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औघड़ पंथ को ही अघोर पंथ कहा जाता है। कई इसे सरभंग मत या अवधूत मत के रुप में भी जानते हैं।
अघोर पंथ के अति प्रारंभिक रुप अथर्व वेद में मिलता है तथा श्वेताश्वतरोपनिषद् में अघोर शब्द का प्रयोग भगवान शिव के मंत्रों में किया गया है। वहां भगवान शिव को ही अघोर कहा गया है।
प्राचीन काल में अनेक प्रकार के समुदाय देश विदेश में थे जो अपनी साधना और मन्तव्यों में अघोरपंथी ही थे, परन्तु वर्तमान में अस्तित्व में जो अघोरपंथ है उसका सीधा सम्बंध गोरख पंथ या नाथ पंथ या फिर तंत्र प्रधान शैवमत से है।
इस पंथ का प्रारम्भ भारत के वर्तमान राजस्थान राज्य के राजपूताना स्थित आबू पर्वत के आस-पास हुआ। परन्तु आज देश के अनेक भागों में अघोरपंथी मिलते हैं। बड़ौदा में अघोरेश्वर मठ तथा गोरखपुर के गोरखनाथ मठ का अघोरपंथियों के लिए विशेष महत्व है।
अघोरपंथी साहित्य की कमी नहीं है परन्तु इसके बारे में ज्ञान का अभाव उनके अध्ययन तथा अनुशीलन की कमी के कारण है।
अघोरपंथ के सिद्धान्त निर्गुण अद्वैतवाद से मिलते जुलते हैं। इनके साधक हठ योग तथा ध्यान योग, जिसे लय योग भी कहा जाता है, का ही सहारा लेते हैं।
अघोरपंथी अपने गुरु को परम् महान मानकर उनकी पूजा करते हैं। ये मदिरा, मांस, तथा महामांस का भी सेवन करते हैं। ये मल-मूत्र भी साधान का अंग समझकर ग्रहण करते हैं। इनकी साधना में श्मशान क्रिया भी शामिल है।
इनके प्रमुख संतों में रहे हैं - गोरखनाथ, किनाराम औघड़, भिनकराम, भीखनराम, टेकमनराम, सदान्दन बाबा, बालखण्डी बाबा आदि।
अघोरपंथी अनेक तरह के वस्त्र पहनते हैं जो रंगीन भी हो सकते हैं और श्वेत भी। ये गृहस्थ भी होते हैं तथा साधु भी। इस पंथ में महिलाएं भी शामिल हो सकती हैं।
कुछ भी हो, अघोरपंथी स्त्री या पुरुष घुमन्तु साधु के वेष में विचित्रता लिए होते हैं। इनकी जटाएं, गले के नानाविध प्रस्तर, मालाएं, हाथ में त्रिशुल आदि सामान्य जनों विशेषकर बच्चों को भयभीत भी कर देती हैं।

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