पर यह कहना गलत होगा कि लचीलापन सिर्फ नागरिक समाज के प्रतिनिधियों में ही आया है। सच तो यह है कि सरकार भी लचीली दिखाई पड़ रही है। उसने खुद जो पहले विधेयक का मसविदा तैयार किया था, उसके प्रति कोई हठ दिखाती नहीं दिख रही है। हालांकि उसके उस प्रस्तावित विधेयक का विरोध हो रहा था, फिर भी सरकार को लग रही थी कि उस दंतहीन विधेयक को वह पारित करा लेगी और विरोध करने वाले विरोध करते रह जाएंगे।
लेकिन केन्द्र सरकार ने यह सोचा भी नहीं होगा कि उसके विधेयक के खिलाफ अन्ना हजारे इस तरह आंदोलन करेंगे और उस पर देश में इतना बड़ा तूफान खड़ा हो जाएगा। लगता है कि केन्द्र सरकार आमरण अनशन को लेकर बहुत ज्यादा संवेदनशील हो गई है। तेलंगाना के मसले पर जब चन्द्रशेखर राव आमरण अनशन पर बैठे हुए थे, तब भी सरकार ने आनन फानत में वह अनशन समाप्त करने के लिए अलग तेलंगाना राज्य के गठन की मांग को स्वीकार कर लेने की घोषणा कर दी और बाद में वह इस मसले को लटकाते जा रही है।
आमरण अनशन के सामने सरकार की इस लाचारी का एक कारण तो यह हो सकता है कि सरकार किसी भारी अव्यवस्था की आशंका से सहम जाती है। देश के अनेक हिस्से में माओवादी गतिविधियां चल रही हैं। विदेशी सहयता पाने वाले आतंकवादी भी हमेशा मौके की तलाश में रहते हैं। यदि आमरण अनशन के कारण भारी जन असंतोष फैलता है तो वे ताकतें इसका फायदा उठा सकती हैं। इसके अलावा जिस तरह से घोटाले पर घोटाले सामने आते जा रहे हैं, उसके कारण सरकार भी अपने आपको नैतिक रूप से कमजोर पर रही है। उसकी यह नैतिक कमजोरी उसकी राजनैतिक कमजोरी भी बन गई है।
सरकार को एक के बाद एक झटका लग रहा है। घोटालों पर उसके पास कहने के लिए कुछ नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की फटकार भी उसे सुननी पड़ रही है। मुख्य सतर्कता आयुक्त की उसकी द्वारा की गई नियुक्ति रद्द कर दी गई है। प्रधानमंत्री एक मंत्री को अनुशासित करने मंे अपनी लाचारी का रोना रो रहे हैं। इस तरह के माहौल में उनके खिलाफ जब अन्ना का गांधीवादी हमला होता है, तो फिर उनके सामन उस हमले का जवाब देने की ताकत नहीं रह जाती और उन्हें झुकना पड़ता है। यही कारण है कि केन्द्र सरकार लोकपाल बिल पर टालू रवैया अब नहीं अपना सकती।
चार दशक से लोकपाल का मामला लटका पड़ा है। बार बार विधेयक पैश किए जाते हैं पर वह कानून नहीं बन पाता और इस बीच भ्रष्टाचार व अपराधीकरण बढ़ते जा रहे हैं। लोकसभा में जीतकर आए लोगों पर नजर दौड़ाएं तो हम पाते हैं कि अपराघी किस्म के लोगों की संख्या वहां लगतार बढ़ती जा रही है। इसके खिलाफ राजनीतिज्ञों द्वारा लड़ी जा रही लड़ाई का इतिहास कोई अच्छा नहीं रहा है।
1970 के दशक में जयप्रकाश नारायण ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चलाया। उसके कारण केन्द्र की सत्ता ही बदल गई, लेकिन भ्रष्टाचार की समस्या जहां की तहां रह गई। कुछ साल के बाद राजीव गांधी ने कम से कम अपने एक बयान के द्वारा इस मसले पर एक राष्ट्रीय बहा चला दी, लेकिन खुद उनके खिलाफ ही भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे। भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए जन आंदोलन के नेता वीपी सिंह हो गए। उनकी सरकार भी बन गई, लेकिन अपनी सरकार बचाने के लिए उन्होंने मंडल आयोग लागू कर दिया और भी देश का नजारा ही बदल गया। भ्रष्टाचार की बात ही होनी बंद हो गई।
इस तरह की राजनैतिक पृष्ठीाूमि में अन्ना हजारे जैसे गैर राजनैतिक नेता का उभार स्वाभाविक है। भ्रटाचार के खिलाफ युद्ध करने वाले एक जुझारू नेता के रूप में वे उभरे हैं और केन्द्र सरकार के साथ उनका कशमकश चल रहा है। सरकार उनके सामने तो झुक गई है, लेकिन अभी भी उसके पास अनेक पत्ते हैं, जिनके द्वारा वह हजारे के आंदोलन को बेमानी बना सकती है। विधेयक बनने से ही कुछ नहीं होता। बात तो तब बनेगी, जब विधेयक संसद में पास होगा और उसके लिए सरकार ही नहीं विपक्ष के सांसदों की भी स्वीकृति चाहिए। अन्ना हजारे का आंदोलन जिन राजनीतिज्ञों के खिलाफ हो रहा है, अततः उन्हें ही विधेयक को कानून बनाना है।
फिलहाल लोकपाल कानून के लिए चल रही इस लड़ाई मंे अन्ना का पलड़ा भारी है। सरकार उनके सामने झुकती दिखाई पड़ रही है, लेकिन बात तभी बनेगी, जब दोनों पक्ष झुके। सरकार अब पहलंे की तरह एक दंतहीन बेमतलब लोकपाल की बात नहीं कर रही है। वह अन्ना की बात को तरजीह दे रही है, लेकिन वह अपने ऊपर कोई सुपर कॉप का साया नहीं चाहती। सरकार और अन्ना के बीच में चूहे बिल्ली का खेल शुरू है। इस खेल के कारण यदि कोई ऐसा लोकपाल निकलकर आ जाता है, जो भ्रष्टाचार पर थोड़ा भी नियंत्रण करने में सफल रहे, तो यह देश के लिए एक उपलब्धि होगी। (संवाद)
हजारे बनाम सरकार: नागरिक समाज को है बढ़त प्राप्त
अमूल्य गांगुली - 2011-04-20 10:47
अन्ना हजारे का यह कहना कि यदि संसद ने तैयार किए जा रहे विधेयक को पारित करने से इनकार कर दिया, तो वे उसे स्वीकार कर लेंगे यह साबित करता है कि उन्होंने अपना रुख कुछ लचीला कर लिया है। इस तरह का बयान वे उस समय नहीं दे सकते थे, जब वे जंतर मंतर पर आमरण अनशन पर बैठे हुए थे। अब उनका इस तरह का बयान इसलिए आ रहा है, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि कानून बनाना उतना सरल नहीं है, जितना वे पहले समझ रहे थे।