कहा जा रहा था कि पिछले डेढ़ सालों के अनुभव के आधार पर प्रधानमंत्री विभागों के फेरबदल करेंगे, ताकि सरकार की जो कमजोरियां सामने आई हैं उन पर काबू पाया जा सके। यह भी कहा जा रहा था कि युवा लोगों को सरकार में जगह दी जाएगी और पहले से मंत्रिपरिषद में शामिल युवा मंत्रियों को प्रोन्नति दी जाएगी।

लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं किया। कोई व्यापक फेरबदल हुआ ही नहीं। प्रधानमंत्री को खुद कहना पड़ा कि व्यापक फेरबदल बजट सत्र के बाद होंगे। सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री को बजट सत्र का इंतजार क्यों है? इसके दो कारण हो सकते हैं। एक तो बजट सत्र के दौरान सरकार को अपने को बचाने की चिंता सताती रहेगी। भ्रष्टाचार के मामलो की संयुक्त संसदीय जांच समिति से मांग को लेकर विपक्ष अभी भी बजट सत्र के दौरान सरकार को परेशान करने का संकेत दे रहा है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि मनमोहन सिंह सरकार को लोकसभा में भी बहुमत का समर्थन हासिल नहीं है। उसे बहुमत का जुगाड़ करने के लिए जोड़ तोड़ का सहारा लेना पड़ता है। सीबीआई तक का इस्तेमाल करने की जरूरत भी उसे पड़ती रहती है। जाहिर है प्रधानमंत्री मंत्रालय में व्यापक फेरबदल और विस्तार को अंजाम देकर यूपीए के कुछ महत्वाकांक्षी सांसदों को अभी से विक्षुब्ध नहीं बनाना चाहते थे।

दूसरा कारण कुछ राज्यों में होने वाला विधानसभा का चुनाव भी है। केन्द्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार के संदर्भ में पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के विधानसभा चुनाव मनमोहन सिंह के लिए खास मायने रखते हैं। दोनों राज्यों में कांग्रेस दो क्षेत्रीय दलो के जूनियर पार्टनर के रूप में चुनाव में उतर सकती है। उस समय दोनों क्षेत्रीय पार्टियों से उसका किस तरह का संबंध बनता है और खासकर तमिलनाडु में किस तरह के नतीजे आते हैं, यह डीएमके के साथ कांग्रेस के भावी संबंधों को फिर से पारिभाषित करने वाला साबित हो सकता हैं। लगता है कि मनमोहन सिंह का व्यापक फेरबदल से अभी बचना उस अनिश्चित स्थितियों का ही परिणाम है।

डीएमके के ए राजा को प्रधानमंत्री अपनी सरकार से हटा चुके हैं। उनकी जगह उस पार्टी से ही किसी ओर को लिए जाने का मामला बनता था। एक नाम तो टी आर बालू का था, लेकिन प्रधानमंत्री उन्हें अपनी सरकार में लेने के लिए बहुत इच्छुक नहीं थे। दूसरा नाम करूणानिधि की बेटी कानीमोझी का था, पर 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में उनका नाम भी ए राजा के साथ उछला है। इसके अलावा संचार मंत्रालय को लेकर भी प्रधानमंत्री की डीएमके के साथ कोई सहमति नहंीे बनी होगी। इसका कारण यह है कि इस समय डीएमके के किसी व्यक्ति को संचार मंत्रालय देने का मतलब है सरकार द्वारा विपक्ष के और बड़े हमले को आमंत्रित करना। मनमोहन सिंह ऐसा इस समय कर नहीं सकते थे। तृणमूल कांग्रेस के किसी मंत्री को सरकार में न लेने के पीछे भी शायद पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव जिम्मेदार रहा होगा।

प्रधानमंत्री ने किसी मंत्री को सरकार से बाहर का रास्ता भी नहीं दिखाया है। मुकुल बासनिक और एम एस गिल का नाम सामने आ रहा था। राष्ट्रमंडल खेलों मंे सरकार की बदनामी होने के बाद श्री गिल का जाना तय माना जा रहा था। बिहार चुनाव में कांग्रेस की फजीहत होने के लिए मुकुल बासनिक के सरकार से बाहर होने की संभावना व्यक्त की जा रही थी। चुनाव के ठीक पहले मुकुल वासनिक को राहुल गांधी ने बिहार का प्रभारी बना दिया था और टिकट वितरण में उनको केन्द्रीय भूमिका दे दी गई थी, पर उन पर टिकट बेचने का इलजाम लग गया। बुराड़ी सम्मेलन में भी मुकुल बासनिक के खिलाफ बिहार के कांग्रेसियों ने तमाशा खड़ा किया था। उनके मंत्रिपद पर बने रहने से बिहार में राहुल गांधी की छवि भी खराब हो रही है, जहां अब माना जा रहा है कि मुकुल वासनिक ने जो कुछ भी किया, वह राहुल गांधी की जानकारी में ही नहीं, बल्कि रजामंदी से भी किया। इसलिए यह माना जा रहा था कि राहुल गांधी की छवि की रक्षा के लिए मुकुल को सरकार से बाहर कर दिया जाएगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।

फेरबदल के नाम पर कुछ मंत्रियों के मंत्रालयों में बदलाव किए गए हैं। खाद्य और उपभोक्ता मामले के मंत्रालय को शरद पवार से ले लेने के अलावा और बाकी बदलाव क्यों किए गए है, इसका कोई तर्क नहीं दिखाई देता। महंगाई के बीच अपने वक्तव्यों के लिए शरद पवार खासे बदनाम हो रहे थे। इसलिए वे खुद भी अब उस मंत्रालय को अपने पास नहीं रखना चाहते थे। इसलिए उम्मीद के मुताबिक उनसे वह मंत्रालय ले लिया गया। तीन राज्य मंत्रियों को कैबिनेट मंत्री का दर्जा दे दिया गया। ऐसा करते समय उत्तर प्रदेश की राजनीति को घ्यान में रखा गया है, जहां 2012 में विधानसभा के आमचुनाव होने हैं और राहुल गांधी अभी से वहां के लिए अपना मिशन चला रहे हैं।

सच कहा जाए तो इस फेरबदल में उत्तर प्रदेश की राजनीति सबसे ज्यादा हावी रही है। वहां के दो राज्य मंत्रियों को कैबिनेट में ले लिया गया। उस राज्य में कांग्रेस मुस्लिम मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की जी तोड़ कोशिश कर रही है और उसके इस प्रयास में उसके सामने मुलायम सिंह यादव सबसे बड़ी बाधा हैं। उनकी पार्टी के आजम खान ने तो यहां तक कह डाला था कि मनमोहन सिंह सरकार में कोई मुस्लिम कैबिनेट मंत्री है ही नहीं, हालांकि वैसा कहने के साथ उन्होंने यह भी कह दिया था कि जो मुस्लिम कैबिनेट मंत्री केन्द्र सरकार में हैं, वे भारत के नहीं, बल्कि कश्मीर के हैं। जाहिर है, उनके उस बयान के बाद सलमान को कैबिनेट मंत्री का दर्जा देना जरूरी हो गया था। वैसे भी अपनी वरिष्ठता को देखते हुए, कैबिनेट में लिए जाने का उनका दावा बहुत मजबूत था। उनके साथ एस पी जायसवाल को भी कैबिनेट में ले लिया गया है। वहां से बेनी प्रसाद वर्मा को भी सरकार में शामिल किया गया है। जाहिर है कांग्रेस की नजर उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्गों के मतदाताओं पर भी है। लेकिन श्री वर्मा को राज्य मंत्री का दर्जा देकर मनमोहन सिंह ने गलती कर दी है। श्री वर्मा 14 साल पहले कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं और राज्य की राजनीति में भी उनका कद सलमान खुर्शीद और श्री जायसवाल से ऊंचा है, इसलिए उन्हें जूनियर मंत्री का दर्जा देना उनको और उनके समर्थकों को खल सकता है। (संवाद)