उल्फा नेताओं के साथ सरकार की बातचीत अच्छे माहौल में हुई। पर असम समस्या के समाधान पर जो सवालिया निशान लगे हुए थे, वे जहां के तहां मौजूद है। आने वाले दिनों में कड़ी सौदेबाजी होगी और दोनों में से किसी भी पक्ष को भी जल्दबाजी नहीं है। वार्ता की सफलता पर संदेह इसलिए पैदा होता है कि उल्फा के अंदर विभाजन है। अधिकांश उल्फा नेता बातचीत से मामला सुलझाना चाहते हैं, पर उल्फा के सशस्त्र बलों का प्रमुख कमांडर अभी भी बर्मा के जंगलों में छिपा हुआ है और वह शांति वार्ता की मुखालफत कर रहा है। कुछ और उल्फा नेता बरुआ के इशारे की प्रतीक्षा कर रहे हैं। केन्द्र सरकार से बातचीत का निर्णय उल्फा की कार्यकारी समिति और और आम परिषद में ली गई थी और उस निर्णया को परेश बरुआ तक पहुंचा दिया गया था।

उल्फा पिछले 30 साल से आंदोलन चला रहा है। इसके अनेक नेताओं ने पिछले दिनों बातचीत का रुख किया। उनमें इसके चेयरमैन अरविंद राजखोवा भी शामिल हैं। उन लोगों ने पहले भारतीय अधिकारियों के सामने समर्पण भी कर दिया था। असका कारण यह था कि बांग्लादेश की सरकार अब भारत के साथ सहयोग कर रही है और उसने अपने देश में उल्फा उग्रवादियों के ठिकाने नष्ट करने शुरू कर दिए थे।

उल्फा अभी भी एक प्रतिबंधित संगठन है और इसके बावजूद उसके नेता भारत सरकार के साथ बातचीत कर रहे हैं। पर दोनों तरफ से मिल रहे संकेतों से लगता है कि अगले मई महीने तक बातचीत में कोई ठोस सफलता नहीं मिलने वाली है। अप्रैल और मई के महीने में असम में विधानसभा का चुनाव भी है। उल्फा ने घोषणा कर रखी है कि वह चुनाव में भाग नहीं लेगा। असम विद्रोहियों की तरह उल्फा विद्रोही भी तय कैपों मे रहेंगे। उम्मीद की जा रही है कि अगले दौर की वार्ता के पहले उल्फा युद्ध विराम की घोषणा करेंगे और भारत सरकार उस पर लगाए प्रतिबंध को हटा लेगी।

दोनों पक्षो को उम्मीदें हैं। इसका कारण यह है कि असम की राज्य सरकार ने केन्द्र उल्फा वार्ता के पहले इस बातचीत का अच्छा माहौल बना दिया है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार बातचीत को आगे सफलता की ओर बढ़ते दिखाना चाहती है, ताकि आगामी महीनों में होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सफलता हासिल हो सके और चुनाव के पहले होने वाले प्रचार के दौरान बातचीत को राज्य सरकार की सफलता के रूप में पेश कर सके।

उल्फा उग्रवादी वार्ता के लिए इसलिए तैयार हो सके, क्योंकि वे लोगों के बीच कमजोर पड़ते जा रहे थे। जंगलों में छिपे हुए लोगों को लग रहा था कि अब भाग दौड़ की जिंदगी से बचा जाए। उनकी उम्र भी ढलती जा रही थी। इसके अलावा बांग्लादेश मे मिल रहा संरक्षण भी समाप्त हो रहा था। शेख हसीना वाजेद की सरकार ने उनका जीना हराम कर दिया था। उसके पहले की सरकार उन्हें संरक्षण दे रही थी। पर सरकार बदलने के बाद स्थिति बदल गई और बांग्लादेश उनके लिए एक सुरक्षित पनाहगाह नहीं रह गया। यही कारण है कि उल्फा उग्रवादी बिना किसी शर्त के बातचीत को तैयार हो गए।

पहले दौर की बातचीत आशा के अनुरूप ही रही है। बातचीत गृहमंत्रालय में हुई और उसमें गृहमंत्री के अलावा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी भाग लिया। प्रधानमंत्री के बातचीत में भाग लेने से उल्फा नेताओं के बीच अच्छा संदेश गया है और उनकी उम्मीदें मजबूत हो गई हैं।

कांग्रेस बातचीत को विधानसभा चुनावों में भुनाना चाहती है। तरूण गोगोई की सरकार वहां पिछले दो कार्यकाल से सत्ता में है। वह अब तीसरी बार सत्ता में आने के लिए प्रयास कर रही है। हालांकि केन्द्र चाहता है कि उल्फा खुद भी चुनाव में भाग ले, पर उल्फा नेता इसके लिए फिलहाल तैयार नहीं है। पर यदि चुनाव के दौरान उल्फा ने हिंसा नहीं फेलाई तो चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से हो सकेगा। केन्द्र और राज्य सरकार के लिए यह भी एक उपलब्धि होगी। (सवाद)