सच जो यह है कि राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन और उसके पहले की तैयारियों पर 70 लाख करोड़ रुपए से लेकर एक लाख करोड़ रुपए तक खर्च आए। इन खर्चों का एक छोटा हिस्सा ही वास्तव में खर्च हुए। बाकी सब भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए। सुरेश कलमाड़ी के नेतृत्व वाली आयोजन समिति ने 1800 करोड़ रुपए ही खर्च किए थे, जबकि शेष राशि अन्य लोगों की निगरानी में खर्च हुए। अब तक जांच की आंच सिर्फ 1800 करोड़ रुपए खर्च करने वाले लोग ही झेल रहे थे। पर शुंगलू समिति ने राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी अन्य परियोजनाओं में हुए भ्रष्टाचार पर भी अपनी अंगुली उठा दी है और उसके दायरे में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से लेकर उपराज्यपाल तेजेन्द्र खन्ना तक आ गए हैं।

राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन का एक हास्यास्पद पहलू यह है कि उसकी तैयारियों का काम अभी भी चल रहा है, जबकि खेल कब के समाप्त हो चुके हैं। शुंगलू समिति ने एक स्टेडियम में चल रहे निर्माण कार्यों का जिक्र करते हुए कहा है कि वहां अभी भी काम चल रहा है। समिति का कहना है कि वह स्टेडियम खेल आयोजित करने के लिए पूरी तरह से फिट था, फिर भी उसे तुड़वाकर दुबारा बनाने का फैसला किया गया। फैसला लेते समय हमारे नीति निर्माताओं को पता था कि उसे तोड़़कर बनाने के लिए पर्याप्त समय बचा ही नहीं है।

समिति ने यह भी पाया है कि काम में जानबूझकर देरी करवाई गई, ताकि जल्दी काम करने का वास्ता देकर ठेकेदारों को ज्यादा पैसे आबंटित करने का मामला बनाया जा सके। जाहिर है भ्रष्टाचार की नींव नीति तैयार करते समय ही डाल दी गई थी। इतना सारा काम दिल्ली सरकार ने अपने ऊपर ले लिया, जिसे समय पर पूरा किया ही नहीं जा सकता था। इसके पीछे ज्यादा से ज्यादा लूट के अलावा कोई दूसरा मकसद हो ही नहीं सकता है।

वैसे शुंगलू समिति भी राष्ट्रमंडल खेलों के नाम पर किए गए सारे फैसले में हुए घोटाले की तहकीकात नहीं कर पाई है। इसका पता इससे चलता है कि समिति राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी परियोजनाओं के खर्च को 30 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा नहीं मानती, पर खर्च तो वास्तव में 70 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा किए गए थे।

शुगलू समिति पूरा तहकीकात करने में सक्षम भी नहीं थी, लेकिन उसने जो भी तहकीकात किए हैं, उनके तहत मुख्यमंत्री से लेकर उपराज्यपाल तक को दोषी पाया गया है। समिति का गठन प्रधानमंत्री ने किया था। समिति ने प्रधानमंत्री को अपनी रिपोर्ट सौंप भी दी है। प्रधानमंत्री ने रिपोर्ट पर कार्रवाई के लिए उसे केन्द्रीय गृह मंत्रालय के पास भेज दिया है, क्योकि केन्द्र शासित प्रदेश होने के कारण दिल्ली का प्रशासन गृह मंत्रालय के तहत की होता है। गृह मंत्रालय को 3 महीने के अंदर कार्रवाई करने को कहा गया है। इसके कारण दिल्ली सरकार के नेता और अफसर बेचैन हैं। (संवाद)