम में उनमें से अनेक को इससे बाहर रखा जा सकता है और उनका मताधिकार छीन लिया जा सकता है। जाहिर है उनकी नागरिकता पर ही खतरा मंडरा रहा है। उनके विदेशी घोषित कर दिए जाने का खतरा है। पहला रजिस्टर 1951 में तैयार किया गया था। उस समय पूर्वी पाकिस्तान से असम में भागकर आए लोगों की पहचान करने के लिए इस तरह का रजिस्टर तैयार किया गया था।
इसी तरह के एक और रजिस्टर बनाने की मांग पिछले कई सालों से की जा रही थी। यह मांग असम के हिंदुओं द्वारा की जा रही थी। बांग्ला बोलने वाले मुसलमान इस तरह की माग से सहमे हुए थे। वे अब भी सहमे हुए हैं। उनकी चिताओं का घ्यान में रखते हुए मुख्यमंत्री तरुण गगोई ने अगस्त महीने मंे एक मंत्रिमंडलीय समिति गठित की, जो उनकी समस्याओं को घ्यान में रखने के तरीके सुझाएगी।
केन्द्र ने 1966 को रजिस्टर अपडेट करने के लिए कट ऑफ साल स्वीकार किया है। अल्पसंख्यकों के संगठन कह रहे हैं कि केन्द्र सरकार का यह निर्णय 1985 के असम समझौते का उल्लंघन है। उस समझौते के अनुसार 1966 और 1971 के बीच असम में प्रवेश करने वाले लोगों के नाम मतदाता सूची से 10 सालों के लिए अलग कर देने पर सहमति बनी थी। 10 साल का वह समय 1995 में ही समाप्त हो गया है। इसलिए अब अल्पसंख्यक संगठनों का कहना है कि 1966 को आधार वर्ष मानना उचित नहीं है।
अपनी मांग को लेकर अल्पसंख्यक संगठनों के सदस्यों ने प्रधानमंत्री तथा यूपीए की चेयरपर्सन से मुलाकात की। उसके बाद केन्द्र सरकार ने अपने फैसले में बदलाव किया और 1951 के रजिस्टर के अलावा 1966 और 1971 के जनसंख्या रजिस्टर को नए रजिस्टर तैयार करने के लिए मूल दस्तावेज मानने पर अपनी सहमति दे दी।
लेकिन समस्या यहीं समाप्त नहीं हो जाती है। मुस्लिम नेताओं का कहना है कि ये दस्तावेज पूरी तरह अब मौजूद ही नहीं हैं। मुस्लिम इलाकों के 1966 और 1971 के मतदाता रजिस्टर बर्बाद कर दिए गए हैं। मुस्लिम बहुल बरपेटा में अभी कुछ दिन पहले ही भारी सांप्रदायिक तनाव पैदा हो गया था। भाजपा भी इस तनाव का एक पक्ष बन गई थी। मुश्किल से मामले को संभाला गया। पर उसके बाद से राष्ट्रीय रजिस्टर बनने का काम वहां रुका हुआ है।
इसके अलावा बांग्ला बोलने वाले एक लाख 80 हजार हिंदुओं और मुसलमानों का भविष्य भी खतरे में पड़ा हुआ है। निर्वाचन आयोग ने उन्हें संदेह की श्रेणी में रखा हुआ है। जबतक उनके बारे में संदेह समाप्त नहीं होते, तब तक वे वोट नहीं डाल सकते।
मुसलमान हमेशा कांग्रेस को वोट देते रहे हैं। उनका यदि एक हिस्सा भी कांग्रेस के खिलाफ हो गया, तो अगला चुनाव जीत पाना कांग्रेस के लिए संदिग्ध बन जाएगा। (संवाद)
असम में कांग्रेस की बढ़ती मुश्किलें
राष्ट्रीय रजिस्टर का निर्माण चुनाव को प्रभावित कर सकता है
बरुण दाय गुप्ता - 2010-11-01 17:58
कोलकाताः असम में विधानसभा के आमचुनाव अगले साल की शुरुआत में होने वाले हैं। इसमें कांग्रेस को फिर से सत्ता में आने के लिए एड़ी चोटी का पसीना एक करना पड़ेगा, क्योंकि कुछ ऐसे मसले सामने आ गए हैं, जिनका जवाब देना कांग्रेस के लिए आसान नहीं है। ये मसले अगले चुनावों में केन्द्रीय भूमिका निभाएंगे।