कांग्रेस नेताओं की बेचैनी समझी जा सकती है। यूपीए के अन्य घटक दलों के नेताओं की बेचैनी भी समझी जा सकती है, क्योंकि अन्ना का अनशन ही उनके खिलाफ था। उस अनशन के दौरान तो एनसीपी के नेता शरद पवार को भारी फजीहत का सामना करना पड़ा। उनको बार बार भ्रष्ट बताया गया और उन्होनंे लोकपाल विधेयक पर बनाए गए पहले पैनल से इस्तीफा भी दे दिया। अब उनकी पार्टी के नेता खुलेआम अन्ना हजारे के खिलाफ बोलते दिखाई पड़ रहे हैं।

लेकिन बेचैनी सिर्फ सत्तारूढ़ नेताओं में ही नहीं है। बेचैन तो भाजपा के नेता भी हैं। कहने को वे अन्ना हजारे की मुहिम का समर्थन कर रहे हैं और सशक्त लोकपाल की वकालत कर रहे हैं, लेकिन उन्हे इस बात की बेचैनी है कि विपक्ष की भूमिका में अन्ना हजारे ने उन्हें पीछे छोड़ दिया है। बकौल भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी जेपीसी के गठन के लिए विपक्ष को एड़ी चोटी का पसीना दो महीने तक एक करना पड़ा और उस क्रम में पूरे शरदकालीन संसद सत्र को तबाह करना पड़ा, तब जाकर सरकार उसके गठन पर सहमत हुई, लेकिन अन्ना हजारे के अनशन ने मात्र 4 दिनों में ही केन्द्र सरकार को झुकने के लिए मजबूर कर दिया।

लालकृष्ण आडवाणी को इस बात का मलाल है कि देश की जनता जितनी तीव्रता और प्रतिबद्ता के साथ अन्ना के साथ खड़ी दिखी, उतना विपक्ष के साथ नहीं खड़ी दिखी। जब अन्ना अनशन पर बैठे थे तो उनके समर्थकों ने वहां राजनेताओं के आने पर भी पाबंदी लगा थी। सबसे पहले वहा शरद यादव पहुंचे। उन्होंने अन्ना के समर्थन में वहां वक्तव्य भी दिया। वे खुद कुछ समय तक वहां धरने पर भी बैठे, लेकिन अन्ना समर्थकों को वहां उनकी उपस्थिति अच्छी नहीं लग रही थी। उनके वहां से जाने के बाद अन्ना समर्थकों ने यह नीति बना ली कि अब किसी और राजनैतिक नेता को यहां आने नहीं दिया जाएगा। फिर उन्होंने किसी को वहां आने भी नहीं दिया। अगले रोज उमा भारती और ओमप्रकाश चौटाला ने अन्ना के साथ मंच साझा करने की कोशिश की तो अन्ना समर्थकों ने उन्हें वहां से खदेड़ दिया। फिर किसी और ने कोशिश ही नहीं की।

भाजपा नेता अपनी भड़ास निकालते हुए कहते हैं कि अन्ना समर्थकों को वैसा नहीे करना चाहिए था। खुद अन्ना ने अपने आंदोलन मे राजनैतिक पार्टियों के नेताओं को शामिल होने से मना नहीं किया। उन्होंने कहा कि जिस तरह और लोग उनके आंदोलन के समर्थन में आ रहे हैं और मंच के नीचे उनकी मांगों के समर्थन में बैठ रहे हैं, उसी तरह राजनैतिक दलों के नेता भी आ सकते हैं और बैठ सकते हैं, लेकिन मंच पर बैठकर आंदोलन के नेतृत्व की भूमिका में नहीं दिखाई दें। लगता है कि लालकृष्ण आडवाणी को अन्ना की यह बात भी नागवार गुजरी है। उनकी शिकायत हो सकती है कि उनकी पार्टी और पूरा विपक्ष भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन कर रहा है, तो फिर उनसे अन्ना समर्थकों को परहेज क्यों? इसका जवाब चाहें तो विकीलीक्स के खुलासों से ले सकते हैं, जहां वे खुद यह कहते दिखाई दे रहे हैं कि उनकी सरकार आने के बाद वे मनमोहन सरकार की अमेरिका के साथ परमाणु करार को आगे बढ़ांएगे। उनकी पार्टी के एक अन्य नेता अरुण जेटली हिन्ुदत्व की राजनीति को वोट पाना का जरिया और अपने हिन्दुवाद को अवसरवाद तक कह डालते हैं। उनकी पार्टी के एक प्रवक्ता एक अमेरिकी राजनयिक को परमाणु करार और केन्द्र की अमेरिका परस्त नीति के खिलाफ पार्टी कार्यकारिणी के प्रस्ताव को महज विपक्षी दिखावा बताकर कहते हैं कि अमेरिका उन्हें गंभीरता से न लें, वे सिर्फ देश की जनता को दिखाने के लिए है।

जब भाजपा के नेता खुद कहते हैं कि वे बहुत सारी बातें दिखाने के लिए कहते हैं, तो फिर देश की जनता को भ्रष्टाचार के खिलाफ दिए जा रहे उनके भाषणों पर क्यों विश्वास होना चाहिए। अन्ना की मुहिम में शामिल कुछ लोगों की शिकायत है कि वे आडवाणी सहित भाजपा के कुछ शीर्ष नेताओं के साथ मिलकर अपने जन लोकपाल विधेयक के मामले को संसद के बजट सत्र में उठाने की मांग की थी। मुलाकात के समय उन लोगों ने बहुत लंबी चौड़ी बातें की, लेकिन बजट सत्र के दौरान उन लोगों ने संसद में उनकी मांगों का जिक्र तक नहीं किया। जब ये नेता इस तरह की वादाखिलाफी करेंगे तो अन्ना के समर्थक उन्हें अपने आंदोलन से क्यों जुड़ने देंगे?

यही कारण है कि इस आंदोलन के पक्ष मंें बयान देने के अलावा उनकी कोई भूमिका नहीं रह गई थी। इसलिए उनमें बेचैनी है। भाजपा और कांग्रेस का समर्थक वर्ग मुख्य तौर पर देश का मध्यवर्ग है, जो टीवी चैनलों को देखने वाला वर्ग है। वह वर्ग आज अन्ना के आंदोलन के साथ खड़ा है। अब दोनों को लग रहा है कि कहीं यह वर्ग उनसे छिटक न जाए। इसलिए इस वर्ग का विश्वास बनाए रखकर वे दोनों पार्टियां अन्ना हजारे के आंदोलन को कमजोर करना चाहेंगे। इसके लिए दोनों पार्टियों के नेता किस किस तरह की रणनीति बनाएंगे, यह देखना काफी दिलचस्प होगा। कांग्रेस को तो खुद अन्ना हजारे ने एक मुद्दा थमा दिया है। वह है नरेन्द्र मोदी की उनके द्वारा की गई प्रशंसा। इसके द्वारा वे अन्ना के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर ही सवाल खड़ेंगे। खुद भी करेंगे और दूसरों से भी करवाएंगे।

भाजपा नेता आडवाणी ने उमा भारती और ओमप्रकाश चौटाला के साथ अन्ना समर्थक आंदोलनकारियों द्वारा किए गए दुर्व्यहार को रेखांकित कर ही डाला है। बाबा रामदेव पैनल में खुद के शामिल नहीं किए जाने के कारण बेचैनी महसूस कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि भ्रष्टाचार की लड़ाई के शीर्ष पर उन्हें होना चाहिए था, लेकिन शीर्ष पर तो अन्ना पहुंच गए हैं। आडवाणी ने अपने ब्लॉग में बाबा रामदेव का गुण खूब गाया है और उसी में अन्ना हजारे के समर्थकों की आलोचना भी की है। यदि बाबा रामदेव की भड़ास का इस्तेमाल भाजपा अन्ना के खिलाफ करे, तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। (संवाद)