वास्तव में मोहाली के सेमी फाइनल मैच से लेकर अब तक अफरीदी के जो बयान आए हैं, वे आम पाकिस्तानियों के अंदर भारत को लेकर चलने वाले द्वंद्व के परिचायक हैं। भारत में जो कुछ उन्होंने कहा और पाकिस्तान की धरती पर उतरने समय उनकी जो प्रतिक्रिया थी वह दो दिनों बाद बदल गई। जब उनके उस बयान पर बहस आरंभ हुआ तो स्पष्टीकरण में उनका स्वर फिर बदल गया। पाकिस्तानी टेलीविजन के एक कार्यक्रम में अफरीदी ने कहा, ‘ यदि मैं सही कहूं तो उनके (भारतीयों) दिल बड़े नहीं हैं। वे हमारी (पाकिस्तानियों की) तरह बड़े दिल वाले नहीं हो सकते। अल्लाह ने पाकिस्तानियों को बड़े और पवित्र दिलवाला बनाया है। भारतीय ऐसे नहीं हैं।’ उन्होंने भारतीय मीडिया को भी नकारात्मक सोच वाला कहा एवं पाकिस्तानी मीडिया को उनसे बेहतर बताया। अब उन्होेंने एक भारतीय चैनल से कहा है कि भारतीय मीडिया छोटे मुद्दे को बड़ी बात बना देता है। यह शर्मनाक है। भारत पाक रिश्तों में सुधार के लिए मैंने हमेशा प्रयास किए हैं, लेकिन कभी-कभी आप कहते कुछ हैं और उसको अलग तरह से समझ लिया जाता है। मेरे बयान को संदर्भ से हटाकर पेश किया गया। उन्हांेने कहा कि भारत में मैंने अपने क्रिकेट का लुत्फ उठाया और मैं भारतीयों से काफी प्यार करता हूं। मुझे हमेशा से भारतीय प्रशंसकों से काफी प्यार मिला। मोहाली में भारत द्वारा पराजित होने के बाद भी उन्होंने कहा था कि बेहतर खेलने वाली टीम जीती और भारतीय टीम को बधाई भी दी। यही नहीं पाकिस्तान पहुंचने पर उन्होंने प्रश्न उठााया था कि आखिर पाकिस्तानी भारत को अपना दुश्मन क्यों मानते हैं।

निश्चय ही मोहाली तथा उसके बाद पाकिस्तान की भूमि पर उतरतेे समय अफरीदी के बयानांे मंे उम्मीद भरी ताजगी थी। लेकिन पाकिस्तान के टीवी कार्यक्रम के उनके कथनों से उन पर पानी फिर गया। भले वे भारतीय मीडिया की आलोचना करें, लेकिन जो कुछ उन्होंने कहा वह सबके सामने था। आप जो कहेंगे कोई अपना निष्कर्ष उसी में से निकालेगा। हालांकि उनके स्पष्टीकरण से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पाकिस्तान के अंदर भी एक वर्ग को उनकी बात पसंद नहीं आई। इसका अर्थ यह है कि आज की स्थिति में पाकिस्तान में उस प्रकार भारत विरोधी भावना नहीं है, जैसे एक दशक पूर्व तक थी। किंतु अफरीदी जैसे खिलाड़ी, जिसका भारतीय खिलाड़ियों से व्यक्तिगत संबंध है, क्यों मैत्रीपूर्ण वक्तव्य देकर अचानक भारतीयों की आलोचना पर उतर जाते हैं? वास्तव में पाकिस्तान की यही वह ग्रंथि है, जो दोनों देशों के संबंधों को कभी विश्वास एवं भाईचारे के धरातल पर खड़ा नहीं होने देती। सन् 2004 के पूर्व तक दोनों देशों के क्रिकेट को युद्ध में जीत हार की तरह लिया जाता था। क्रिकेट शत-प्रतिशत पाकिस्तान की भारत विरोधी अंधराष्ट्रवाद का प्रतीक था। खिलाड़ियों के अंदर भारत को हर हाल में हराने का उन्मादी जज्बात भरा होता था। कई खिलाड़ी मैदान पर भारतीय खिलाड़ियों को गंदी गालियां दे देते थे। इमरान खान की भारत के संदर्भ में की जा रहीं आज की टिप्पणियों और कप्तान के रूप में मैच जीतने के बाद की उनकी प्रतिक्रियाओं व कप्तानी छोड़ने के बावजूद लंबे समय तक भारत के बारे में व्यक्त किए गए उद्गारों के विपरीत है। क्रिकेट से अलग होने के बाद इमरान ने एक कैसंर अस्पताल बनाने की मुहिम शुरू की और भारत के कुछ क्रिकेट खिलाड़ियों ने कहा कि हमंे इमरान की मदद करनी चाहिए। इमरान ने मदद लेने से इन्कार कर दिया। इमरान का वह व्यवहार और कुछ नहीं केवल वहां भारत के संदर्भ में कायम मनोविज्ञान का प्रकटीकरण था। 1999 विश्व कप में भारत के हाथों हारने के बाद स्वदेश लौटी टीम के खिलाफ प्रदर्शन हुए एवं खिलाड़ियों के घर पर हमले भी हुए। तत्कालीन कप्तान वसीम अकरम को कहना पड़ा कि यदि ऐसा ही रहा तो पाकिस्तान के लिए कोई खेलना नहीं चाहेगा। पाकिस्तान के खेल समीक्षकों की टिप्पणी होती थी कि भारत के साथ खेलते वक्त पाक खिलाड़ियों की मनोदशा अलग होती है। जावेद मियांदाद की अंतःशक्ति ही भारत विरोध का जुनून माना जाता था। अफरीदी उन्हीं खिलाड़ियों के सान्निध्य में खेलते हुए कप्तानी तक पहुंचे हैं।

इसमें दो राय नहीं कि माहौल में बदलाव आया है। लेकिन यह अभी ऐसा नहीं है जिसमें कोई सीना ठोंककर भारत की प्रशंसा कर दे और उसके खिलाफ आक्रामक माहौल निर्मित नहीं हो। अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा एक दशक पूर्व की गई शांति पहल के कारण माहौल बदलना आरंभ हुआ, लेकिन भारत विरोधी ग्रंथि अभी भी सर्वोपरि है। भारत में भी पाकिस्तान विरोधी भावना है, लेकिन यहां यदि कोई पाकिस्तानियों की प्रशंसा करे, या उन पर विश्वास करने की वकालत करे तो उसके खिलाफ कतई वैसा माहौल नहीं बनता जिसके दबाव में उसे अपना रुख बदलना पड़े। इस नाते पाकिस्तान की तुलना मंे भारतीय होना सौभाग्यशाली है। मोहाली विजय के बाद के प्रदर्शनों में त्वरित अंधराष्ट्रवादी उफान दिखा था, लेकिन उसकी आलोचना भी हो रही है और आलोचकों के अंदर किसी प्रकार का भय नहीं है। पाकिस्तान में सामान्यतः ऐसा नहीं होता। वहां उन कट्टरपंथी तत्वों की अभी भी बहुतायत है जो ऐसे लोगों को देशद्रोही तक साबित करके ऐसा माहौल बना देते हैं जिसमें उसके लिए बयान पर टिका रहना कठिन होता है। जहां ईश निंदा कानून की आलोचना करने वाले मंत्री तक की हत्या कर दी जाती हो, वहां के माहौल के बारे में अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती है। चूंकि इस समय मनमोहन सिंह की पहल के कारण पाकिस्तान सरकार की नीति भारत विरोधी वक्तव्य न देने की है, खिलाड़ियों, बुद्धिजीवियों और मीडिया का एक वर्ग भी भारत की शांति पहल के पक्ष में है, इसलिए अफरीदी को ऐसा स्पष्टीकरण देने के लिए कहा गया होगा जिससे माहौल न बिगड़े।

साफ है कि अफरीदी की आलोचना करने से इसमें परिवर्तन नहीं आएगा, लेकिन उनके तीनों बयान से हम पाकिस्तानी मनोविज्ञान की जटिलतायें समझ सकते हैं। भारत की पृष्ठभूमि में महात्मा गांधी जैसे व्यक्तित्व हुए हैं जिन्हांेने विभाजन के समय पाकिस्तान को उसके हिस्से का नकद देने के लिए भारत सरकार पर दबाव बनाया। उनके इस कदम का विरोध हुआ, लेकिन वे अड़े रहे। वह विभाजन की तीव्र संाप्रदायिक तनाव का समय था। वैसे समय भी गांधी जी और उनके कुछ समर्थकों ने भविष्य का ध्यान रखते हुए ही ऐसा आचरण किया था। गांधी जी मानते थे कि अंग्रेजों की दुर्नीति के कारण सा्रपद्रायिक विद्वेष ने अवश्य हमें विभाजित किया, पर हमारा भविष्य अंततः साथ मिलकर जीने में ही है। पाकिस्तान द्वारा अंध भारत विरोध को राष्ट्रीय आचरण बनाने के बावजूद गांधी जी की वह धारा इन 64 वर्षों में समय के प्रवाह के साथ मजबूत हुई है। पाकिस्तान में ऐसा नहीं हुआ। भारत के उलट वहां कट्टरपंथ कमजोर होने की जगह और मजबूत हुआ और इसका दुष्परिणाम पाकिस्तान झेल रहा है। इसलिए पाकिस्तान की अंदरूनी जटिलताओं को समझते हुए हमें अफरीदी या ऐसे दूसरों लोगों के साथ सहानुभूति रखने तथा अपनी सुरक्षा के प्रति सजग रहते हुए भी महात्मा गांधी की धारा को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। (संवाद)