अपने जमाने में बहुत मशहूर रहे बंगाल केमिकल्स के संस्थापक राय को भारतीय रसायनशास्त्र का पिता कहा जाता है। उनके शानदार कामों में ‘हिन्दू रसायनशास्त्र का इतिहास’ शामिल था। दृढ़ इरादे और दूरदृष्टि वाले राय का व्यक्तित्व भारतीय परंपरा, भारतीय दर्शन और आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त था। कई लोग महात्मा गांधी की तरह चरम आत्मोत्सर्ग की भावना के पोषक होते हैं, पर स्वयं राय ने राष्ट्रपिता पर अपने इस गुण की अमिट छाप छोड़ी थी। गांधीजी ने एक बार अकारण ही नहीं कहा था, ‘‘यह विश्वास करना मुश्किल है कि साधारण भारतीय वेशभूषा में रहने वाला कोई इंसान इतना महान वैज्ञानिक और प्रोफेसर होगा।’’
पी. सी. राय के जीवन और उनके कामों को जानने वाले विद्वानों और जानकारों के अनुसार, दो खंडों में प्रकाशित उनकी आत्मकथा ‘लाइफ एंड एक्सपीरियंसेज ऑफ ए बंगाली केमिस्ट’ उनके सर्वश्रेष्ठ कामों में शामिल है। यह पुस्तक उस शख्स की बहुमुखी प्रतिभा को बताता है। यह आत्मकथा उनके जीवन और समय पर प्रकाश डालने के अलावा विशेषत: बंगाल और सामान्यत: भारत के बौद्धिक इतिहास को बताता है। श्री राय इंडियन स्कूल ऑफ केमिस्ट्री के संस्थापक भी रहे हैं। एक बार आचार्य ने ही कहीं खुद कहा था कि रसायनशास्त्र की दुनिया में वह अकस्मात ही आ गए थे। उनके जीवन के इस विडंबनात्मक मोड़ की और सराहना की जा सकती है, क्योंकि उनकी सक्रियता मानवीय हित से संबंधित मुद्दों जैसे शैक्षणिक सुधार, औद्योगिक विकास, रोजगार सृजन, गरीबी उन्मूलन, आर्थिक आजादी और राजनीतिक उन्नति के क्षेत्रों में भी थी।
समाज सुधारक के रूप में पी. सी. राय हिन्दू समाज की मौजूदा जाति व्यवस्था के कटु आलोचक थे। 1917 में भारतीय राष्ट्रीय सामाजिक सम्मेलन के अपने अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने जनसमुदाय से जाति व्यवस्था से लड़ने की क्रांतिकारी अपील की थी। ज्यादा लोग नहीं जानते होंगे कि आचार्य पी. सी. राय स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा के प्रबल पैरोकार थे। इसलिए स्वाभाविक था कि बंगाली भाषा के उत्थान और उसकी समृद्धि में उनके योगदान के लिए उन्हें प्रतिष्ठित बांग्ला साहित्य परिषद् (1931-34) का अध्यक्ष चुना गया।
विज्ञान विशेषकर रसायनशास्त्र से इतर साहित्य, इतिहास और जीवनी से संबंधित साहित्य को खूब पढ़ने वाले पी. सी. राय कम से कम आधा दर्जन भाषाओं में पढ़ सकते थे, हालांकि अंग्रेजी क्लासिक कभी उनकी पसंद नहीं रही। बंगाली भाषा के बड़े संरक्षक राय फारसी और अंग्रेजी के प्रकांड विद्वान थे, जबकि उन्हें संस्कृत और अरबी भाषाओं का भी कामचलाऊ ज्ञान था। उन्हें लैटिन और ग्रीक का भी थोड़ा ज्ञान था। कला के प्रति राय का रुझान जन्मजात था। वे वायलिन भी बजाते थे। सिर्फ किताबी ज्ञान तक सीमित न रहने वाले पी. सी. राय ने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया कि निर्दिष्ट पाठ्यपुस्तकों ने कभी भी मेरी लालसा पूरी नहीं की। मैं पुस्तकों का जबरदस्त प्रेमी रहा हूं। जब मैं महज 12 साल का था तब कभी-कभी भोर में 4 या 5 बजे ही उठ जाता था, ताकि बिना किसी विघ्न के अपने पसंदीदा लेखक को पढ़ सकूं।
इतिहास और जीवनियों के अध्ययन ने राय के ऊपर बड़ा प्रभाव छोड़ा। युवा पी. सी. राय न्यूटन, गैलिलियो और बेंजामिन फ्रैंकलिन जैसे वैज्ञानिकों के जीवन और उनके कामों से काफी प्रभावित थे, हालांकि उन्होंने स्वीकार किया कि तब वे उनके योगदानों का महत्व ज्यादा नहीं समझ पाए थे। पी. सी. राय के पिता हरीश चन्द्र को उनके अध्यापन के पेशे के दौरान वित्तीय परेशानियां भी आईं थीं, पर उन्होंने बेटे के अध्ययन में बाधा नहीं आने दी। शुरू में उन्होंने ईश्वर चंद्र विद्यासागर के संरक्षण में चलने वाले कम फीस के मेट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूट में दाखिला लिया। इसके कुछ साल बाद 1882 में उन्हें कैम्ब्रिज की स्कॉलरशिप मिली और वे आगे पढ़ने ब्रिटेन चले गए। वे गिलक्रिस्ट स्कॉलरशिप पाने वाले प्रारंभिक छात्रों में से थे। ब्रिटेन में राय की दोस्ती उनके हमवतन और नवोदित वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु से हुई। ब्रिटेन में बीएससी छात्र के रूप में उन्होंने एडिनबरा विश्वविद्यालय में प्रवेश पाया। सन् 1885 में उन्होंने विज्ञान विषय में स्नातक पूरा किया। उसके बाद सन् 1887 में उन्होंन डॉक्टर ऑफ साइंस की उपाधि पाई। उन्हें होप प्राइज स्कॉलरशिप भी प्राप्त हुई और वह एडिनबरा विश्वविद्यालय की केमिकल सोसाइटी के उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए।
रसायनशास्त्र में शोध करने का दृढ़संकल्प लेकर वह 1888 में स्वदेश लौटे और विज्ञान एवं रसायनशास्त्र की अपनी जानकारी को अपने देशवासियों से बांटा। कोलकाता में रसायनशास्त्र शिक्षण की तमाम कमियां थीं। वहीं के प्रेसीडेंसी कॉलेज ने उन्हें मौका दिया। इसी समय डॉ. महेन्द्रलाल सरकार द्वारा 1876 में स्थापित इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साइंस की भूमिका उनके लिए मददगार साबित हुई, क्योंकि यहां रसायानशास्त्र और भौतिकी में लेक्चर की व्यवस्था शुरू हुई। राय ने पहले प्रेसीडेंसी कॉलेज में नियुक्त हुए और बाद में वह यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ साइंस में गए। हालांकि वह सरकारी कॉलेज में नियुक्त किए गए थे, परंतु अपनी राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। उनके प्रशंसक सही कहते हैं कि आचार्य के कोलकाता के संदर्भ में भारत की स्वतंत्रता में योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा। राय ने असहयोग आंदोलन को भी समर्थन दिया। वह महात्मा गांधी और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कई बड़े नेताओं के हमेशा संपर्क में रहे। महात्मा गांधी की पहली कोलकाता यात्रा का श्रेय भी उन्हीं को जाता है।
इन तमाम सामाजिक सक्रियताओं के बावजूद आचार्य राय ने अपना शोधकार्य एकनिष्ठता से किया। मेंडलीव के पीरियोडिक टेबल के कई गुमनाम तत्वों को खोजने के लिए इंटरमीडिएट के रूप में जल में घुलनशील मरक्यूरस नाइट्रेट तैयार करने के दौरान उन्होंने अनेक दुर्लभ भारतीय खनिजों का व्यवस्थित रासायनिक विश्लेषण किया। इसी दौरान उन्होंने 1896 में मरक्यूरस नाइट्राइट को खोजा और उसे वैज्ञानिक समुदाय के सामने लाए। उस समय इसे केवल एक यौगिक माना जाता था। उन्होंने बाद में लिखा भी कि मरक्यूरस नाइट्राइट की खोज ने मेरे जीवन के नए अध्याय की शुरुआत कर दी। उनका एक और उल्लेखनीय योगदान अमोनियम नाइट्राइट का शुद्ध रूप में निर्माण रहा।
वास्तव में आचार्य पी. सी. राय सभ्यता और सांस्कृतिक थाती एवं आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि के अनूठे संगम थे। एक बार आचार्य के बारे में पंडित नेहरू ने कहा था कि आचार्य पी. सी. राय का नरम व्यक्तित्व, उनकी उत्कट देशभक्ति, उनकी विद्वता और उनकी सहजता ने मुझे अपनी युवावस्था में काफी प्रभावित किया था। बहरहाल, पी. सी. राय जैसे व्यक्तित्व 150 साल बाद भी भारतीय युवाओं के लिए आदर्श हो सकते हैं।
भारतीय रसायनशास्त्र के पिता थे आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय
नीरेंद्र देव - 2011-04-29 09:20
सन् 1861 में बंगाल और भारत को रबींद्रनाथ टैगोर और आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय के रूप में दो महान पुत्ररत्नों की प्राप्ति हुई थी। पी. सी. राय के नाम से मशहूर आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय का जन्म 2 अगस्त, 1861 को हुआ। यही पी. सी. राय बाद में भारत में रसायनशास्त्र के अध्ययन, रसायनशास्त्र शोध और रसायन उद्योग के अग्रदूत बने।