एक के बाद एक हजारों करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार की खबरे आ रही हैं। विदेशों में अरबों खरब भारतीय रुपया काले धन के रूप में जमा पड़ा हुआ है। केन्द्र सरकार न तो विदेशों ेमें पड़े काले धन और न ही देश में एक के बाद एक आ रहे भ्रष्टाचार के मामले में लोगों को संतुष्ट करने में सफल रही है।ं ऐसे माहौल में जब अन्ना हजारे ने अपना आमरण अनशन शुरू किया तो देश का पूरा मघ्य वर्ग उसके साथ खड़ा दिखाई पड़ा। यह वही मध्यवर्ग है जिसकी सहायता से कांग्रेस और यूपीए ज्यादा समर्थन से सत्ता में आई। कांग्रेस का मानना है कि उसने भाजपा समर्थक मघ्यवर्ग को भी अपने साथ जोड़ने में सफलता पाई है। वही मध्यवर्ग अन्ना के आंदोलन के साथ खड़ा था। जाहिर है केन्द्र सरकार को झुकना पड़ा। वैसे भी केन्द्र सरकार विपक्ष के हमलों का सामना करते करते कमजोर हो गई है। इस कमजोरी के साथ वह अन्ना के सामने झुकने को मजबूर हो गई और लोकपाल विधेयक को तैयार करने वाले पैनल में अन्ना द्वारा सुझाए गए 5 लोगों को शामिल करने के लिए तैयार हो गई।

वैसे एक लोकपाल विधेयक का मसौदा केन्द्र सरकार ने पहले भी तैयार कर रखा है, जो मंत्रियों के एक समूह के पास विचाराधीन थी। नया पैनल बनने के बाद मंत्रियों का वह समूह अब निर्रथक हो गया है। अन्ना और उनके समर्थक नागरिक समाज के कुछ विशेषज्ञों ने मिलकर अपनी तरफ से एक लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार कर रखा है, जिसे वह जन लोकपाल विधेयक कहते हैं। संयुक्त पैनल के सामने दो मसौदे होंगे। एक मसौदा केन्द्र सरकार द्वारा तैयार बिल का होगा और दूसरा नागरिक समाज द्वारा तैयार जन लोकपाल बिल का होगा। संयुक्त पैनल इन दो मसौदे की पृष्ठीाूमि में कोई वैसा मसौदा तैयार करेगा, जो केन्द्र सरकार को भी मंजूर हो और नागरिक समाज को भी

केन्द्र सरकार द्वारा तैयार किए गए मसौदे में प्रधानमंत्री को शामिल नहीं किया गया है, जबकि जनलोकपाल विधेयक के दायरे में प्रधानमंत्री भी शामिल हैं। इसके अलावा केन्द्र सरकार ने अपने विधेयक में लोकपाल के दायरे में सिर्फ राजनीतिज्ञों को ही शामिल किया था, नौकरशाहों को नहीं। नागरिक समाज का कहना है कि बड़े बड़े भ्रष्टाचार नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों द्वारा मिलकर किए जाते हैं। इसलिए यदि नौकरशाह को इसके दायरे में नहीं लाया गया, तो फिर भ्रष्टाचार के किसी मामले की पूरी जांच हो ही नहीं पाएगी।

एक और बड़ा अंतर दोनों मसौदे में यह है कि केन्द्र सरकार द्वारा प्रस्तावित लोकपाल अपने आप किसी के खिलाफ जांच की कार्रवाई नहीं कर सकता। यदि किसी को कोई शिकायत है तो वह पहले लोकसभा के अध्यक्ष अथवा राज्य सभा के चेयरमैन के पास शिकायत करेगा और स्पीकर अथवा चेयरमैन की अनुशंसा के बाद ही लोकपाल अपनी कार्रवाई शुरू कर पाएंगे। दूसरी ओर जन लोकपाल को अपने आप किसी शिकायत पर जांच करने का अधिकार होगा।

केन्द्र सरकार ने जो बिल तैयार कर रखा है, उसमें लोकपाल को किसी के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार भी नहीं दिया गया है। वह लोकपाल सिर्फ अपनी जांख् रिपोर्ट संबंधित अधिकारी के पास भेज देगा वह वह अधिकारी ही कार्रवाई कर सकता है। जबकि जनलोकपाल खुद किसी के खिलाफ कार्रवाई कर सकता है। लोकपाल किसी के खिलाफ मुकदमा तक नहीं दायर कर सकता, जबकि जनलोकपाल मुकदमें की कार्रवाई भी कर सकता है।

एक और अंतर न्यायपालिका को लेकर है। लोकपाल विधेयक के दायरे में जजों को नहीं रखा गया है, जबकि जनलोकपाल विधेयक के दायरे में जजों को भी रखा गया है। यानी कार्यपालिका, न्यायपलिका और विधायिका- तीनों क्षेत्रों के भ्रष्ट लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने के अधिकार से जनलोक पाल को लैश किया गया है।

जाहिर है सरकार और नागरिक समाज के बीच प्रस्तावित विधेयक को लेकर भारी विरोधाभाष है। पैनल में इन्हीं विरोधाभासों को कम करने की कोशिश की जाएगी। चूंकि आज पूरा देश भ्रष्टाचार के मामलों से हिल रहा है और लोगों के बीच इनको लेकर भारी बेचैनी है, इसलिए नगरिक समाज के सदस्य कोई कमजोर लोकपाल पर सहमत नहीं होंगे। और उधर केन्द्र सरकार यह नहीं चाहेगी कि उसकी अपनी सत्ता कमजोर हो।

लोकपाल की आवश्यकता 1966 से ही महसूस की जारी है। प्रशासनिक सुधार आयोग ने उसी साल केन्द्र में लोकपाल और राज्यों मंे लोकायुक्त के पदों के सृजन की अनुशंसा की थी। 1968 में पहली बार एक लोकपाल बिल भी लोकसभा में पेश किया गया था, लेकिन उसे राज्य सभा से पास नहीं करवाया गया। लोकसभा भंग होने के बाद वह बिल लैप्स हो गया। उसके बाद लोकपाल बिल कम से कम 8 बार लोकसभा में पेश किया गया। हमेशा लोकसभा की अवधि पूरी होने अथवा उसके समय से पहले ही भंग हो जाने के कारण वह बिल लैप्स हो जाया करता है। पिछला बिल 2008 में पेश किया गया था, जो 2009 में लोकसभा की अवधि समाप्त होने के बाद लैप्स हो गया था।

सशक्त लोकपाल कानून समय की मांग है, लेकिन कानून बनाने के लिए संयुक्त पैनल का गठन हमारे देश के लिए पहला अनुभव है। इसके पक्ष और विपक्ष में बातें की जा रही हैं। कहा जा रहा कहीं यह एक स्थापित परंपरा न बन जाए और आंदोलन के द्वारा दबाव समूह इस तरह के पैनल बनाने के लिए सरकार को बाघ्य करना न शुरू कर दें। (संवाद)