आंध्र के नए मुख्यमंत्री अपनी चुनौतियों का सामना करने में अपने आपको अक्षम पा रहे हैं। केन्द्र सरकार के हाथ बंधे हुए हैं, क्योंकि श्री रेड्डी सोनिया गांधी की पसंद हैं। टीआरस, तेलुगू देशम और जगनमोहन रेड्डी तो मुख्यमंत्री की नींद हराम कर ही रहे हैं, तेलंगना क्षेत्र के कांग्रेसी विधायक भी अलग राज्य की मांग पर अपना रुख कड़ा किए हुए हैं।

फरवरी महीने में संसद का बजट सत्र शुरू होगा। इसमें भी 2 जी स्पेक्ट्रम और राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटाले की जांच के लिए जेपीसी के गठन की मांग को लेकर विपक्ष द्वारा हंगामा किया जाना लगभग निश्चित दिखाई पड़ रहा है। इस मसले पर पूरा विपक्ष एक है। दूसरी तरफ मुद्रास्फीति और महंगाई भी देश के सामने बड़ी समस्या बनी हुई है। यदि संसद का सत्र चला भी तो इस मसले पर महासंग्राम जरूर होगा। अभी घोटालों का मौसम चल रहा है। कुछ एजेंसियां इनकी जांच भी कर रही हैं। जांच के दौरान नए नए मामले भी उजागर हो सकते हैं और उसके कारण भी राजनैतिक गर्मी को नई ऊंचाई मिलने की संभावना है।

2011 में कांग्रेस के चेहरे में बदलाव आने की भी संभावना है। पिछले दिनों बुराड़ी में कांग्रेस का महाधिवेशन हुआ। उसके बाद अब संगठनात्मक फेरबदल भी हो सकते हैं। नए साल में आनंद शर्मा, सीपी जोशी, जयराम रमेश और दिग्विजय सिंह जैसे नेता प्रमुख भूमिका निभाते दिखाई पड़ सकते हैं, जबकि, एस एम कृष्णा, विलासराव देशमुख, सुशील कुमार शिंदे और मुकुल वासनिक जैसे नेताआंे का सितारा गर्दिश में दिखाई पड़ सकता है। मंत्रिमंडल में भी फेरबदल हो सकता है और युवाओं को ज्यादा महत्व मिल सकता है। कुछ मंत्रियों को हटाया भी जा सकता है और उन्हें संगठन के मोर्चे पर लगाया जा सकता है।

इसके साथ साथ कांग्रेस को अनेक विधानसभा चुनावों का सामना भी करना है। इसी साल तमिलनाडु, केरल, असम, पश्चिम बंगाल और पुदुचेरी में आमचुनाव होने वाले हैं। इन राज्यों में राहुल के जादू की भी परीक्षा होगी। इसी साल पार्टी की गठबंधन राजनीति की भी परीक्षा होगी। पश्चिम बंगाल और केरल में कांग्रेस और वामदलों- दोनों के बहुत कुछ दाव पर लगे हुए हैं। केरल में तो कांग्रेस के नंतृत्व वाला और सीपीएम के नेतृत्व वाला मार्चा बारी बारी से सरकार में आता है। इस चुनाव के बाद बारी कांग्रेस के नेतृत्व वाले मोर्च की है। वैसे भी सीपीएम में गुटबंदी चल रही है और वह वहां एकबद्ध होकर कांग्रेस की चुनौतियां का सामना करती नहीं दिखाई दे रही है।

पश्चिम बंगाल में वामपंथी दल पिछले 43 सालों से सत्ता में है। वहां बदलाव की पूरी संभावना देखी जा सकती है। लेकिन वामपंथियों को मुख्य चुनौती ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस से मिल रही है और कांग्रेस की भूमिका तृणमूल की जूनियर पार्टनर की ही होगी। यदि दोनों मिलकर लड़ती है, तो फिर वहां सत्ता के बदलाव में किसी तरह का शक नहीं रह जाएगा। वैसे बिना कांग्रेस समर्थन के भी ममता बनर्जी की ताकत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वहां की सबसे बड़ी बात यह है कि लोग बदलाव चाहते हैं।

तमिलनाडु में करुणानीधि की पार्टी हैट्रिक लगाना चाहेगी। यदि कांग्रेस के साथ उसका समीकरण ठीकठाक रहा तो यह संभव भी हो सकता है, लेकिन कांग्रेस के साथ उसका संबंध कौन सा मोड़ लेगा, इसके बारे में अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता। करुणानिधि के सामने अभी समस्याओं का अंबार लगा है। उनकी पार्टी के ए राजा संचार घोटाले के केन्द्र में हैं। घोटाले की आंच उनके परिवार तक पहुंच सकती है। विपक्ष उनके खिलाफ लामबंद है और उनके अपने परिवार में भी उनके उत्तराधिकार को लेकर गृहयुद्ध छिड़ा हुआ है। कांग्रेस के रवैये के प्रति भी वे आश्वस्त नहीं हैं। यदि कांग्रेस उनके साथ गठबंधन भी करती है, तो इस बार उसकी शर्ते कठोर होंगी। वह ज्यादा से ज्यादा सीटों की मांग करेगी और चुनाव के बाद सत्ता में भागीदारी करना चाहेगी।

असम में कांग्रेस पिछले दो कार्यकाल से सत्ता में है। वह तीसरी बार भी सरकार बनाने के प्रयास में है। वहां के कांग्रेसी मुख्यमंत्री बीमार हैं और राज्य कांग्रेस में अनुशासनहीनता का माहौल है। वैसी हालत में कांग्रेस के लिए फिर से सत्ता में आना निश्चय की बहुत कठिन होगा। (संवाद)