पर हमारा दुर्भाग्य यह है कि केन्द्र और राजस्थान सरकार उनकी मांगों पर स्पष्ट है ही नहीं। वे आरक्षण के लिए कोई पहली बार आंदोलन नहीं कर रहे हैं। उन्हें पिछड़े वर्गों के तहत आरक्षण पहले से की मिल रहा है। पिछड़े वर्गों के तहत वे राज्यों में ही नहीं, बल्कि केन्द्र में भी आरक्षण पा रहे हैं। पर उससे वे संतुष्ट नहीं हैं। उन्हें लगता है कि पिछड़े वर्गो के तहत उनके रखे जाने के कारण उन्हें आरक्षण का लाभ मिल ही नहीं पा रहा है। इसलिए पहले वे अनुसूचित जनजाति के तहत रखे जाने की मांग कर रहे थे। इसका कारण यह है कि पिछड़े वर्गों के तहत प्रतिस्पर्धा ज्यादा होती है, जबकि अनुसूचित जनजाति के तहत सबसे कम, इसलिए वे आरक्षण का सबसे आसान रास्ता चुनना चाह रहे थे।
पर जब राज्य सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि किसी जाति को अनुसूचित जनजाति में शामिल करवाना उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है और संविधान में दो तिहाई बहुमत के साथ संसद द्वारा संशोधन करने के बाद ही किसी जाति को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जा सकता है, तो गुर्जरों ने अपनी मांग बदल दी। अब वे राज्य सरकार से अपने लिए अलग 5 फीसदी का कोटा मांग रहे हैं। अनुसूचित जनजाति में शामिल होने की उनकी मांग का राजस्थान की मीणा जाति के लोग विरोध करते थे। इसलिए राजस्थान में एक बार तो मीणा और गुर्जर समुदाय के बीच संधर्ष की स्थिति बनने लगी थी और भारी खून खराबे की आशंका भी बन गई थी। दोनों समुदायों के समझदार लोगों के हस्तक्षेप के बाद उनके बीच का तनाव खत्म हो सका था। इस बार कोई मीणा गुर्जर भिड़ंत की समस्या नहीं है, क्योंकि अब गुर्जर अपने आपको अनुसूचित जनजाति में रखे जाने की मांग नहीं कर रहे, बल्कि पिछड़े वर्गो की श्रेणी में ही अलग से 5 फीसदी आरक्षण की मांग कर रहे हैं।
लेकिन गहलौत सरकार उनकी मागों पर साफ साफ रुख नहीं अपना रही है। वह न तो उनकी मांगों को मान रही है और न ही खारिज कर रही है। जाहिर है, सरकार का यह गैर जिम्मेदाराना रवैया है और इसके कारण लोगों को भारी नुकसान हो रहा है। आरक्षण को लेकर अब सरकार न्यायपालिका पर निर्भर होने लगी हैं, जिसे उचित नहीं माना चाहिए। गुर्जरों की मांगों को भी अदालती तरीके से सुलझाने की कोशिश हो रही है। अदालत ने गुर्जरों को 5 फीसदी आरक्षण देने को अनुचित करार दिया है, क्योंकि सरकार ने अदालत को गुर्जरों के आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन से संबंधित कोई आंकड़ा दिया ही नहीं है। सच कहा जाए तो सरकार के पास उस तरह के आंकड़े हैं ही नहीं। न ही सरकार के पास गुर्जरों की संख्या का कोई विश्वसनीय आंकड़ा है, जिसे पेश कर वह उनके लिए 5 फीसदी आरक्षण को न्यायसंगत ठहरा सके।
दरअसल गुर्जर की आरक्षण समस्या अशोक कुमार गहलौत की ही देन है। एक बार मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने जाटों को पिछड़ा वर्ग में शामिल कर लिया, जबकि पहले वे पिछड़े वर्ग में नहीं थे। जाट सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से पिछड़े नहीं हैं, लेकिन उन्हें पिछड़े वर्गों में शामिल कर लिया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित नौकरियों का बहुत बड़ा हिस्सा जाटों को मिलने लग गया है। कुछ का तो मानना है कि पिछड़े वर्गो ंके लिए आरक्षित कोटे की 80 फीसदी सुविधाएं जाट ही हड़प लेते हैं और पिछड़े वर्गों की शेष जातियों को उसका लाभ नहीं मिल पाता है। इसके कारण जाटो के अलावा अन्य सभी पिछड़े वर्गों ंमें निराशा है। उन पिछड़े वर्गो में गुर्जर सबसे ज्यादा संगठित तथा जुझारू हैं, इसलिए अपने हिस्से का कोटा जाटों द्वारा हड़ने जाने का वे अपने तरीके से विरोध कर रहे हैं। वे जाटोे से संधर्ष नहीं करना चाहते, इसलिए उन्हें पिछड़े वर्गो से निकाले जाने की मांग नहीं करते, बल्कि अपने लिए कोई ऐसी व्यवस्था चाहते हैं जिसके तहत उन्हें आरक्षण का लाभ मिले।
जाहिर है जाटों को पिछड़े वर्गो में शामिल कर अशोक गहलौत ने जो गलती की, उसी की सजा पूरे राजस्थान को आज गुर्जर आंदोलन के रूप में मिल रहा है। पिछड़े वर्गो को आरक्षण की सुविधा संविधान ने उन जातियों को लाभ पहुंचाने के लिए दी है, जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं और जिनको सरकारी नौकरियों में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा हो। अदालत का कोई भी फैसला संविधान के इसी प्रावधान के तहत आता है। जाटों को पिछड़े वर्गो में शामिल करते समय गहलौत सरकार को यह देखना चाहिए था कि क्या वाकई वे सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं और क्या वाकई उनको सरकारी नौकरियों में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पा रहा है। लेकिन उन्होंने यह सब देखा ही नहीं और राजनैतिक कारणों से उन्हें पिछड़े वर्गो की सूची में शामिल कर दिया। हालांकि जिस फायदे के लिए उन्होंने जाटों को पिछड़े वर्गों में शामिल किया था, वह फायदा उन्हें मिला भी नहीं। उस निर्णय के बाद हुए विधानसभा चुनाव में उनकी कांग्रेस की हार हो गई थी।
बहरहाल जाटों को पिछड़े वर्गो में शामिल करने के निर्णय को पलटना मुमकिन नहीं है, लेकिन राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही होगा कि पिछड़े वर्गो को मिल रहे आरक्षण का लाभ ज्यादा से ज्यादा जातियों को मिले। श्री गहलौत खुद पिछड़े वर्ग से आते हैं, पर उनका दुर्भाग्य यह है कि यह सारा खेल उन्हीं का बिगाड़ा हुआ है। वह एक काम तो यह कर सकते हैं कि गुर्जरों से जाति जनगणना पूरा होने तक इंतजार करने को कहें। उसके बाद सरकार के पास उनकी आबादी से संबंधित आंकड़े आ जाएंगे। फिर उन आंकड़ोे के आधार पर लिए गए निर्णय को सरकार अदालत में भी सही ठहरा सकती है। अगले साल जाति जनगणना का काम पूरा हो जाएगा। उसके बाद पिछड़े वर्गो की दो या दो से अधिक सूचियां बनाकर गुर्जरों की समस्या का समाधान किया जा सकता है और किसी एक जाति द्वारा ही पिछड़े वर्गो को मिल रही सारी सुविधाओं को डकार जाने पर रोक लगाई जा सकती है। लेकिन क्या सरकार इस तरह का वायदा आंदोलन कर रहे गुर्जर नेताओं से करेगी? (संवाद)
गुर्जर आंदोलन पर सरकार की चुप्पी
जाति जनगणना का सहारा गहलौत क्यों नहीं लेते?
उपेन्द्र प्रसाद - 2010-12-28 13:14
गुर्जर आंदोलन लगातार तेज होता जा रहा है और सरकार उस पर चुप्पी साधे हुए है। आंदोलन का केन्द्र तो राजस्थान है, पर हम देख चुके हैं कि यह उसी राज्य तब सीमित नहीं रह जाता है। देश की राजधानी दिल्ली में भी यह प्रवेश कर चुका है। जाहिर है यह सिर्फ राजस्थान की गहलौत सरकार की ही समस्या नहीं है, बल्कि केन्द्र सरकार को भी इसमें हस्तक्षेप करना होगा। दोनों सरकारों को स्पष्ट करना होगा कि उनकी मांगे मानने लायक है या नहीं। यदि उनकी मांगे मानने लायक हैं, तो उन्हें मांग ली जानी चाहिए और यदि वे पूरी नहीं हो सकतीं, तो उन्हें साफ साफ कह दिया जाना चाहिए कि वे जो मांग रहे हैं, वे उन्हें मिलने वाला नहीं है।