अभी तो सिर्फ एक पैनल के गठन पर सहमति बनी है, जिसमें केन्द्र सरकार और अन्ना के अभियान में शामिल पांच पांच सदस्य शामिल होंगे। पैनल के गठन मात्र से भ्रष्टाचार की समस्या का हल नहीं निकलता, क्योंकि इस पैनल को तो लोकपाल के विधेयक का मसौदा तैयार करना है। समस्या मसौदा तैयार करने मंे भी आएगी, क्योकि केन्द्र सरकार द्वारा तैयार लोकपाल विधेयक और अन्ना हजारे द्वारा तैयार करवाया गया जन लोकपाल विधेयक में आसमान जमीन का अंतर है। जाहिर है पैनल के अंदर सरकार के लोग अपने सुर में बोलेंगे। यदि उन्होंने अपनी चलाने की कोशिश की और एक मजबूत, स्वतंत्र व निष्वक्ष लोकपाल के लिए तैयार नहीं हुए तो विधेयक के मसौदे पर पैनल में सहमति बननी भी कठिन हो सकती है।

यदि पैनल के अंदर मसौदे पर सहमति बन भी जाती है, तो उससे समस्या का हल नहीं निकलता। उस मसौदे को केन्द्रीय मंत्रिमंडल द्वारा स्वीकार भी किया जाना चाहिए। उसमें भी इसका विरोध किया जा सकता है, क्योंकि उसमें शामिल अनेक मंत्री दागदार हैं और वे नहीं चाहेंगे कि उनके कुकर्माे पर से पर्दा हटे। जाहिर है मंत्रिमंडल से उस विधेयक को पास करवाना भी प्रधानमंत्री के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। सोनिया गांधी के आदेश पर कांग्रेस के मंत्री तो उसका विरोध नहीं करेंगे, लेकिन एनसीपी और डीएमके के मंत्रियों के बारे में इस तरह का दावा नहीं किया जा सकता। इसका कारण है कि जब जब भ्रष्टाचार का कोई बड़ा मामला उठता है, उसमें प्रायः एलसीपी नेता शरद पवार का नाम आ ही जाता है। करुणानिधि की पार्टी के ए राजा पहले से ही जेल में हैं। उनकी बेटी और पत्नी तक भी जांच की आग पहुंच गई है। इसलिए उनकी पार्टी के मंत्री भी एक सार्थक लोकपाल के समर्थन में आसानी से नहीं आए।

जाहिर है मंत्रिमंडल से उस मजबूत प्रावधानों वाला लोकपाल विधेयक पारित करवाना प्रधानमंत्री के लिए आसान नहीं होगा। यदि वह वहां से पारित हो भी जाता है, तो फिर उसे अंत में संसद से पास करवाना होगा। वह विधेयक सामान्य विधेयक होगा, अथवा संविधान संशोधन विधेयक इसके बारे में फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता। ज्यादा उम्मीद की जानी चाहिए कि यह संविधान संशोधन विधेयक होगा, क्योंकि लोकपाल को ताकतवर बनाने और उसे केन्द्र सरकार की कार्यकारिणी के प्रभाव से बाहर रखने के लिए संविधान के कुछ प्रावधानों में भी बदलाव लाने पड़ सकते हैं। यही नहीं, लोकपाल को ज्यादा ताकतवर बनाने के लिए एक कानूनी निकाय की जगह सांवैधानिक निकाय बनाना ज्यादा अच्छा रहेगा।

अब यदि लोकपाल विधेयक संविधान संशोधन विधेयक के रूप में संसद में पेश किया जाता है, तो उसे वहां पारित करवाने के लिए दो तिहाई बहुमत की जरूरत पड़़ेगी और उसके लिए व्यापक सहमति की आवश्यकता पड़ेगी। इसमें कोई खास समस्या तो नहीं आनी चाहिए, क्योंकि यूपीए, एनडीए और लेफ्ट अन्ना की मुहिम का समर्थन कर चुके हैं। पर वहां मामले को लटकाने की कोशिश की जा सकती है। प्रवर समिति में विधेयक को भेजकर मामले को टाला जा सकता है। प्रधानमंत्री ने अपनी घोषणा में यही कहा है कि आगामी मानसून सत्र में इस विधेयक को पेश किया जाएगा, इसको कब तक पािरत किया जाएगा, इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है।

यानी सरकार द्वारा विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए तैयार हो जाना भ्रष्टाचार के खिलाफ मिली कोई बड़ी सफलता नहीं है। यह पहले मोर्चे पर पाई गई विजय जरूर है। केन्द्र सरकार ने विवशता में आकर यह कदम उठाया, क्योंकि देश भर में जनआंदोलन काफी जोर पकड़ रहा था। 4 दिनों के उपवास के बावजूद अभी अन्ना का स्वास्थ्य ठीक ठाक था, यदि उनका स्वास्थ्य आने वाले दिनों में खराब होता और गिरते सेहत की खबरें लोगों तक पहुंचती तो देश में बहुत बड़ा तूफान पैदा हो सकता था। 4 राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेश में चुनाव हो रहे हैं, उन पर भी अन्ना के आंदोलन और उनके गिरते स्वास्थ्य अथवा गिरफ्तारी का असर पड़ता और तक केन्द्र की सरकार में शामिल पार्टियों के लिए उन राज्यों का चुनाव जीतना भी कठिन हो जाता। यही कारण है कि केन्द्र सरकार को अन्ना की बात माननी पड़ी।

केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार के मामले को गंभीरता से नहीं लेती। खुद प्रधानमंत्री भी इसे गंभीरता ने नहीं लेते। यही कारण है कि उन्होंने कुछ समय पहले अपनी सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार को गठगंधन की विवशता तक बता दिया था। इससे ज्यादा गैर जिम्मेदार बयान किसी प्रधानमंत्री का हो ही नहीं सकता। आप प्रधानमंत्री बने रहने के लिए भ्रष्ट मंत्रियों को सरकार में शामिल करने के लिए और उनके भ्रष्टाचार को चुपचाप देखते रहने के लिए बाध्या हैं, इससे खराब बात किसी प्रधानमंत्री के लिए हो ही नहीं सकती। लगता है प्रधानमंत्री और राजनीति में शामिल अन्य लोग यह मानने लगे हैं कि देश की जनता भी भ्रष्टाचार को गंभीरता से नहीं लेती। उन्हें लगता है कि भ्रष्टाचार अब वाकई में शिष्टाचार हो गया है। लेकिन अन्ना के अनशन के बाद देश ने जो तेवर दिखाए, उसके बाद इस तरह की धारणा समाप्त हो जानी चहिए।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बेहद ही ईमानदार व्यक्ति माना जाता है। लेकिन उन पर आज सबसे भ्रष्ट सरकार का नेतृत्व करने का आरोप लग रहा है। यह आरोप बेहद संगीन है। इसके कारण उनकी छवि काफी खराब हो गई है। उन्हीे अपनी इस खराब छवि की भी चिंता करनी चाहिए। उन्होंने अन्ना की शुरुआती मांग तो मान ली है, लेकिन आने वाले दिनों में यदि वे अपने पद और प्रतिष्ठा का इस्तेमाल करके एक सार्थक, मजबूत, निष्प़क्ष और स्वतंत्र लोकपाल के गठन का रास्ता साफ करना चाहिए। उन पर अपनी सरकार बचाने के लिए भ्रष्टाचार का इस्तेमाल करने का भी आरोप लगा है। यदि एक सशक्त लोकपाल उनकी सरकार के कार्यकाल में अस्तित्व में आ जाता है, तो निश्चय ही उन पर लगे सारे आरोप अपना अर्थ खो देंगे। उन्होंने नई आर्थिक नीतियों के द्वारा देश की अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाई प्रदान की है। उनके समय में ही सूचना का अघिकार का कानून बना। उनके कार्यकाल में ही भारत की परमाणु जगत से टूटा संबंध फिर से बहाल हुआ। उनके कार्यकाल में ही जाति आधारित जनगणना भी हो रही है, जो आने वाले दिनों में देश की राजनीति को भी बदल सकती है। अब यदि उनके कार्यकाल में ही केन्द्र में एक सशक्त लोकपाल अस्तित्व में आ जाता है और इसके कारण देश का सबसे बड़ा संकट भ्रष्टाचार नियंत्रण में आ जाता है, तो उनकी गिनती निश्चय ही देश के सबसे महान प्रधानमंत्रियों मंे होगी। (संवाद)