सोनिया गांधी का महाधिवेशन के दौरान यह रुख इस तथ्य के बावजूद रहा कि उनकी पार्टी के ऊपर 2 जी स्पेक्ट्रम, राष्ट्रमंडल खेल और आदर्श सोसाइटी घोटाले का साया पड़ रहा है और उसके नेतृत्व वाली सरकार विपक्ष की आंदोलनकारी चुनौतियों का सामना कर रही है। इस समय महंगाई भी चरत पर पहुंची हुई है। आवश्यक वस्तुओं के मामले मे महंगाई की दर कुछ ज्यादा ही है। ऐसे माहौल में कांग्रेस ने सरकार की उपलब्धियां गिनाने के बदले विपक्ष के खिलाफ आक्रामक तेवर अपनाने को ज्यादा महत्व दिया। यही कारण है कि भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता को लेकर भाजपा के खिलाफ आग उगलने में किसी प्रकार की कोई रियायत नहीं बरती।

क्या कांग्रेस ने इस पर विचार किया कि आजादी के बाद उसकी जो मजबूती थी, वह कहां गायब हो गई? उस समय कांग्रेस के पास वे नेता थे, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था और वे सभी अपने अपने क्षेत्रों के बड़े और कद्दाबर नेता हुआ करते थे। उस समय कांग्रेस को पार्टियों की एक पार्टी कहा जाता था। यानी माना जाता था कि कांग्रेस कोई एक पार्टी नहीं है, बल्कि यह अनेक पार्टियों द्वारा मिलकर बनाई गई एक महा पार्टी है।

लेकिन समय बीतने के साथ स्थानीय स्तर पर कांग्रेस के दिग्गज नेताओं का अभाव होता चला गया। स्थानीय स्तर पर पार्टी के अंदर मजबूत नेताओं को उभरने ही नहीं दिया गया। कांग्रेस देश भर में मजबूत बनी रही, और केन्द्रीय आलाकमान सभी राज्यों के बारे में सबकुछ निर्णय करता रहा। टिकट बांटने से मुख्यमंत्री के लिए व्यक्ति चुनने का जिम्मा तक कांग्रेस आलाकमान ने अपने ऊपर ले लिया। कार्यसमिति के सदस्यों तक के मनोनयन का काम कांग्रेस के शिखर नेता के ऊपर छोड़ा जाने लगा। 1997 में अपवाद के स्वरूप् पहली बार कोलकाता में कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों के चुनाव हुए थे।

स्थानीय स्तर कांग्रेस के मजबूत नेताओं की कमी के कारण विपक्ष में मजबूत नेता उभरे। जाति और संप्रदाय की राजनीति करने वाली पार्टियां अस्तित्व में आईं और उन्होंने कांग्रेस को कमजोर करना शुरू कर दिया। उनसे कमजोर बनी कांग्रेस अंत में सत्ता पाने के लिए उनके सहयोग पर ही निर्भर होगी। लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, मायावती, करुणानिधि, शरद पवार व उनके जैसे अन्य नेताओं की सहायता कांग्रेस ने समय समय पर ली और अभी भी लेते रहने के लिए अभिशप्त है। कांग्रेस उन पर निर्भर है, क्योंकि कांग्रेस का लोगों के साथ अपने खुद का संबंध या तो समाप्त अथवा बहुत ही कमजोर हो गया है।

कांग्रेस नेतृत्व के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह अपने आपको लोगों के साथ कैसे जोड़े। उसे अपने आपको उस पीढ़ी के साथ जोड़ना है, जिन्होंने आजादी की लड़ाई नहीं देखी। उसे विपक्ष की सही ताकत को भी पहचानना है और उसके बाद उसकी चुनौतियों का सामना करना है। लेकिन महाधिेवेशन से ऐसा कुछ भी निकल कर नहीं आया, जिससे लगता हो कि कांग्रेस उस दिशा में कुछ करने की सोच रही है। उसने सिर्फ विपक्ष और खासकर भाजपा को कोसने में ही अपना वक्त जाया किया।

सोनिया गांधी ने भ्रष्टाचार का सामना करने के लिए एक चार सूत्री कार्यक्रम की भी चर्चा की, लेकिन उन्होंने अपने भाषण में 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल और आदर्श सोसायटी घोटाले की चर्चा तक नहीं की। गौर तलब है कि आज पूरे देश में इन्हीं घोटालों की चर्चा है और इन्हें लेकर विपक्ष कांग्रेस को मुख्य रूप से निशाना बना रहा है।

कांग्रेस ने चालाकी दिखाते हुए प्रधानमंत्री की ईमानदारी को अपना ढाल बनाया, क्योंकि मनमोहन सिंह के आलोचक भी यह मानते हैं कि वे व्यक्तिगत रूप से ईमानदार हैं, लेकिन कांग्रस यह भूल गई कि विपक्ष प्रधानमंत्री को इसलिए नहीं घेर रहा है कि वह उन्हें भ्रष्ट मानता है, बल्कि उन्हें इसलिए घेर रहा है क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप मंे अपनी ताकत का इस्तेमाल करते हुए भ्रष्टाचार को रोकने की कोशिश नहीं की। जाहिर है, प्रधानमंत्री पर अपनी जवाबदेही से चूकने का आरोप है न कि भ्रष्टाचार में लिप्त होने का।

आमतौर पर महाधिवेशन में पार्टी को दिशा देने की कोशिश की जाती है। इसके दौरान सोनिया गांधी ने विपक्ष के खिलाफ कड़े तेवर तो दिखाए, लेकिन भविष्य में कुछ विपक्षी पार्टियों के साथ संबंध स्थापित करने की संभावना को पूरी तरह से नकारा नहीं। जाहिर है बिहार की हार के बाद राहुल गांधी की एकला चलो की नीति पर कांग्रेस डगमगाती नजर आ रही है। (संवाद)