2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर संयुक्त संसदीय दल (जेपीसी) की जांच के मसले पर दोनों पक्ष अपने अपने रुख पर कायम है। दोनों के बीच ले देकर मामले को हल नहीं किया। दोनों में से किसी ने भी बीच का कोर्इ्र रास्ता नहीं निकाला। आश्चर्य की बात है कि सरकार ने भी इस मसले पर अड़ियल रूख अपनाया, जबकि उसे पता है कि यह मामला आसानी से यहीं समाप्त होने वाला नहीं है। यदि राजनैतिक पार्टियों ने सरकारी पैसों के गबन पर अपने रवैयों में बदलाव नहीं लाया, तो आने वाले अनेक संसदीय स़त्रों में इसी तरह की कहानी दुहराई जा सकती है।
आखिर सरकार जेपीसी से भाग क्यों रही है? न तो सरकार ने और न ही कांग्रेस पार्टी ने इस बारे में खुलकर कुछ कहा है। सरकार यदि जेपीसी के लिए तैयार नहीं होने पर दृढ़ है, तो विपक्ष भी अपनी बात पर उतना ही अडिग है कि वह जेपीसी से कम पर तैयार नहीं होगा। जो कुछ हो रहा है, वह बोफोर्स घोटाले के प्रकाश में आने के बाद के दिनो की याद दिला देता है। उस समय भी कुछ ऐसा ही हो रहा था। और ऐसा होते होते विपक्ष के लोकसभा सांसदों ने सदन की सदस्यता से ही त्याग पत्र दे दिया था।
कांग्रेस ने इस मसले पर जानबूझकर यह फैसला लिया है। हालांकि उस पर अपने सहयोगी डीएमके और तृणूमल कांग्रेस का दबाव है कि जेपीसी के लिए हां कर दे। इसका कारण है कि पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में आगामी साल चुनाव होने जा रहे हैं और उन चुनावों में तृणमूल कांग्रेस और डीएमके का सबकुछ दाव पर लगा हुआ है। ये दोनों पार्टियां नहीं चाहती कि उनके राज्यों के चुनावों में भ्रष्टाचार का यह मसला कोई बड़ा मुद्दा बने। यदि इस पर हो रहा राष्ट्रव्यापी हंगामा विधानसभा के चुनावों तक जारी रहा, तो फिर दोनों पार्टियों का काम बहुत कठिन हो जाएगा।
अबतक हमारे देश के लोकतांत्रिक इतिहास में 4 बार जेपीसी के द्वारा भ्रष्टाचार के मामले की जांच की गई है। वे जांच दोषियों को दंडित करने अथवा मामलों की तह तक जाने मे सफल नहीं रही हैं। पहली बार जेपीसी का गठन बोफोर्स घोटाले के बाद किया गया था। वह 1987 का साल था। तब केन्द्र में राजीव गांधी की सरकार थी और सरकार को संसद में बहुत बड़ा बहुमत प्राप्त था। तब जेपीसी के गठन की पहल सरकार की तरफ से ही की गई थी। विपक्ष ने तब उस जेपीसी का बहिष्कार किया था। जब उसकी जांच रिपोर्ट आई, तो विपक्ष ने उसे मानने से इनकार कर दिया और उसके सभी लोकसभा सांसदों ने सदन की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।
दूसरी बार जेपीसी का गठन हर्षद मेहता के घोटालों की जांच के लिए किया गया था। वह 1992 की घटना है और तब मनमोहन सिंह नरसिंह राव सरकार में वित्त मंत्री थे। जेपीसी ने घाटाले का दोष व्यवस्था की विफलता पर मढ़ दिया और कुछ सुझाव भी दे डाले। उन सुझावों पर कुछ काम नहीं हुआ। घोटाले का मुख्य अभियुक्त हर्षद मेहता को अदालत ने 4 साल की सजा सुनाई और जेल में ही उसकी मौत हो गई। उसकी संपत्ति को नीलाम कर सरकारी कोष और बैंकों को हुई क्षति की भरपाई की गई।
तीसरी बार जेपीसी का गठन एनडीए की अटल बिहार वाजपेयी के समय में हुआ। 2001 में अहमदाबाद शेयर घोटाले की जेपीसी से जांच हुई थी। उसमें दलाल केतन पारेख शामिल था। उसने अनेक सुझाव दिए थे, जिस पर आगे कार्रवाई नहीं हुई। घोटाले की राशि को रिकवर करने में सफलता मिल गई थी। 2003 में कोला जेपीसी का गठन शरद पवार की अध्यक्षता में किया गया था।
केन्द्र सरकार द्वारा जेपीसी के लिए तैयार नहीं होने का सबसे बड़ा कारण शायद संसद में उसका अल्पमत में होना है। लोकसभा में युपीए के लोकसभा सांसदों की संख्या 259 है, जो बहुमत से 14 कम है। जाहिर है, यदि जेपीसी में लोकसभा से 30 सदस्य लिए गए, तो उसमें सत्ता पक्ष से 14 और विपक्ष से 16 सांसद होंगे। राज्य सभा में तो कांग्रेस की स्थिति और भी ज्यादा खराब है। राज्य सभा के 243 सदस्यों में मात्र 91 सदस्य ही यूपीए के हैं। यानी जेपीसी के राज्य सभा के 15 सदस्यों में 6 यूपीए के और 9 विपक्ष के होंगे। यानी कुल 45 जेपीसी सदस्यो में 25 विपक्ष के और 20 सत्ता पक्ष के हांेगे। जाहिर है सरकार को लगता है कि जेपीसी जांच बैठाकर वह अपना काम कठिन कर लेगी। जेपीसी की कार्रवाइयों के बीच वह मीडिया ट्राइल का शिकार होती रहेंगी। और कांग्रेस इस स्थिति से अपने आपको बचाना चाहती है। जेपीसी का गठन करने के बाद सपा और बसपा के सांसदों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाएगी। कांग्रेस नहीं चाहती है कि वह उत्तर प्रदेश की इन दोनों पार्टियों के दबाव में फिर से आ जाए। (संवाद)
जेपीसी के मामले ने देश को हिला दिया है
सबकी निगाहें अगले विधानसभा चुनावों पर
कल्याणी शंकर - 2010-12-10 13:09
संसद का शीतकालीन सत्र बिना कोई काम किए समाप्त हो गया है। सत्ता और विपक्ष के बीच जेपीसी के मसले पर हो रहे तकरार के कारण संसद का सत्र तो समाप्त हुआ, लेकिन उसमें चल रहा गतिरोध अभी भी बरकरार है।