यदुरप्पा सरकार का वर्तमान संकट उसका तीसरा बड़ा संकट है। इस संकट में पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने श्री यदुरप्पा का साथ देने का फैसला किया है। उसके इस निर्णय के पीछे एक कारण शायद बिहार में मिली उसकी भारी सफलता है अथवा वहां कांग्रेस की हुई शर्मनाक हार। केन्द्र के अनेक भाजपा नेताओं का मानना है कि श्री यदुरप्पा का संकट उनके द्वारा खुद खड़ा किया गया है। लेकिन पार्टी नेतृत्व की समस्या यह है कि वह राज्य स्तर के नेतृत्व के सामने लाचार नजर आ रहा है। जब अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी केन्द्र में प्रभावी थे, उस समय ऐसी स्थिति नहीं थी। लेकिन केन्द्र में भाजपा का कोई वैसा नेता नहीं रहा और इसके कारण राज्य के मुख्यमंत्रियों के खिलाफ चाहते हुए भी केन्द्रीय नेतृत्व कोई कार्रवाई नहीं कर सकता।
यदुरप्पा सरकार का पहला संकट उस समय खड़ा हुआ, जब बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं ने अक्टूबर 2008 में बगावत कर दी। उस समय मुख्यमंत्री उनके खिलाफ कार्रवाई करना चाहते थे, जबकि वे दोनों भाई सरकार को ही गिराने पर तुले हुए थे। सरकार लगभग गिर ही गई थी, लेकिन पार्टी के केन्द्रीय आलाकमान ने दोनों पक्षों के बीच में समझौता करवा दिया। समझौते के तहत दोनों भाइयों के व्यावसायिक हितों की रक्षा की गई और उनके कहे अनुसार मुख्यमंत्रियों ने अपने मंत्रिमंडल से अपनी एक खास मंत्री को बाहर का रास्ता दिखा दिया। जाहिर है, उस लड़ाई में बाजी दोनों भाइयों के हाथों में रही, हालांकि श्री यदुरप्पा अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाने मे सफल रहे।
श्री यदुरप्पा ने अपने लिए संकट पिछले महीने उस समय खड़ा कर लिया, जब उन्होने अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल करते हुए कुछ मंत्रियों को हटा दिया। तब 13 पार्टी विधायकों, जिनमें दो मंत्री भी शामिल थे और 5 समर्थन दे रहे निर्दलीय विधायकों ने सरकार से समर्थन वापसी का पत्र राज्यपाल को सौंप दिया। तब यदुरप्पा ने विधानसभा अध्यक्ष के सामयिक हस्तक्षेप से अपनी सरकार बचाई। उनके सरकार बचाने के तरीके पर अभी भी विवाद चल रहा है। उन्होंने एक सप्ताह के अंदर विधानसभा का दो बार विश्वास प्रस्ताव पर मतदान कराने का इतिहास भी बनाया।
वर्तमान संकट मुख्यमंत्री और उनके रिश्तेदारों के जमीन घोटाले में शामिल होने से ताल्लुक रखता है। भाजपा के लिए वह संकट बहुत ही खराब समय पर आया है। आज जब भाजपा केन्द्र में 2 जी स्पेक्ट्रक और राष्ट्रमंडल खेलों के घोटाले में मनमोहन सिंह सरकार को घेरने में लगी हुई है, उस समय कर्नाटक का यह मसला उसकी परेशानी का सबब बन गया है।
सवाल उठता है कि आखिर क्यों पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व का यदुरप्पा के सामने झुकना पड़ा? इसका एक कारण तो शायद यह है कि अपने तीसरे संकट के दौरान श्री यदुरप्पा ने केन्द्रीय आलाकमान के सामने बहुत कड़ा रवैया अख्तियार कर रखा था। पहले दो संकटों के दौरान उनका यह रवैया नहीं देखा गया था। उन्होंने केन्द्रीय नेतृत्व को दो टूक शब्दों में कह दिया कि कर्नाटक की उनकी सरकार उनके कारण बनी है।
केन्द्रीय नेतृत्व के श्री यदुरप्पा के सामने झुकने का एक कारण यह भी है कि वह दक्षिण के इस राज्य में शक्तिशाली लिंगायत समुदाय को नाराज नहीं करना चाहता। गौरतलब है कि श्री यदुरप्पा इसी समुदाय से आते हैं। इसके अलावे एक कारण उनके उत्तराधिकारी के चुनाव की समस्या भी है। उनका उत्तराधिकारी कौन होगा, इसके बारे में उनसे पूछे बिना शायद केन्द्रीय नेतृत्व कोई निर्णय ही नहीं ले सकता। यदुरप्पा ने साफ शब्दों में कह दिया था कि यदुरप्पा का उत्तराधिकारी सिर्फ यदुरप्पा ही हो सकता है। मुख्यमंत्री ने राज्य के मठों का समर्थन हासिल करने में भी सफलता प्राप्त की।
यदुरप्पा के बच जाने का एक बहुत बड़ा कारण पंचायतों के चुनाव भी हैं। कुछ सप्ताह के अंदर ही ये चुनाव वहां हो रहे हैं। इस समय राज्य सरकार में फेरबदल कर पार्टी नेतृत्व पंचायत चुनावों में अपनी स्थिति खराब नहीं करना चाहता था। यदुरप्पा ने अपने पक्ष में विधायको ंऔर सांसदों को भी कर लिया था और वे कह रहे थे कि मुख्यमंत्री ने कोई गलत काम किया ही नहीं है। पार्टी नेतृत्व का लग रहा था कि यदि श्री यदुरप्पा को उनकी मर्जी के खिलाफ हटा दिया गया, तो राज्य में पार्टी का ही विभाजन हो सकता है। इस विभाजन से भले ही श्री यदुरप्पा को काई फायदा नहीं हो, लेकिन पार्टी का तो नुकसान हो ही जाएगा।
यदुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाने में केन्द्रीय नेतृत्व की विफलता का एक नतीजा तो यही हुआ है कि केन्द्र सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के मसले पर उसकी लड़ाई नैतिक रूप से कमजोर पड़ गई है। भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने के नैतिक बल का उसे खुद अभाव सा हो गया है। (संवाद)
भाजपा ने अपना नैतिक बल खोया
उसका कर्नाटक संकट जारी है
कल्याणी शंकर - 2010-11-25 17:44
जबसे भाजपा ने कर्नाटक विधानसभा का चुनाव जीतकर वहां अपनी सरकार बनाई है, उसी समय से वहां की उसकी सरकार के सामने एक के बाद एक संकट खड़े होते रहे हैं। भाजपा की यदुरप्पा सरकार के ढाई साल पूरे हो रहे हैं और इस बीच लगातार वह सरकार अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती आ रही है।