इस तरह मुख्यमंत्री ने अपने पूरे अनशन प्रकरण को एक मजाक बनाकर रख दिया। किसी मुख्यमंत्री द्वारा केन्द्र सरकार के खिलाफ अनशन करने का यह पहला मौका था। कहा जाता है कि यह फैसला मुख्यमंत्री ने अपने निजी स्तर पर किया था। उसके पहले उन्होंने न तो अपनी पार्टी क केन्द्रीय नेताओं से राय मशविरा किया था और न ही अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों की ही सलाह ली थी। अस तिथि की घोषणा कर दी गई।

तिथि घोषित किए जाने के बाद राज्य के मंत्रिमंडल की बैठक की गई, जिसमें मंत्रिमंडल की मंजूरी मांगी गई। मुत्रिमंडल मुख्यमंत्री के अनशन को मुजूरी देने से भला कैसे मना कर सकता था। इसके ठीक उलट कुछ मंत्रियों ने प्रस्ताव किया कि अन्य मंत्री भी उसी तिथि पर राज्य के कमिशनरी और जिला मुख्यालयों पर आमरण अनशन करें। सूत्रों के अनुसार वरिष्ठ मंत्री और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल गौर ने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा कि यदि मंत्रिमंडल सभी मंत्रियां द्वारा अनशन करने का फैसला ले भी लेता है, तो वे खुद अनशन पर बैठने से इनकार कर देंगे। बाबू लाल के उस विरोध के कारण सिर्फ मुख्यमंत्री के आमरण अनशन का ही फैसला हुआ।

आमरण अनशन के लिए एक वेन्यू तैयार किया गया। उसके लिए एक बड़ा टेंट खड़ा किया गया, जिसमें मुख्यमंत्री का दफ्तर बनाया गया। मंत्रिमंडल की बैठक के लिए उसमे व्यवस्था कर दी गई। माना गया था कि अनशन ज्यादा दिनों तक चलेगा और लोग उस बीच मुख्यमंत्री से मिलने के लिए आ सकते हैं, इसलिए मुख्यमंत्री के जनता दरबार की व्यवस्था कर दी गई। एक अनुमान के अनुसार अनशन के लिए तामझाम खड़ा करने में करीब 2 करोड़ रुपए का खर्च आया।

एक और आपत्तिजनक बात यह भी थी कि अनेक आइएएस और आइपीएस अधिकारी भी उस स्ािल पर जा बैठे। ये अधिकारी केन्द्रीय स्तर पर चुने जाते हैं, जो बाद में किसी राज्य के कैडर से जुड़ते हैं। इस तरह के अधिकारी केन्द्र सरकार के खिलाफ किसी राजनैतिक विरोध में शामिल हों, यह उनके सर्विस रूल के खिलाफ है। पर फिर भी उन्होंने वैसा किया। अब यदि केन्द्र सरकार चाहे तो उनके खिलाफ इसके लिए कार्रवाई भी की जा सकती है।

तय समय के अनुसार मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अनशन भी शुरू कर दिया, पर सभी लोगों को अचंभा में डालते हुए उन्होंने 40 मिनट में ही अपना आमरण अनशन समाप्त कर दिया। इससे पार्टी के अनेक नेताओं को झटका लगा है। अनशन समाप्त करने के निर्णय करने के पहले उन्होंने किसी अन्य नेता से बात करनी भी जस्रीनहीं समझी। राज्य के पार्टी अध्यक्ष प्रभात झा को भी मुख्यमंत्री का वह निर्णय नागवार गुजरा है। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी को भी मुख्यमंत्री का एकाएक अपना अनशन समाप्त करना बुरा लगा।

आखिर मुख्यमंत्री ने अपना अनशन इतनी जल्दी कैसे समाप्त कर दिया? इसके बारे में कहा जा रहा है कि राज्यपाल ने उनके इस अनशन के खिलाफ राष्ट्रपति को रिपोर्ट लिखी थी। कहते हैं कि राज्यपाल ने वह रिपोर्ट मुख्यमंत्री को दिखाई। राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को कहा कि वे जो कर रहे हैं, उससे राज्य में एक संवैधानिक संकट खड़ा हो रहा है। मुख्यमंत्री द्वारा केन्द्र सरकार के खिलाफ की जा रही भूख हड़ताल को राज्य में संवैधानिक व्यवस्था का पतन बताते हुए राज्यपाल ने कहा कि यदि मुख्यमंत्री ने अपनी हड़ताल जारी रखी, तो वे धारा 356 के तहत राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करवाकर शासन अपने अंदर ले लेंगे।

राज्यपाल की उस चेतावनी का मुख्यमंत्री पर असर हुआ। कहते हैं कि केन्द्र के भाजपा नेताओं ने भी मुख्यमंत्री द्वारा केन्द्र सरकार के खिलाफ की जा रही उस भूख हड़ताल को उचित नहीं बताया। इसलिए मुख्यमंत्री ने उसे समाप्त करना ही उचित समझा। इस बीच अपना मुह बचाने के लिए मुख्यमंत्री ने राज्यपाल की सहायता ली, जिन्होनें प्रधानमंत्री से राज्य के किसानों के हितों का ध्यान रखने का आश्वासन ले लिया।

इस अनशन के नाटक के बाद कांग्रेस के खेमे में उत्साह देखा जा रहा है। कांग्रेस नेता मुख्यमंत्री और भाजपा की इसके लिए खिल्ली उड़ा रहे हैं। वे मांग कर रहे हैं कि तमाशे पर खर्च किए गए दो करोड़ रुपयों को मुख्यमंत्री के वेतन से काटा जाय। (संवाद)