2009 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की सीटों में 60 से भी ज्यादा का इजाफा हो गया और इस बार सरकार पहले से ज्यादा आरामदेह स्थिति में दिखाई पड़ रही थी। वामदलों की चुनाव के दौरान फजीहत हो गई थी। अब सरकार को उनकी तनिक भी परवाह नहीं थी। इसके बावजूद सरकार पर दबावों का अंत नहीं हुआ। डीएमके व अन्य घटक दल अपने अपने हितों को साधने के लिए तरह तरह के दबाव बनाते रहे।

कांग्रेस की अध्यक्षा के रूप में और यूपीए की चेयरपर्सन के रूप में भी सोनिया गांधी ने घटक दलो से तालमेल बनाए रखने का जिम्मा अपने ऊपर लिया। और उन्होंने अपनी जिम्मेदारी जिस प्रकार से निभाई उससे यह साफ लगा कि वे अवसरवादिता की राजनीति अपना रही हैं। समर्थक अथवा यूपीए के घटक दलों के दबाव में आकर वह ढुलमुल हो जाती हैं और कोई कठोर निर्णय करने में सफल नहीं हो पाती हैं।

मनमोहन सरकार के पहले कार्यकाल में जब अमेरिका के साथ परमाणु मसले पर वामपंथी सरकार पर दबाव डाल रहे थे, उस समय सोनिया गांधी का यही चेहरा दिखाई पड़ा। प्रधानमंत्री उस मसले पर सख्त रुख अपनाने के लिए तैयार थे। उन्होंने कुछ सख्त बयान भी दे डाले थे। लेकिन सोनिया गांधी को सरकार गिरने का डर सताने लगा और वे वाम दबावों में आकर परमाणु मसले को ठंढे बस्ते में डालने को तैयार भी हो गई थी। उनके उस रुख के कारण ही वामपंथी समर्थक सरकार से समर्थन वापसी लेने की हद तक चले गए।

यदि सोनिया गांधी का रुख पहले से ही परमाणु करार के मसले पर कड़ा होता, तो शायद विरोध के बावजूद वामपंथी सरकार के साथ बने रहते, क्योंकि सीपीएम नेता ज्योति बसु का उस मसले पर अतिवादी रुख नहीं था। पर सोनिया गांधी ने कमजोरी दिखाई और वामपंथी कड़े तेवर के होते गए। उसके बाद तो इसका विरोध करते करते वे उस हद तक चले गए, जहां से वापस आना उनके लिए संभव ही नहीं था।

दूसरी बार सरकार के गठन के समय भी सोनिया गांधी दबाव में दिखाई पड़ी, जबकि उनकी खुद की पार्टी को पहले से ज्यादा सीटें आई थीं और अब उनके गठबंधन की सरकार की बाहरी समर्थन पर निर्भरता बहुत कम हो गई थी। सोनिया गांधी के करुणानिधि के दबाव में आने का ही नतीजा था कि ए राजा को फिर से मंत्रिमंडल में लिया गया और उन्हें उनकी इच्छा के मुताबिक संचार मंत्रालय मिल भी गया।

ए राजा के कार्यकाल में 2008 में संचार मंत्रालय में 2 जी स्पेक्ट्रम से संबंधित भ्रष्टाचार के किस्से पहले से ही खबरों में आ रहे थे। जाहिर है कि उन्हें सरकार में लिया ही नहीं जाना चाहिए था और ले भी लिया गया था, तो उन्हें संचार मंत्रालय दिया ही नहीं जाना चाहिए था। पर सोनिया गांधी करुणानिधि के दबाव में आ गईं और संचार मंत्रालय राजा को दिलवा दिया। उसके बाद भी घोटाले के किस्से खबरों का रूप लेते रहे, पर ए राजा को हटाया नहीं जा सका, क्योंकि करुणानिधि के दबाव में सोनिया उन्हें हटवाना नहीं चाहती थी। यदि सोनिया उस तरह के दबाव में आकर काम नहीं करतीं, तो राजा की पहले ही सरकार से बिदाई हो जाती और कैग रिपोर्ट के बाद देश में जो राजनैतिक तूफान आया हुआ है, वह दिखाई ही नहीं पड़ता।

आखिर सोनिया गांधी इस तरह दबाव में बार बार क्यों आ जाती हैं? इसका एक कारण तो यही हो सकता है कि उन्हें सत्ता गंवाने का डर बार बार सताता रहता है। 1999 में उनके अध्यक्षकाल में कांग्रेस को सबसे कम सीटें 112 मिली थीं। उसके कारण लगता है उन्हें अपने आप पर और अपनी पार्टी पर भरोसा ही नहीं रहा। उन्हें लगता है कि कांग्रेस अपने बूते खड़ी नहीं हो सकती, इसलिए सहयोगियों और समर्थकों को अपने साथ बनाए रखना जरूरी है।

लेकिन इसके कारण जो ढुलमुल नीतियां अपनाई जाती हैं, उनसे तो पार्टी का नुकसान ही होता है। आज जेपीसी जांच की मांग के लिए देश भर में विपक्षी पार्टियां जो तूफान खड़ा कर रहे हैं, वह तो उसी राजनीति का फल है। इसलिए आज जरूरत इस बात की है कि सोनिया गांधी राजनैतिक निर्णय लेने में सख्ती बरतें। (संवाद)