कांग्रेस की समस्या यह थी कि वह सहयोगी पार्टनर डीएमके को खोना नहीं चाहती थी और डीएमके नेता करुणानिधि राजा के समर्थन में पहाड़ की तरह खड़े थे। यदि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री की इच्छा को दरकिनार कर ए राजा को सरकार से बर्खास्त कर दिया जाता, तो डीएमके द्वारा सरकार से समर्थन वापस ले लिए जाने का खतरा था। उस समर्थनवापसी से केन्द्र की मनमोहन सिंह सरकार के अस्तित्व पर ही खतरा पैदा हो जाता। इसलिए प्रधानमंत्री ए राजा को बर्खास्त नहीं कर पा रहे थे। वे यही चाहते थे कि राजा अपने पद से इस्तीफा दे दे और उसके लिए उनसे इस्तीफे की मांग उनके नेता के करुणाकरण करें।

इसलिए ए राजा को हटाने के लिए करुणानिघि पर दबाव बनाना जरूरी था। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री अपने अड़ियल स्वभाव के लिए मशहूर हैं। केन्द्र सरकार की राजा के कारण हो रही किरकिरी के बावजूद वे उनके पद पर बने रहने की बात कर रहे थे। वे उनका बचाव भी कर रहे थे। उन्हें पता था कि केन्द्र की सरकार उनके समर्थन पर टिकी हुई है और उनके समर्थन लेने से केन्द्र सरकार की जान सांसत में पड़ जाएगी।

हालांकि उक दूसरा भी तथ्य है, जो करुणानिघि के खिलाफ है। वह यह है कि उनकी सरकार भी एक अल्पमत सरकार है, जो कांग्रेस के समर्थन से चल रही है। यदि कांग्रेस उनकी सरकार से समर्थन वापस ले ले तो राज्य की उनकी सरकार पर भी संकट बढ़ जाएगा। वाम पार्टियां और स्थानीय पीएमके और एमडीएमके भी कभी उनकी सरकार का समर्थन कर रही थी। तब वह बिना कांग्रेस के समर्थन के भी अपनी सरकार बचाने की सोच सकते थे, लेकिन उनके पहले से ही खिलाफ होने के कारण कांग्रेस का समर्थन हटने के बाद उनकी सरकार की बिदाई तय थी। इसलिए केन्द्र सरकार से समर्थन वापस लेकर अपनी सरकार के गिराने का काम भी करते।

करुणानिधि की समस्या सिर्फ वहां सरकार चलाने की ही नहीं है। विधानसभा का कार्यकाल वहां जल्द ही पूरा हो रहा है और बहुत जल्द ही उन्हें विधानसभा के चुनावों का सामना करना है। विधानसभा चुनाव में जीत के लिए उन्हें कांग्रेस के समर्थन की जरूरत पड़ेगी। कांग्रेस के विधानसभा चुनावों का इतिहास बताता है कि कांग्रेस यदि डीएमके के साथ होती है, तो जीत डीएमके की और यदि वह एडीएमके के साथ होती है, तो जीत एडीएमके की होती है। इसलिए करुणानिधि को यह देखना जरूरी हो गया था कि कहीं कांग्रेस जयललिता के एडीएमके की तरफ चली न जाए। भ्रष्टाचार के मसले पर कांग्रेस के साथ संबंध विच्छेद के बाद वाम पार्टियां किसी भी कीमत पर उनके साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ती। पीएमके के रामदॉस भी उनके साथ नहीं जाते। यानी विधानसभा चुनाव में करुण्ररनिधि पूरी तरह अलग थलग पड़ जाते और भ्रष्टाचार का दाग उनकी पार्टी पर अलग से लगा होता।

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री की समस्या सिर्फ विधानसभा चुनाव लड़ने तक ही नहीं है। उनके सामने राजनीति से रिटायर होने की भी चुनौती है। रिटायर होना उनके लिए चुनौती इसलिए है, क्योंकि उनके बेटों के बीच उनके उत्तराधिकार के लिए घमासान मचा है। केन्द्र की सत्ता में भागीदारी कर वे अपने दोनों बेटों के बीच थोड़ा बहुत संतुलन बनाए हुए हैं। एक बेटे को उन्होंने अपने राज्य में उपमुख्यमंत्री बना रखा है, तो दूसरे बेटे को केन्द्र में रसायन मंत्री बना रखा है। केन्द्र की सत्ता में भागीदारी उनके अपने पारिवारिक झगड़ों को दबाए रखने में बेहद कारगार सबित हो रहा है।

अब उनकी प्राथमिकता अपने बेटे को तमिलनाडु का मुख्यमंत्री बनाने की है। वे अपने बेटे स्टालिन को मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं, जबकि उनका रसायन मंत्री बेटा अलागिरी उसके लिए तैयार नहीं है। उत्तराधिकार वे अपने बेटे को सौंपे इसके लिए उन्हें ताकतवर होना जरूरी है और यह ताकत कांगेस के साथ रहकर ही उनकी बनी रह सकती है। लिहाजा केन्द्र की सरकार से बाहर होने का खतरा वे भी मोल नहीं ले सकते। ज्यादा से ज्यादा वे केन्द्र से सौदेबाजी में अड़ियल रुख अपना सकते हैं और वह भी इतना नहीं कि जुदाई की नौबत आए।

केन्द्र की अपनी सरकार बचाने के लिए चिंतित कांग्रेस को उस समय राहत मिली, जब जयललिता ने सरकार बचाने के लिए मनमोहन सिंह सरकार के समर्थन में आने की घोषणा कर दी। जयललिता की पार्टी के पास 9 सांसद हैं और करूणानिधि की पार्टी के पास 18। यानी अभी भी 9 सीटों की समस्या थी। लेकिन कांगेस के पास अजित सिंह का विकल्प भी बचा हुआ है। इसके अलावा देवेगौड़ा की पार्टी भी उसका साथ दे सकती है। इसलिए यदि डीएमके केन्द्र सरकार से अलग होने की घोषणा कर भी ले, तो मनमोहन सिंह किसी तरह अपनी सरकार बचाने की स्थिति में हैं, पर करुणानिधि तमिलाडु की अपनी कुर्सी बचाने और उसे अपने पुत्र उत्तराधिकारी को सौंपने की हालत में हरगिज नहीं हैं। यही कारण है कि उन्हें झुकना पड़ा और आखिरकार ए राजा ने अपने मंत्रिपद से इस्तीफा दे ही दिया।

इस्तीफे में हुए विलंब से कांगेस का नहीं बल्कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री का नुकसान हुआ है। आने वाले दिनों में भी सौदेबाजी की उनकी ताकत कम हो गई है। इस संकट के दौरान विभिन्न विकल्पों के बारे में सोंचने के बाद कांग्रेस अब पहले की तरह उनके समर्थन पर पूरी तरह से मुहताज रहने की मानसिकता से उबर चुकी है। उसे अब अपनी सरकार बचाने के दूसरे विकल्प भी दिखाई देने लगे हैं। एक विकल्प तो उसके पास मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को अपने साथ लेकर सरकार बचाने का भी मौजूद है। लेकिन वैसा करने से उसकी उत्तर प्रदेश की राजनीति पर असर पड़ता है, इसलिए वह मुलायम सिंह के साथ जाकर उत्तर प्रदेश में अपने फिर से हो रहे उत्थान पर विराम लगाना नहीं चाहती। लेकिन ए राजा के इ्रस्तीफे पर बने तनाव के बीच जयललिता का जो समर्थन उसे मिला, उसके बाद अब डीएमके के बिना भी सरकार चलाने को कोर्इ्र न कोई फार्मूला उसे दिखाई पड़ गया है।

ए राजा के इस्तीफे के बाद कांग्रेस राहत की सांस ले रही हो, ऐसा मानना गलत होगा, क्योंकि राष्ट्रमंडल खेलों में हुए भ्रष्टाचार का मामला भी उसके गले की हड्डी बना हुआ है। अब शीला दीक्षित के इस्तीफे के लिए भी कांग्रेस पर दबाव बढ़ सकता हैए क्योंकि राष्ट्रमंडल खेलों के नाम पर सबसे ज्यादा पैसा तो दिल्ली की शीला सरकार ने ही किया है और भ्रष्टाचार की सबसे ज्यादा राशि शीला सरकार द्वारा खर्च किए गए पैसे में ही है। (संवाद)