यह अच्छा संकेत है कि राजखोबा ने कहा है कि वह बातचीत बिना किसी शर्त के करने को तैयार हैं। अब बातचीत शुरू करने के पहले उल्फा अपनी जनरल काउंसिल में बातचीत के मसलों पर चर्चा करेगा और उसके बाद उसके नेता केन्द्र सरकार के प्रतिनिधियों के साथ बातें करेंगे। केन्द्र सरकार की तरफ से भी बातचीत के लिए कोई शर्त नहीं है। उसका बस यही कहना है कि संविधान के दायरे में उल्फा की समस्या का समाधान ढूंढ़ने के लिए वह तैयार है। इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व प्रमुख पी सी हलदर को मघ्यस्थ नियुक्तकिया गया है। वे बातचीत की सफलता को लेकर आशावान हैं।
यह समय बातचीत के लिए सबसे अच्छा है। इसका पहला कारण तो यह है कि असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई को भी ऐसा ही लगता है। दूसरा कारण यह है कि उल्फा के नेता अब उम्रदराज हो रहे हैं और उनके परिवार वाले उनपर दबाव डाल रहे हैं कि वे अब शांतिपूर्ण जीवन अपनाएं। तीसरा कारण यह है कि उल्फा अब खुद पहले से कमजोर हो गई है। उसका असर कुछ इलाकों तक की सीमित हो गया है। अब लोग पहले की तरह उनसे डरते भी नहीं हैं। चौथा कारण यह है कि प्रधानमंत्री खुद राज्य सभा में असम का प्रतिनिधित्व करते हैं और अब वे चाहते हैं कि वहां जल्द से जल्द शांति स्थापित हो। पांचवां कारण यह है कि पडोसी देशों में उल्फा उग्रवादियों को पहले की तरह संरक्षण नहीं मिल रहा है। वहां उनका टिके रहना अब कठिन साबित हो रहा है।
छठा कारण यह है कि कांग्रेस को कुछ ही महीनों में विधानसभा के आमचुनाव का सामना करना है। पार्टी चुनाव में उल्फा समस्या को हल करने को एक बड़ा मुद्दा बनाना चाहेगी। इसमें सफल रहने के बाद पार्टी लगातार तीसरी बार वहां की सत्ता पर कब्जा जमाने की सोच सकती है। वहां वैसे भी विपक्षी पार्टियां कमजोर हैं। असम गण परिषद अपनी अंदरूनी समस्याओं से ग्रस्त है। भाजपा अभी भी वहां कमजोर है। मुस्लिम फ्रंट अपने बूते वहां चुनाव नहीं जीत सकता।
उल्फा आंदोलन 1979 में शुरू हुआ था। इसकी नींव रंगहार में पड़ी थी। शुरू में तो यह आंदोलन ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के आंदोलन के साथ मिला रहा। बाद में आसू का आंदोलन समाप्त हो गया, क्योंकि उसके नेता असम गण परिषद का गठन कर सरकार पर काबिज हो गए। पर उल्फा का आंदोलन समाप्तनहीं हुआ, क्योंकि उसके नेता अलग राष्ट्र की मांग कर रहे थे और संविधान के दायरे में अपनी समस्याओं को हल करने के हक में नहीं थे।
1990 में उल्फा को प्रतिबंधित कर दिया गया। प्रतिबंध के पहले और प्रतिबंध के बाद भी उल्फा के नेता हथियारबंद आंदोलन में रत रहे। उन्होंने तीन दशकों तक असम को आतंकित किया। बातचीत शुरू करने के लिए ऐसी शर्तें रखीं, जिन्हें माना ही नहीं जा सकता था। उन्होंने भारत में अपनी आतकी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए पड़ोसी देशों की जमीन का भी इस्तेमाल करना प्रारंभ कर दिया। उसका मुख्य कमांडर परेश बरुआ अभी भी म्यान्मार अथवा चीन से लगे सीमाप्रदेश में कहीं छिपा हुआ है।
परेश बरुआ के अलावा उल्फा के सभी नेता बातचीत को राजी हैं। राजखोबा इसके अध्यक्ष है। कानून की गिरफ्त में वे पहले ही आ गए थे। अब उन्हें जेल से बाहर कर दिया गया है, ताकि वे अन्य नेताओं के साथ मिलकर बातचीत के तौर तरीकों पर उनकी सहमति ले लें। उनके अलावा कुछ और भी प्रमुख नेताओं को जेल से रिहा कर दिया गया है। जाहिर है, बातचीत की सफलता के लिए अभी अच्छा माहौल है। केन्द्र सरकारण् राज्य सरकार और उल्फा नेताओं को इस माहौल का लाभ उठाना चाहिए। (संवाद)
भारत
असम में शांति का एक अच्छा मौका
केन्द्र को यह मौका नहीं गंवाना चाहिए
कल्याणी शंकर - 2011-01-07 11:41
जब उल्फा प्रमुख अरबिंद राजखोबा की जेल से रिहाई हुई, उस समय बहुत लोगों को आशा बंध गई कि उल्फा के कारण असम की उग्रवाद की समस्या का निदान अब हो सकता है। सभी पक्षों को रिहाई के बाद बदले माहौल का लाभ उठाना चाहिए और असम के हित में इस समस्या का समाधान करने के लिए आपस में मिल बैठकर बात करनी चाहिए।